हैदराबाद में रोहित वेमुला द्वारा आत्महत्या किए जाने के कारण उठे तूफान पर अगर आश्चर्य होना चाहिए तो सिर्फ यह कि आखिर गांवों के मजदूर दलितों की इतनी हिम्मत हो गई है कि वे अपने को बराबर का समझने लगे हैं. हमारा समाज 2 तरह से बंटा हुआ है. एक, पैसे से और दूसरा, जन्म से. एक तीसरा विभाजन धर्म का भी है पर वह असल में जन्म के विभाजन से जुड़ा है क्योंकि भारत के अधिकांश मुसलिम, ईसाई, बौद्ध, सिख उन जातियों से धर्मपरिवर्तन कर के बने हैं जिन्हें हिंदू धर्म की मुख्य ताकतवर धारा पिछले जन्मों के पापों का फल भोगने का अपराधी मानती है.

इस सोच के उदाहरण हर शहर में दिख जाएंगे. जब हैदराबाद का मामला सुर्खियों में था तभी दिल्ली के बाबुओं और साहबों के क्लब जिमखाना में एक सदस्य के मेहमानों को खाना परोसने से इनकार कर दिया गया क्योंकि मेहमान उस की घरेलू नौकरानियां और ड्राइवर थे. मोहिनी गिरि, जो कभी राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष थीं, अपनी संस्था गिल्ड औफ सर्विस के पदाधिकारियों को खाना खिलाने ले गई थीं और तब प्रबंधकों ने आपत्ति की थी.

पैसे की ऊंचनीच को समझा जा सकता है. एक ही घर के कुछ लोग बेहद अमीर और कुछ गरीब हो सकते हैं. पर जन्म से दिए गए भेदभाव का कुछ नहीं किया जा सकता. रोहित वेमुला पढ़ने में होशियार हो, जनरल कैटेगरी से प्रवेश पा कर पढ़ रहा हो पर उस के साथ सामाजिक भेदभाव होगा ही. ऐसा हर दफ्तर में हो रहा है. सरकारी सेवाओं में ऐसाroh जम कर हो रहा है जहां आरक्षण के कारण कल के अछूत अब सचिव स्तर तक पहुंच गए हैं. न्यायपालिका में कितने ही आरक्षणप्राप्त जज शिकायतें करते नजर आ रहे हैं.

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