Education : स्कूलों में भेदभाव बढ़ता जा रहा है. बच्चों को छुटपन से गरीबीअमीरी की दीवारों के पीछे बंद किया जा रहा है. वर्ष 1950 के बाद शिक्षा फैली और गांवगांव महल्लेमहल्ले में स्कूल खुले. शुरुआती कुछ सालों के बाद ही स्कूल नाम, जाति, धर्म, आर्थिक स्तर की पहचान बनने लगे.

गंदे, मैले, कुचैले, टूटे फर्नीचर वाले सरकारी स्कूलों और फूलों की क्यारियों वाले, लिपेपुते, शानदार व हवादार कमरे वाले इंग्लिश मीडियम स्कूलों ने जो खाइयां पैदा कीं वे स्कूली शिक्षा के 10-12 साल तक के लिए ही नहीं थीं, जिंदगीभर साथ रहती रहीं. सरकारी स्कूलों से निकले स्टूडैंट्स हर कोशिश करने के बाद भी उन खाइयों को जिंदगीभर पाट नहीं सके.

भारतीय जनता पार्टी हरेक को एक ही भगवान की दुकान तक धकेलने में तो सफल है, स्कूलों के मामलों में जाति और पैसे दोनों का पूरा ध्यान रख रही है. एक ही संस्कार, संस्कृति, एक ही इतिहास की बात तो ढोल पीटपीट कर की जाती है पर पढ़ाई के मामले में ऊंचनीच का पूरा ध्यान रखा जा रहा है.

अब इंग्लिश मीडियम व हिंदी मीडियम की खाइयां तो हैं ही, इंग्लिश मीडियम में भी देशीविदेशी लैवल वाले बोर्ड्स का ठप्पा भी लगना शुरू हो गया है. अपने को इंटरनैशनल स्कूलों से जोड़ कर बहुत से स्कूलों ने मोटी फीस वसूलना शुरू कर दिया है ताकि लोग अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में भेज सकें जहां मजदूरों को तो छोडि़ए, उन के मैनेजरों और पड़ोस के आम अमीर दुकानदारों के बच्चे भी न जा सकें.

देश में आजकल 972 इंटरनैशनल स्कूल चल रहे हैं जहां हर छात्र की फीस 10 से 20 लाख रुपए सालाना है. अमेरिका और इंगलैंड के भारीभरकम नामों वाली पुरानी सस्थाएं पिछड़े देशों को बहकाने में पूरी तरह सफल हैं कि उन के यहां से निकले बच्चे बिलकुल अलग तरह की शिक्षा पा कर निकलेंगे और वे बच्चे जीवन में सफल होंगे. उन्हें विदेशी कालेजों में आसानी से एडमिशन मिल जाएगा और वे देशी जनता से हमेशा दूर रहेंगे.

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