अरविंद केजरीवाल के राज करने की चुनौती को स्वीकारने का अर्थ है कि उन की आम आदमी पार्टी यह जताना चाहती है कि देश की जनता के बलबूते एक साफ व ईमानदार सरकार दी जा सकती है या नहीं. अब तक का अनुभव यही बताता रहा है कि साफ दिल और सेवाभाव से आने वाले दलों को सत्ता की शराब कुछ सप्ताहों में शक्ति का दंभी बना देती है. अरविंद केजरीवाल और उन के साथी कितने सप्ताहों या महीनों में इस जहर के शिकार बनते हैं, यह देखना है.

साफ सरकार चलाना असंभव नहीं है. देश में आज भी ऐसे सैकड़ों स्कूल, कालेज और स्वयंसेवी संस्थाएं चल रही हैं जिन में मतभेदों के बावजूद मुख्य उद्देश्य देश की सेवा करना है. अमेरिका व इंगलैंड के राष्ट्रपतियों व प्रधानमंत्रियों पर अपनों के लिए पैसा बनाने के आरोप कम ही लगे हैं. उन के फैसले गलत हो सकते हैं पर बेईमानी के बिना राज करना असंभव है, यह नहीं कहा जा सकता.

अरविंद केजरीवाल को चुनौती अपने विधायकों व मंत्रियों से नहीं नौकरशाही से मिलेगी जोकि साफ सरकार को अपने हितों के खिलाफ समझते हैं. ऐसे अफसरों को ढूंढ़ना मुश्किल है जो अपने वेतन और अधिकार से मिलने वाले संतोष पर जी सकें. फिर भी, जैसे राजनीति में अरविंद केजरीवाल ने नए किस्म के नेता ढूंढ़ लिए, शायद ये भी मिल जाएं.

जनता असल में ऐसी सरकार चाहती है जिस के फैसले उस के काम में अड़चन न डालें. यह कठिन नहीं है. ज्यादातर सरकारी फैसले केवल रिश्वत उगाहने की नीयत से किए जाते हैं. कानूनों की मनचाही व्याख्या की जाती है ताकि सरकारी अफसरों की ताकत बढ़ती रहे. फाइलों को महीनों और सालों रोका जाता है ताकि पैसा मिले. एक को अनुमति देना, दूसरे को न देना रोज की बात है क्योंकि एक ने पैसा दिया होता है, दूसरे ने नहीं.

अरविंद केजरीवाल अगर खुद किसी की तरफदारी न करें और न किसी को करने दें तो नौकरशाही अगले 6 महीने तो सूखे के दिन मान कर गुजार लेगी. वह नई सरकार के नए आदेशों को भी लागू कर देगी जो भ्रष्टाचार की भव्य अट्टालिका को खंडहर में तबदील कर सकते हैं. पर यह लंबा चलेगा, इस पर थोड़ा संदेह है.

पश्चिमी यूरोप की कितनी ही सरकारें  बिलकुल साफ शासन दे रही हैं और दिल्ली सरकार उन की गिनती में न आ सके, इस का कोई कारण नहीं.

 

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