देश का मीडिया आजकल कई तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है. सब से बड़ी बात यह है कि पाठकों और दर्शकों की मुफ्त में बिना पैसे दिए जानकारी पाने की भूख मीडिया की जड़ों में तेजाब डाल रही है. एक आइसक्रीम, पिज्जा या डोसे के लिए लोग दोगुने तीनगुने पैसे देने को तैयार हैं पर पढ़ या देख कर जानकारी हासिल करने के लिए वे पैसे देने में आनाकानी कर रहे हैं.

सिनेमा जगत ने तो अमीरों को मल्टीप्लैक्सों से आकर्षित कर लिया है जहां मनोरंजन और कोरा मनोरंजन, खानेपीने की सुविधा के साथ परोसा जा रहा है, लेकिन सोचविचार व सूचना वाला मीडिया, जो पहले पाठकों के बल पर स्टीलफ्रेम की तरह मानवाधिकारों, समाज सुधारों, राजनीतिबाजों को नियंत्रित करने के लिए खड़ा रहता था, आज पाठकोंदर्शकों की उदासीनता का शिकार हो रहा है. ऐसा खासतौर पर हो रहा है पर भारत में, लेकिन दूसरे देश भी इस से अछूते नहीं हैं.

मीडिया की इस कमजोरी के लिए आम नागरिक जिम्मेदार हैं. विडंबना यह है कि वे बिना पैसे खर्च किए मीडिया से जिम्मेदारी और जवाबतलबी की उम्मीद करते हैं. आज मीडिया का एक हिस्सा सरकार का गुणगान कर रहा है तो इसलिए कि वह मजबूर है, क्योंकि मीडिया को पैसा वही सरकार दे रही है.

जो वैचारिक, कानूनी व तकनीकी सुधार आज हम देख रहे हैं उस के जनकों में 500 साल पहले के मार्टिन लूथर,  जिन्होंने जरमनी के विटेनबर्ग के एक चर्च के बाहर 95 थीसीम कील से ठोक कर इटली के पोप की पोल ही नहीं खोल दी, बल्कि पूरी सोच को बदल डाला था, जैसी हस्तियां शामिल हैं. मार्टिन लूथर ने तब ईजाद हुए पिं्रटिंग प्रैस का इस्तेमाल किया. उन्होंने धार्मिक आलोचना पंडों की भाषा लेटिन में न कर के जरमन में की और उसे छपवा कर बंटवाया. तब का वह छपवाना, आज की कंप्यूटर क्रांति की तरह है पर तब पैसा छापने वालों को ही मिला.

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