फिल्म के पहले सिनेमाघरों में राष्ट्रीय गान को चलवाने व राष्ट्रीय गान पर खड़े रहने की बाध्यता की वैधानिकता पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लोग सिनेमाघरों में मनोरंजन के लिए जाते हैं, राष्ट्रभक्ति दिखाने के लिए नहीं. उस समय उन्हें जबरन खड़ा कराना अनावश्यक है. इस पर एक वकील ने कटाक्ष किया है कि ये जज ही उम्मीद करते हैं कि वे जब अदालत में आएं, तो सब लोग खड़े हो कर उन को सम्मान दें.

राष्ट्रभक्ति का गुणगान करते हुए कैसे लोग विवेक शून्य हो जाते हैं, यह अदालत के उदाहरण से स्पष्ट है. राष्ट्रगान कुछ खास अवसरों पर गाया जाना चाहिए. इसे हर पिक्चर, मदारी के तमाशे या नेता के भाषण से पहले नहीं गाया जाना चाहिए. जहां मामला देशप्रेम का हो, देश की प्रतिष्ठा का हो, वहां ही राष्ट्रगान होना चाहिए.

अंधभक्त चाहते हैं कि जैसे हर समय रामराम, टच वुड (लकड़ी के क्रौस को छूना), अल्लाह की नियामत, वाहे गुरु की कृपा बुलवाते रहना धर्म के दुकानदारों का खेल है, ताकि लोगों को इस तरह मैस्मराइज कर के रखा जाए कि वे हर समय धर्म का भरा लोटा अपने हाथ में रखें और एक बूंद पानी छलकने न दें, तभी वे धर्म के बारे में सवाल पूछने की हिम्मत न कर पाएंगे.

देशभक्ति लोगों का अपना फैसला होती है. देश की सीमाएं बढ़तीघटती रहती हैं, इस से देशभक्ति कम नहीं होती. लोग एक देश की नागरिकता छोड़ कर दूसरे देश की नागरिकता अपना लेते हैं, तो देशभक्ति शिफ्ट हो जाती है और कोई हल्ला नहीं मचता, जैसा धर्म परिवर्तन में मचता है, क्योंकि देशभक्ति ऐच्छिक है. इसे धर्मभक्ति के बराबर थोपने की कोशिश वही करते हैं, जो धर्मभक्ति के अंधविश्वासी होते हैं, जहां न तर्क चलता है, न सहीगलत के सवाल पूछे जाते हैं. देश के बारे में हर तरह के सवाल पूछने के तर्क रहते हैं. सरकार निकम्मी है, संविधान में संशोधन हो, कानून बदले जाएं, प्रधानमंत्री गलत हैं जैसे शब्द कहना देशद्रोह नहीं है, जबकि इसी तर्ज पर धर्म के बारे में कहा जाए, तो धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंच जाती है.

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