उत्तर प्रदेश की सरकार ने लाउडस्पीकरों के नियमों को न मानने की वजह से 10,900 लाउडस्पीकर हटवा दिए हैं जो आबादी को नाहक परेशान करते थे.
वैसे तो इस का मकसद मसजिदों से लाउडस्पीकर हटाना था जहां से अजान कही जाती थी पर देश में अभी इतना लोकतंत्र बचा हुआ है कि वहां मंदिरों से भी लाउडस्पीकरों को हटाया गया है. जैसे रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस की आर्थिक नाकाबंदी करने के लिए उस के विदेशी लेनदेन बंद कर देने से यूरोप को गैस का संकट ?ोलना पड़ रहा है वैसे ही मसजिदों के लाउडस्पीकर उतरवाने के चक्कर में मंदिरों और गुरुद्वारों के लाउडस्पीकर भी ‘फिलहाल’ उतरवा दिए गए हैं.
‘फिलहाल’ शब्द बहुत जरूरी है क्योंकि धर्म के दुकानदार अपना प्रचार किसी भी हालत में कम नहीं होने देंगे और उन के लिए इस नियम को तोड़मरोड़ कर फिर लागू कर दिया जाएगा. पुलिस की इजाजत के नाम से मंदिरों और गुरुद्वारों को, विशेष अवसरों की आड़ में, 100-200 दिन की इजाजत मिल ही जाएगी लेकिन मसजिदों को किसी भी हालत में ऐसी इजाजत नहीं दी जाएगी.
लाउडस्पीकर धर्म के धंधे का पहला हथियार है. हर प्रवाचक आजकल बढि़या साउंड सिस्टम लगवाता है ताकि उस की कर्कश आवाज भी मधुर हो कर देश के कोनेकोने में पहुंच जाए. कनफोड़ू लाउडस्पीकरों की जरूरत इसलिए
होती है क्योंकि पूजापाठ के ?ाठे फायदों को घरघर पहुंचाया जाए और भक्तों की गिनती बढ़ाई भी जाए व उन से उन की जेबें भी खाली कराई जा सकें.
हनुमान चालीसा के पाठ का जो नया शिगूफा भारतीय जनता पार्टी ने शुरू किया है वह लाउडस्पीकरों पर ही तो आधारित
है. लाउडस्पीकर न हो तो चाहे जितनी रामायण, महाभारत, हनुमान चालीसा, आरतियां गाइए, जनता को फर्क नहीं पड़ेगा. जिस युग में लाउडस्पीकर नहीं थे, उस में धर्म के दुकानदार आमतौर पर फटेहाल ही होते थे क्योंकि खुले मैदान में अपनी कपोलकल्पित कहानी 10-20 लोगों को ही सुनाई जा सकती थी. लाखों की भीड़ के लिए तो लाउडस्पीकर चाहिए ही.
धर्म का धंधा एकतरफा बात के आधार पर चलता है जिस में आप कहें लेकिन सुनने वाला न सवाल पूछे, न अपनी बात कहे और न ही आप की बात को काट सके. लाउडस्पीकर के युग में तर्क और तथ्य की बात बंद करना बहुत ही आसान है.
उत्तर प्रदेश सरकार को अभी तो मुसलिम समाज को संदेश देना था, जो उस ने दे दिया. भविष्य में वह मंदिरों और गुरुद्वारों से कैसे निबटती है, देखना होगा. यह मुसीबत सारे देश की है और सारे देशवासियों की है जो धर्मप्रचारकों के लाउडस्पीकरों के सामने चुप रहने को मजबूर रहते हैं.
धार्मिक पोलपट्टी यानी देशद्रोह
जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार देश में आई है, देशद्रोह गंभीर हो गया है. जहां 2014 में 30 मामलों में 73 लोगों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया और सींखचों के पीछे डाल दिया गया वहां 2019 तक यह संख्या बढ़ कर
93 मामले और 98 गिरफ्तारियां हो गई. वर्ष 2020 व 2021 में कोविड महामारी के कारण सरकार उस में विशेष व्यस्त रही पर गिरफ्तार, आमतौर पर, बिना जमानत के जेलों में रहे.
देशद्रोह का मतलब होता है देश के प्रति कुछ ऐसा करना जिस से देश के अस्तित्व को आंच आए और उस के टुकड़े होने की आशंका हो, पर असल में आज देशद्रोही, नई परिभाषा के अनुसार, हर वह हो गया है जो पौराणिक हिंदू मान्यताओं के आगे सिर न ?ाकाए और भेदियों के साथ राजाओं के आगे सिर ?ाका कर न चले.
देश की जनता को यह पाठ पढ़ा दिया गया है कि देश के शासक, उस का ज्ञान, उस का इतिहास, उस की गरिमा इतनी महान है कि उस के बारे में किसी तरह का तर्क, तथ्य या प्रश्न करना सीधा धर्म और देश के विरुद्ध विद्रोह है और प्रश्न करने वालों को जेल में डाल देना सही है चाहे उन की संख्या कितनी भी हो. देश की जनता के एक हिस्से का विश्वास है कि देश की 80 फीसदी जनता देशद्रोही है, जी हां, दोतिहाई से ज्यादा. और, वे ही देशभक्त हैं जो ‘यह जय वह जय…’ के नारे सुबह, दोपहर, शाम, रात को लगाते हों. सरकार ने तो यह नीति बनाई और जनता के प्रभावशाली वर्ग को यह इतनी भाई कि उस ने तुरंत इसे लपक लिया और वह पैसा मिलने या न मिलने पर भी इस दुष्प्रचार को फैलाने में लग गया.
देशभर में समाचारपत्र, टीवी चैनल, ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप ग्रुप देशद्रोहियों के प्रचार से भर गए हैं. इस का परिणाम यह हुआ कि देश में सामाजिक सुधार बंद ही नहीं हुए, उलटे, पुरातन विचार फिर से कैक्टसों की तरह पनपने लगे हैं. देश जातियों में बंटने लगा है. हर जाति अपना ?ांडा ले कर खड़ी हो गई है. हरेक ने अपने देवीदेवता ढूंढ़ लिए हैं. विवाह, प्रेम अपनी ही जाति में होंगे क्योंकि हर जाति अपने त्योहार अपने प्राचीन तरीकों से मनाएगी.
देशद्रोह यह सब था और है. जिन्होंने अलग जातियों, संप्रदायों, देवीदेवताओं, जातियों, उपजातियों, नामों के आगे जाति लगाई वे देशद्रोही हैं. जो एक की मूर्तिपूजा कर दूसरे को अपना विरोधी मानते हैं, वे देशद्रोही हैं, पर देशद्रोह का आरोप उन पर लगाया जा रहा है जो यह बता रहे हैं कि कैसे सत्ता व प्रभाव में बने रहने के लिए लगातार देशद्रोह के कानून, भारतीय दंडसंहिता की धारा 124 ए के साथ दूसरी धाराओं व दूसरे कानूनों की धाराओं को मिला कर सुधारकों का मुंह बंद किया जा रहा है.
अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है. लेकिन जब जनता का दोतिहाई हिस्सा गद्दार माना जाए, तो आप क्या कहेंगे, क्या करेंगे आप.
यूके्रन, यूक्रेनी और जेलेंस्की
रूस-यूक्रेन युद्ध एक छोटे देश के अस्तित्व की लड़ाई का ही मामला नहीं है, इस का व्यापक असर हर समाज पर पड़ेगा जैसे द्वितीय विश्व युद्ध का पड़ा था. यह लड़ाई एक छोटे देश के एक विशाल देश की फौज के सामने खड़े होने की हिम्मत की है. इस का संदेश यह है कि हर देश का नागरिक अगर अपनी सही बात को मनवाना चाहता है या अपने हकों की रक्षा करना चाहता है तो उसे तन कर, सबकुछ जोखिम में डाल कर अड़ जाना चाहिए.
यूक्रेन यदि 20 मार्च को सरैंडर कर देता और कहता कि यह तो उस का भाग्य है तो रूस अब तक वहां की सरकार बदल चुका होता और उस के टैंक लिथुआनिया, कजाखिस्तान, किर्गिस्तान की ओर बढ़ रहे होते. यूक्रेन की जनता के घर बचे होते, 50-60 लाख लोग देश छोड़ कर पनाह न ले रहे होते. लेकिन एक यूक्रेन विशाल जेल में बदल चुका होता जिस के साढ़े 4 करोड़ निवासी 9 लाख की रूसी सेना के गुलाम होते.
हमारे अपने देश में क्या होता रहा है. हर संघर्ष में हर हक के लिए हमें यही पाठ पढ़ाया गया है कि आप को वही मिलेगा जो आप के भाग्य में है. गीता बारबार यही कहती है कि हर पल आप का पूर्व निर्धारित है. आप जो चाहे कर लें, आप का वर्तमान तो आप के पिछले जन्म के कर्मों से बनता है.
हमारी आज की सरकार हर मौके पर कांग्रेस को कोसती है कि उस के कर्मों के फल भारतीय जनता पार्टी की सरकार को भोगने पड़ रहे हैं. व्लोदीमीर जेलेंस्की ने न इतिहास का नाम लिया, न ईश्वर का. उन्होंने सिर्फ कहा कि हमें अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है जान पर खेल कर. काफी कम साधन होने पर भी वे रूस से भिड़ गए. पूरा देश उन के पीछे हो गया. कुछ ही दिनों में पूरा यूरोप और अमेरिका उन के समर्थन में खड़े हो गए.
यूक्रेन को तुरंत सैनिक, शस्त्र मिलने लगे, खाना, दवाइयां मिलने लगीं. रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लग गए. लोकतंत्र की रक्षा यानी हर नागरिक के हकों की रक्षा तभी हो सकती है जब अपने हकों के लिए खड़ा होने का जोखिम लिया जाए और यह पाठ जेलेंस्की ने विश्व को पढ़ा दिया.
रूस-यूक्रेन युद्ध ने यह भी जता दिया है कि यूके्रनियों ने भी पश्चिमी देश, जो उत्पादन करते हैं, नारेबाजी नहीं, जो व्यक्ति के हकों का सम्मान करते हैं, तानाशाही का नहीं, जो अपने यहां विविधता अपनाते हुए और्थोडौक्स क्रिश्चियन होते हुए भी एक ज्यू को राष्ट्रपति बनाने की हिम्मत रखते हैं, वे अकेले के हकों का लाभ जानते हैं, जो समाज अपने चर्च के लिए नहीं बल्कि अपने लोकतांत्रिक हकों के लिए जान जोखिम में डालते हैं, उन्हें किसी से भी डरने की जरूरत नहीं.
यूक्रेन में चर्चों में घंटे नहीं बजे, पादरियों के प्रवचन नहीं हुए, चर्च को दान देना शुरू नहीं हुआ. वहां सब ने मिल कर विशाल रूस से दोदो हाथ करने का फैसला किया और हर सड़क को रोका गया, हर घर में बमों को बनाने की फैक्ट्री बना डाला गया. हर टैंक को मोलोटोव कौकटेल या शराब की जलती बोतल का सामना करना पड़ा. शहर तहसनहस हो गए हैं पर यूक्रेनियों का दमखम पचासों मंजिल और ऊंचा हो गया है.
यूक्रेन जीते या हारे, रूस को एक सबक मिल गया है. रूसियों को यूक्रेन पर आक्रमण की उसी तरह बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी जैसे अफगानिस्तान की जनता को कट्टरपंथी इसलामी तालिबानी शासकों को घर में और सिर पर बैठाने की पड़ रही है.
रूसी अपने धार्मिक, राजनीतिक तानाशाह के मनमाने फैसले का दुष्फल भोगेंगे जैसे अफगान (और उस जैसे दूसरे कई देशों के निवासी) अपने धार्मिक तानाशाहों के कुकर्म के फल भोग रहे हैं. फल पिछले जन्म के कर्मों से नहीं, इसी जन्म के कर्मों से मिलता है. यूक्रेन का यह पाठ सम?ा लें.
प्रेमी जोड़ों की शादी
पुलिस वालों से शादी तुड़वाने का काम तो बहुत आसान व आम दिखता है पर अब पुलिस युवाओं की बढ़ती आत्महत्याओं के मामलों से चिंतित हो कर अपनी तरह जांचपड़ताल कर उन की शादी करा रही है. आमतौर पर प्रेमी जोड़ों को शादी करने की इजाजत जाति, उपजाति, धर्म, पैसे, रसूख, औकात के कारणों में से एक या ज्यादा रहे कारणों से नहीं दी जाती.
पुलिस वाले अगर वयस्क जोड़े को सुरक्षा दे दें तो वे अपनेआप शादी कर लें. होता क्या है कि जैसे ही लड़की शादी के लिए भागी नहीं कि मातापिता लड़के पर अपहरण जैसा गंभीर आरोप लगा देते हैं. पुलिस वाले लड़के के मांबाप, दोस्तों को गिरफ्तार कर लेते हैं कि वे अपहरण के अपराध में सा?ादार हैं.
जेल में बंद न होने के डर से बहुत से जोड़े मातापिता की ओर से इनकार किए जाने पर भागते नहीं, आत्महत्या करने का फैसला कर लेते हैं. वे जानते हैं कि न पुलिस उन्हें सुरक्षा देगी और न समाज अपनाएगा.
आजकल प्रेमी जोड़ों को व्यावहारिकता की भी सम?ा आ गई है. प्रेम कर लेना तो आसान है पर जब तक लड़के या लड़की के पिता के घर में रहने को जगह न मिले, नए जोड़े के पास इतने पैसे भी नहीं होंगे कि वे किराए पर अपना घर बसा सकें. वैसे भी, मकान मालिक अब पुलिस के चक्करों में फंसने के डर से भागे हुए,
चाहे शादीशुदा ही क्यों न हों, जोड़ों को घर देने से हिचकिचाते हैं. इसलिए पुलिस ने अगर शादियां करवानी शुरू कीं तो यह अच्छा होगा. हां, पंडित जरूर बेचैन हो उठेंगे कि उन की रोजीरोटी का क्या होगा.