इंडियन पीनल कोड यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विवाहिता स्त्री के साथ सहमति से बनाए संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है. 1860 के इस कानून में यह बड़ा बदलाव माना जा रहा है और समलैंगिक कानून के बाद इसे सामाजिक मील का पत्थर कहा जा रहा है. कोर्ट के इस निर्णय के आलोचकों का कहना है कि इस से औरतों में व्यभिचार बढ़ जाएगा, भारतीय संस्कृति नष्ट हो जाएगी, नैतिकता समाप्त हो जाएगी, स्त्रीपुरुष सड़कों पर संभोग करते नजर आएंगे. प्रशंसक खुश हैं कि औरतों को पति की संपत्ति मानने वाला यह कानून समाज के चेहरे पर बड़ा काला धब्बा था जिस पर सर्जिकल स्ट्राइक कर दी गई है.

समलैंगिकता और व्यभिचार यानी एडल्ट्री के कानूनों को दशकों पहले समाप्त कर देना चाहिए था और यह काम संसद का था. संसद और उस में बैठी पार्टियों की रीढ़ की हड्डी इतनी कमजोर है कि वे सामाजिक हितों को बराबरी देने वाले कानूनों को छूने से ही डरती हैं, वे उन पर विचार तक करने को तैयार नहीं होतीं. भारत के कानून में एडल्ट्री के अपराध होते हुए भी इस से जुड़े मामले बहुत कम दर्ज होते थे. इस में इक्कादुक्का ही सजा हुई होगी. यह अधिकार भी केवल पति को था, पत्नी को नहीं. शिकायत पति ही कर सकता था. इस का इस्तेमाल तभी होता था जब पत्नी खुल्लमखुल्ला घर छोड़ कर चली जाए और किसी के साथ रहने लगे. उस के किसी से यौन संबंध हैं, यह साबित करना कठिन होता था पर मुकदमा चल सकता था.

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