भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन पर पैंतरेबाजी और तीखी हो गई है क्योंकि अब राहुल गांधी ने कांगे्रस के विरोध की कमान संभाल ली है. उन्होंने 20 अप्रैल को लोकसभा में सूटबूट वाली सरकार को आड़े हाथों लिया. उन्होंने मोदी सरकार को उद्योगपतियों व अमीरों की सरकार बता कर उसे कठघरे में खड़ा कर दिया. भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में संशोधन का प्रस्ताव रख कर नरेंद्र मोदी सरकार ने एक बवंडर खड़ा कर दिया और चाहे वह कानून बन भी जाए, मगर हर इंच जमीन लेने पर उसे उस हायहत्या के लिए तैयार रहना होगा जो ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के सिंगूर में टाटा की फैक्टरी की जमीन को ले कर की थी या मेधा पाटेकर ने सरदार सरोवर बांध को ले कर की थी.

भारतीय जनता पार्टी चाहे जितना कहती रहे कि नया संशोधन विकास का मंत्र फूंकेगा, लेकिन वास्तव में वह ऐसा है नहीं. असल में उस के द्वारा दावा किया जा रहा वाला विकास किसानों की छाती रौंद कर होगा और उस का लाभ शहरी निवासियों व उद्योगपतियों तक ही सीमित रहेगा. यह तर्क कि इस कानून से शहरीकरण बढ़ेगा और गरीबों को मकान मिलेंगे, बिलकुल बेकार है. अगर शहरीकरण कराना है तो हर किसान को इजाजत दे दो कि वह गेहूं बोए या मकान बोए, उस की जमीन है, वह जो चाहे करे. पर नहीं, तब सरकारें स्टैंप ड्यूटी, चेंज इन यूज (इस्तेमाल के बदलाव), एनओस (अनापत्ति प्रमाणपत्र) के नाम पर बीच में आ जाती हैं. अगर शहरी सरकारी अफसर या बिल्डर किसान की जमीन पर मकान बना सकता है तो किसान खुद क्यों नहीं? उसे इजाजत दो, शहरीकरण खुदबखुद हो जाएगा, बिना अधिग्रहण के.जहां बात उद्योग लगा कर नौकरियां पैदा करने की है, तो किसान को छूट दो कि वह खेती करे या फैक्टरी लगाए. तब सरकार इजाजत देने या न देने वाली कौन है? अगर मुनाफा होगा तो किसान खुद मुनाफा कमा लेगा. वह वही काम करेगा जि स में उसे लाभ होगा.सरकार तो अपने हाथ पक्के करने चाहती है, लड़कालड़की की शादी में व्यर्थ में पंडा बन कर मोदी दक्षिणा कमाना चाहते हैं. देश के विकास के लिए किसान की बलि क्यों दे रहे हो, सरकारी अफसरों की, नौकरशाही की बलि दे कर देखो, 1991-95 की  तरह देश चमकने लगेगा.

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