अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में भारत एक अजब किनारे में फंस सा गया है. भारत-रूस संबंध बहुत पुराने हैं और जवाहरलाल नेहरू के समय से भारत का झुकाव अमेरिका के खिलाफ सा रहा है. अपने सोवियत समाजवाद के कारण भारत चीन और रूस का समर्थन हर मौके पर करता रहा है. बाद में मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ आणविक संधि की तो पासा कुछ पलटा था. हालांकि,1962 में लाल चीन के हमले के दौरान अमेरिका ने ही हथियार भारत को भेजे थे.

अब फिर विदेश भवन असमंजस में है कि किस खेमे में रहे. लोकतंत्र होने के कारण भारत को अमेरिका के साथ होना चाहिए था पर रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत ने लगभग रूस का साथ दिया था और उस से हथियारों के खरीदने के समझौते पश्चिमी देशों की आपत्ति के बावजूद जारी रखे थे. पिछले साल भारत ने रूस से सस्ता तेल भी भारी तादाद में खरीदा है.

अब जब रूस यूक्रेन युद्ध में बुरी तरह फंसा है, व्लादिमीर पुतिन ने चीन के हाथपैर जोडऩे शुरू किए हैं और शी जिनपिंग का मास्को में भव्य स्वागत किया गया है. हालांकि चीन ने रूस को यूक्रेन पर हमला करने के लिए खुल्लमखुल्ला सही नहीं ठहराया है पर चीन उसे कच्चा माल भी दे रहा है और हथियार भी.

भारत के लिए अब विकट स्थिति है. चीन भारत की उत्तरी सीमा पर लगातार अपने पैर पसार रहा है. उस ने वहां सडक़ोंहवाई अड्डे ही नहीं, गांव भी बसाने शुरू कर दिए हैं और, कुछ सूत्रों के अनुसार, गांव उस जमीन पर भी बसा दिए हैं जिसे भारत अपनी कहता है.

शत्रु का दोस्त शत्रु वाले सिद्धांत में भारत के रूस से संबंध बिगड़ जाने चाहिए पर दिक्कत यह है कि मोदी को पश्चिमी देश भाव ही नहीं दे रहे. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और भारतीय मूल की कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति होने के बावजूद भारत-अमेरिका संबंध औपचारिता ही हैं. बड़े देशों में इंगलैंड के भारतीय मूल के प्रधानमंत्री ऋषि सूनक ने भी नरेंद्र मोदी का वह गुणगान नहीं किया जो कभी डोनाल्ड ट्रंप ने किया था.

चीन भारत की उत्तरी सीमा पर भारत से किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं और तिब्बती राजाओं के जमाने में तिब्बत के हिमालय के बड़े इलाके में राज का हवाला दे कर वह उसे चीन का ही हिस्सा मानता है. चीनी लोग भारत से व्यापार कर रहे हैं पर उन्हें वे दिन भी याद हैं जब भारतीय सैनिकों की मदद से अंगरेजों ने चीन पर हमला कर के उस के कुछ शहरों पर कब्जा किया था. मोदी ने शी जिनपिंग को अहमदाबाद में झूला झुलाया और महाबलीपुरम में गाइड की तरह उन्हें प्राचीन कलाकृतियां दिखाईं पर कोई खास लाभ नहीं हुआ.

चीन के पैंतरे आज भी भारत के खिलाफ हैं और नई बन रही विश्व व्यवस्था में रूस चीनी खेमे में पूरी तरह चला गया हैदूसरा खेमा अमेरिका व नाटो देशों का चीन की आर्थिकनाकेबंदी करने में लगा हुआ है. भारत इस में कहां हैपता नहीं.

बड़ा देश होने के बावजूद भारत को अभी सप्लायर की तरह चीन की जरूरत है जबकि तकनीक के लिए अमेरिका व यूरोप की. जहां चीन शक्ति का एक मजबूत केंद्र बन गया हैवहीं भारत बड़ी अर्थव्यवस्था के बावजूद न इधर का है न उधर का. जरूरत पडऩे पर कौन उस के साथ होगापता नहीं.

जी-20की अध्यक्षता का कोई खास भाव नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह तो बारीबारी 20 बड़े देशों में हर साल चलती है. इस का कूटनीति पर कोई असर नहीं पड़ेगा. विदेश नीतियां मीटिंग करने की जगह पर तय नहीं होतींअपने स्वार्थों पर तय होती हैं. जी-20की अध्यक्षता का मतलब यह नहीं कि शिखर सम्मेलन के भारत में होने से चीन के शी जिनपिंगभारत के मुरीद हो गए. वह संबंध पूरी तरह औपचारिक होगा.

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