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समीर न जाने कब से आराम कुर्सी पर निश्चेष्ठ सा बैठा हुआ था. कहने को लैप टौप खुला हुआ था,पर शायद एक भी मेल उसने पढ़ी नहीं थी.रविवार के दिन वो अक्सर नंदिनी मौसी से बालकनी में कुर्सी डलवा कर बैठ जाया करता था,पर आज तो सूरज की अंतिम किरण भी अपना आँचल समेट चुकी थी.शीत ऋतु की ठंडी हवाएँ अजीब सी सिहरन उत्पन्न कर रही थीं,पर वो यों ही बैठा रहा.एक बार नंदिनी मौसी फिर चाय के लिए पूछ ग़ई थीं.बड़े ही प्यार से उन्होने समीर के कंधे पर अपना हाथ रक्ख़ा तो उसकी आँखे भीग आयीं थीं.नि:श्वास छोड़ते हुए बस इतना ही मुँह से निकला ,

"नहीं मौसी,आज जी नहीं कर रहा कुछ भी खाने को"

"मैं जानती हूँ क्यों नहीं जी कर रहा है,पर कम से कम अंदर तो चलो.ये ठंडी हवाएँ हड्डियों को छेद देतीं हैं"

कैसे कहें  मौसी से कि जब मन लहुलहान हो गया है तो शरीर की चिंता किसे होगी?नंदिनी मौसी ज़बरन  लैप टौप,मोबाइल,उठाकर चलीं गयीं थीं.तो हारकर उसे भी उठना ही पड़ा.कभी कभी वो ख़ुद से प्रश्न करता,क्या इस घर को कोई घर कह सकता है?

माँ के मुख से उसने हमेशा एक ही बात सुनी थी,"घर बनता है अपंत्व,प्यार,ममता समर्पण और सामंजस्य से.अगर ईंट,सीमेंट,गारे और रेत की दीवारों से घर बनता, तो लोग सराय में न रह लेते,"

पत्नी के रूप में स्वयं उसने ऐसी सहचरी की कामना की थी जो मन,वचन,और कर्म से उसका साथ देती.विवाह तो प्रणयबंधन है,लेकिन शर्मिला व्यवहार,शिष्टाचार,माँ,अपमान से पूर्णतया विमुख थी.यदि दबे स्वर में कभी कोई कुछ कहता भी तो इतना चिल्लाती कि वो स्तब्ध रह जाते. न जाने शर्मिला की अपेक्षाएँ अधिक थीं या ख़ुद उनकी,पर इतना अवश्य था कि घुटने हमेशा उन्होने या उनके परिवार के सदस्यों ने ही टेके थे.

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