तमिलनाडु के 5 बार मुख्यमंत्री रहे करुणानिधि की 94 वर्ष की आयु में मृत्यु के बाद अब तमिलनाडु की राजनीति में नई करवटें आएंगी. दोनों दिग्गज नेता करुणानिधि और जयललिता की मृत्यु के बाद वहां अगर नेता बचे हैं तो करुणानिधि के परिवार के ही पर स्टालिन दयानिधि मारन और अन्य बाकी द्रविड़ मुनेत्र कषगम का रथ साथसाथ खींचेंगे इस में शक है.

फिलहाल परिवार सत्ता से बाहर है और अब उस के परिवार को फिर सत्ता मिलती है तो साइड में इंतजार कर रहे रजनीकांत और कमलहासन जैसे सितारे खाली हुए स्थान को भर पाएंगे कहा नहीं जा सकता.

तमिलनाडु की राजनीति अब केवल हिंदी विरोध या उत्तर भारत विरोध पर नहीं टिकी है. कांग्रेस का वजूद समाप्त सा है और भारतीय जनता पार्टी लाख कोशिशों के बावजूद जम नहीं पा रही पर क्या नेताओं की नई पीढ़ी या नई पौध जनता को वोट देने के लिए आकर्षित कर पाएगी कहा नहीं जा सकता.

मूलत: तमिलनाडु का प्रबंध उत्तर भारत के राज्यों से ज्यादा अच्छा है. पेरियार, अन्नदुरै, करुणानिधि के धर्म विरोधी होने के बावजूद वहां खासे अंधविश्वास पनपते हैं और धर्म का बोलबाला पर लोग ज्यादा उत्पादक हैं पर साथ ही ज्यादा उग्र भी. इस विरोधाभासी माहौल में नए नेता अपनी जगह बना पाएंगे, इस में संदेह है.

करुणानिधि और उन के पुराने मित्र एम जी रामचंद्रन ने अन्नादुरै की विरासत का पूरा लाभ उठाया था और जयललिता के एम जी रामचंद्रन को विरासत पूरी की पूरी मिल गई थी. एक तरह से वहां अब तक 1967 में कांग्रेस के पलायन के बाद एक सोच की राजनीति चल रही थी जो अब समाप्त हो गई है. कई दशकों से इस सोच में तीखापन नहीं रह गया था पर फिर भी खंडहरों से किले तो मौजूद थे. अब ये किले भी ध्वस्त हो गए हैं.

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