नरेंद्र मोदी को चुनावी सभाओं में मिलने वाली भीड़ भगवाइयों की पहली भीड़ नहीं है. यह वही भीड़ है जो कुंभ के मेलों में होती है, रामलीलाओं में होती है, तीर्थस्थानों में होती है, चारधाम यात्रा के लिए उत्तराखंड में जमा होती है, तिरुपति के मंदिर में लंबी लाइनों में होती है. धर्म के नाम पर रंगे लोगों की गिनती इस देश में कम नहीं है. इस तरह की भीड़ तब भी होती है जब रितिक रोशन शूटिंग पर पहुंचता है, फार्मूला 1 रेस होती है या क्रिकेट मैच होता है.

जनूनियों की भीड़ जनता का मत स्पष्ट नहीं करती. हां, मौजूद लोगों का उत्साह जरूर दर्शाती है. नरेंद्र मोदी ने छिन्नभिन्न होती, दिशाहीन भारतीय जनता पार्टी में एक नई जान फूंकी है. सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और लालकृष्ण आडवाणी से ऊबे लोगों को नरेंद्र मोदी में एक नया उत्साही, वाक्पटु नेता मिला है जो उन की पार्टी को नई ऊर्जा दे रहा है और पार्टी के निराश समर्थक व कार्यकर्ता जोश में आ गए हैं.

पटना में बम विस्फोटों के बावजूद नरेंद्र मोदी की सभा में गांधी मैदान में उमड़ी भीड़ यह जताती है कि नरेंद्र मोदी पर विश्वास व अंधविश्वास करने वाले अपनी जान की परवा भी नहीं करते. नरेंद्र मोदी ने पूरे भाषण में देश और बिहार के विकास का कोई गुर नहीं समझाया. उन्होंने नीतीश कुमार को मित्र कहकह कर भरपूर गालियां दे कर उस कृष्ण की याद दिलाई है जो एक तरफ कौरवों को सेना देता है तो दूसरी तरफ अर्जुन का सारथी बन कर उसे युद्ध करने पर राजी करता है.

10-20 साल से नहीं, सैकड़ों सालों से कट्टर हिंदू एक ऐसे उद्धारक की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो उन्हें बचा दे. पौराणिक ग्रंथों में जैसे देवता दौड़ेदौड़े कभी ब्रह्मा, कभी विष्णु के पास जाते थे कि उन्हें बचाया जाए वैसे ही हिंदू सदियों से अपने को बचाने वालों की चिरौरी करते रहे हैं और नए आक्रमणकारी का साथ तक देते रहे हैं ताकि पिछले आक्रमणकारी से छुटकारा मिल सके.

नरेंद्र मोदी फैक्टर देश पर छा गया है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता है और यह सूखे में बादलों की तरह है. नरेंद्र मोदी पर इतना वादविवाद हो रहा है कि अब ज्यादा कहनेसुनने की गुंजाइश नहीं है क्योंकि मुद्दा नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व नहीं है, उन की शासन सक्षमता नहीं है, उन की नेतृत्व कला नहीं है. मामला तो कट्टर हिंदूवाद की पुनर्स्थापना का है. नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर मुख्यालय के प्रवक्ता हैं और नागपुर देश पर कब्जा करने का एक सपना क्यों न देखें, खासतौर पर जब बढ़ते भ्रष्टाचार, लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था, महंगाई, शहरों- गांवों में बढ़ते अपराध, शासकों का निकम्मापन रोज सुर्खियां बनते हों. बाढ़ के पानी में डूबते लोग तो कांटों भरी टहनी को पकड़ कर भी बचने की कोशिश कर लेते हैं. नरेंद्र मोदी को फिर क्यों छोड़ें?

 

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