केन्या में 1 मौल पर और पाकिस्तान में 1 चर्च पर तालिबानियों व दूसरे मुसलिम आतंकवादियों के कू्रर हमलों पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए. धर्म की रीत ही यह है कि अपने विरोधियों या अपने भगोड़ों को मार डालो, नष्ट कर डालो, जला डालो. धर्म टिका ही हिंसा पर है जो जबरन थोपी जाती है और जिस के बल पर लोगों के मन में धर्म के प्रति आस्था, डर, विश्वास स्थापित किए जाते हैं.

कू्रर से कू्रर अपराधी भी अपनी हिंसात्मक करतूत को जायज ठहराने के लिए कोई न कोई स्पष्टीकरण पैदा कर लेता है कि वह जो कर रहा है, सही है और उस हालत में वही एकमात्र उपाय है. फर्क यह है कि कू्रर अपराधी को समाज सजा देता है पर हिंसक धार्मिक प्रचारक की पूजा की जाती है, उसे बहादुर कहा जाता है और मरने पर शहीद कहा जाता है.

केन्या के नैरोबी में और पाकिस्तान के पेशावर के चर्च में मरने वालों ने इसलाम के खिलाफ न तो कुछ किया था, न कहा था. केन्या, पाकिस्तान, अमेरिका हो या भारत, धार्मिक आतंकवादी गुनाह और सजा के चक्कर में नहीं पड़ते. उन्हें तो मोहरे चाहिए जिन पर आक्रोश जता कर वे यह साबित कर सकें कि उन के हाथ कितने लंबे हैं और उन के हथियार कितने खतरनाक हैं.

एक तरह से वे विधर्मियों या विदेशियों को नहीं, अपने देश में, अपने समाज में संदेश देते हैं कि उन की अनसुनी न की जाए वरना वे अपनों के साथ भी वही कर सकते हैं जो निहत्थे, निर्दोषों के साथ करते हैं. दरअसल, यह धर्म के खोखलेपन को छिपाने की तरकीब है और मानना पड़ेगा कि यह बेहद सफल है.

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