सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय में कहा है कि हर बात की आलोचना की जा सकती है, पर आलोचना सकारात्मक होनी चाहिए. यह वाक्य हर वह इंसान बोलता है जो सच को छिपाना चाहता है या झूठ को थोपना चाहता है. यह घरों में भी होता है, दफ्तरों में भी होता है. और सरकार तो करती ही है. अदालतें तो आमतौर पर सरकार की भागीदार होती हैं. हर सरकार किसी न किसी तरह अदालत से मनवा ही लेती है कि वह जो कर रही है वह जनहित में है. और यही सब सास, ससुर, पिता, पंडित, गुरु, समाज के चौधरी करते रहते हैं.
आलोचना का अधिकार का मतलब ही यह है कि जो अच्छा न लगे, उसे स्पष्ट शब्दों में निडर हो कर कह सकें. आलोचना को कोई सुने, उस पर अमल करे, यह लोगों की मरजी है. आलोचना को न मानना हरेक का अधिकार है पर इस अधिकार में आलोचक का मुंह बंद कराने का अधिकार किसी को नहीं है.मुंहफट कंगना रानौत कई महीनों से अनर्गल बातें करती आ रही है, जैसे उसे हर बात का ज्ञान है. उस से विज्ञान, आणविक शक्ति, सेना, ड्रग्स पतिपत्नी संबंधों, इतिहास किसी पर भी बुलवा सकते हो. बहुत लोग इस बात की खार खाए बैठे हैं कि उसे ट्विटर ने आजादी क्यों दी कि वह दूसरों को अपशब्द तक कह सके. ट्विटर ने तंग आ कर उस का अकाउंट सस्पैंड कर दिया तो वह इंस्टाग्राम पर बकबक करती है. उस पर, हालांकि, अब भावनाओं को ठेस पहुंचाने के मुकदमे होने लगे हैं.
यह सही भी हो सकता है कि कंगना जो कहती है वह बेतुका, झूठा और बेबुनियाद हो, पर जब तक वह अपने अकाउंट में कहती है और पढऩे वालों को छूट होती है कि वे उस के अकाउंट को फौलो न करें, यह आलोचना प्राइवेट ही कही व मानी जाएगी. यह आलोचना उस के अपने फौलोअर्स के बीच में है, सो, यह गलत नहीं है. इस आलोचना का मुंहतोड़ उत्तर लोग अपने मंचों से दे सकते हैं पर इस बकवास को बंद करने का हठ नहीं पाल सकते.