भारत की विदेश नीति कचरा होती दिख रही है. पाकिस्तान से नरेंद्र मोदी की बढ़ती नाराजगी के कारण भारत ने बंगाल की खाड़ी के चारों तरफ के देशों का एक संगठन बनाया और उस में आर्थिक, सांस्कृतिक व सैन्य सहयोग की बातों की शुरुआत की. पर काठमांडू में हुई बैठक के कुछ दिनों बाद ही पहले मेजबान नेपाल ने न केवल सैन्य सहयोग देने से इनकार कर दिया, वह चीन के साथ भी जा मिला.

बंगलादेश को इस संगठन में शामिल किया गया है. पर जब असम में घुसपैठियों की समस्या सिर पर हो और करीब 40 लाख लोगों को वापस बंगलादेश खदेड़ देने की बात चुनावी लड़ाई के लिए की जा रही हो, तो बंगलादेश कितने दिन चुप बैठेगा. म्यांमार, बंगलादेश व भारत रोहिंग्या मुसलमानों के मुद्दे पर भी तेवर अपनाए हुए हैं. श्रीलंका अब अपनेआप को श्रेष्ठ समझता है और उसे हमेशा डर लगता है कि भारत श्रीलंका के तमिलों के साथ मिल कर उस के देश में कुछ उत्पात न मचा दे.

असल में भारत की विदेश नीति अब ढुलमुल हो गई है. यह बिलकुल हिंदू राजाओं की पौराणिक परंपरा पर चलती नजर आ रही है जिस में राजा हर रोज पाला बदलते थे और कोई भी दूरगामी परिणाम की नहीं सोचता था.

भारत ने अब रूस से नाता हलका कर यूरोप और अमेरिका का हाथ पकड़ा है. लेकिन अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बेहद अविश्वसनीय हैं. वे कहते कुछ हैं, और करते कुछ हैं. रूस अपना साम्राज्य खड़ा करना चाहता है पर उस के पास न पैसा है न सोच. फालतू पैसा अगर किसी के पास है तो वह चीन है. पर भारत व चीन के संबंध सुधरने के आसार नहीं, क्योंकि चीन को पाकिस्तान ज्यादा सुहाता है. चीन और पाकिस्तान के बीच सीमा विवाद भी नहीं है.

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