गनीमत है कि सुप्रीम कोर्ट को अब हार कर यह एहसास हो गया है कि उस के बारबार के आदेशों के बावजूद निचली अदालतें छोटेछोटे मामलो में भी जमानत देने से कतराती हैं और पुलिस व सरकारी वकील की सिफारिश पर हर आरोपी को कुछ दिन जेल काटने को मजबूर कर ही देती हैं. निचली अदालतों के पास हर अभियुक्त को जमानत देने का पूरा अधिकार है यहां तक कि हत्या के अपराध में लाए गए आरोपी को भी. पर निचली पहली अदालत बिना दिमाग लगाए आरोपी को जेल में भेज देती है.

यह पुलिस के लिए बहुत ही लाभदायक फैसला होता है. हर प्राथमिकी पर किसी को गिरफ्तार करने का हक हर पुलिस इंस्पैक्टर को असीम पावर देता है. उन कानूनों में जहां अपराध पर जमानत का स्पष्ट उल्लेख है वहां भी निचली अदालत के जरिए आरोपी को 10-20 दिन तक जेल तो कटवा ही दी जाती है. निचली अदालतें इस अधिकार का दुरुपयोग इसलिए करती हैं ताकि अदालतों का दबदबा व खौफ बना रहे. वैसे भी निचली अदालतों के जजों के रहने, गाड़ी, आनेजाने की सुविधा, घरबाहर के काम पुलिस वाले ही कराते हैं और इसलिए जज उन के एहसानों में दबे होते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश निरर्थक होते हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अब तक यह पता करना शुरू नहीं किया कि किन मजिस्ट्रेटों या कनिष्ठ न्यायाधीशों ने जमानत अकारण देने से इनकार किया. जब तक सुप्रीम कोर्ट नाम ले कर ऐसे न्यायाधीशों को फटकार नहीं लगाएगा, जजों का ‘माइंड सैट’ नहीं बदलने वाला जिस की बात सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस संजय किशन कौल और एम एम सुंद्रेश की पीठ ने कही है. यह मानसिकता तब बदलेगी जब सुप्रीम कोर्ट वैसा ही फैसला लेगा जैसा उस ने मुंबई की हाईकोर्ट जज पुष्पा गनेडीवाला के मामले में लिया. जज पुष्प ने कई विवादास्पद निर्णय दिए थे, उसे सुप्रीम कोर्ट ने वापस जिला न्यायालय में भेज दिया.

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