हम अपने युवाओं को पढ़ने के लिए नहीं परीक्षा में बैठने के लिए तैयार करते हैं. देशभर के मैडिकल इंजीनियरिंग, एमबीए, आर्किटैक्चर, फैशन डिजाइनिंग आदि कालेजों में क्या पढ़ा कर योग्य छात्रों को तैयार किया जाता है, यह चिंता कोई नहीं करता, इन सरकारी या प्राइवेट संस्थानों में दाखिला कैसे मिलता है, यह तैयारी कैसी हो, इस के नियमकानून कैसे हों, इसी पर सरकार, शिक्षा मंत्रालय, वाइस चांसलर, डीन, अदालतें दिमाग खपाती रहती हैं. मैडिकल व डैंटल कोर्सों के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं में कितनी बार छात्र बैठ सकते हैं इस पर हार कर सरकार ने 3 बारी को मान लिया है. हर राज्य का कोटा 85% हो, अपने राज्य के कालेजों में इस पर हल्ला जारी है. इन में आरक्षण की बात तो उठाई ही जाती है, प्रवेश परीक्षा देने की उम्र बढ़ाने की मांग भी की जा रही है.

यह हम अपने युवाओं के लिए खिलवाड़ क्यों कर रहे हैं. जो पैसा 6 लाख बच्चे प्रवेश परीक्षाओं में पास होने के लिए कोचिंग, किताबों, बरबाद हुए समय पर खर्च करते हैं, उस से न जाने कितने नए संस्थान खुल जाएं कि जो छात्र चाहे दाखिला पा सके. पर हम चाहते हैं कि ऊंची शिक्षा सिर्फ चुने हुओं को मिले. ऐरागैरा दाखिला न ले सके. तभी तो सिफारिशियों की गिनती बनती है. तभी तो नेताओं और अफसरों के यहां भीड़ जुटती है. तभी तो पैसा ले कर दाखिला मिलता है.

यह एक देश के दिमागी दिवालिएपन का नमूना है. हम एकलव्य बनाने में इतने इच्छुक नहीं हैं जितने खुद सीखे एकलव्य से दक्षिणा पाने को हैं. कोई भला पूछे कि उस द्रोणाचार्य को कैसे महान कहा जा सकता है जो बिना पढ़ाए किसी से फीस ले ले, और हम हैं कि उसी का राग अलापे जाते हैं, सड़कों का नाम, पुरस्कारों का नाम, विश्वविद्यालयों का नाम उस द्रोणाचार्य के नाम पर रखते हैं जिस ने एकलव्य के साथ बेईमानी की, जो बेईमानी आज के शिक्षकों में कूटकूट कर भरी है, जिस पर मध्य प्रदेश का व्यापम कांड हुआ पर अंत में दब गया.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...