Digital Era : पढ़ने और सुनने में एक बड़ा फर्क यह है कि लिखा हुआ ज्यादा गहराई तक समझ आता है और उस की बारीकियां पता चलती हैं जबकि सुनने में लोग बोलने वाले की शक्लसूरत पर ज्यादा मरते हैं, शब्दों का गहराई तक विश्लेषण नहीं कर पाते. आजकल बैंक, अच्छेखासे विदेशी नामों वाले बैंक भी, फोन कर के अपनी नई स्कीमों के बारे में बताते हैं. कुछ आप से कह देते हैं कि वे सारी बात रिकौर्ड कर रहे हैं. लेकिन वे आप को कुछ रिकौर्ड नहीं करने देते.
उन को पता है कि फोन पर या मुंहजबानी कही गई बात को गहराई तक भांपना आसान नहीं है. वे फायदे ही फायदे बताते रहते हैं. इस के लिए वे लच्छेदार कहानियां भी बना सकते हैं. यह तो रही सुन कर फैसला लेने की बात, लेकिन अगर पढ़ कर आप को फैसला लेना होगा तो आप बीसियों लोगों से महीनों पूछ सकेंगे, जो आज के बैंक नहीं चाहते. मार्केटिंग आजकल फेसबुक, यूट्यूब टीवी पर ज्यादा इसीलिए होनी शुरू हो गई है क्योंकि इन पर बेवकूफ बनाना ज्यादा आसान है.
नेता लोग भी अब अपने बयान छपवाते नहीं हैं क्योंकि वे जानते हैं कि जो उन्होंने भाषणों में कहा वह किसी को पूरी तरह याद नहीं रहेगा. सिलैक्टिव मैमोरी इसी का नाम है. एक स्मरणशक्ति उसी अंश को मस्तिष्क में रखती है जो काम का लगता है. उस समय मस्तिष्क तर्कवितर्क नहीं कर सकता, विश्लेषण नहीं कर सकता, कही गईं बातों में कमियां नहीं निकाल सकता.
जब से ज्ञान का डिजिटलीकरण हुआ है और लिखे हुए को सुनाने की कला भी विकसित हुई है, अधिकांश नेताओं को आराम हो गया है. विचारक भी पौडकास्टों पर भरोसा करने लगे हैं. मार्केटियर की चांदी हो गई है. फ्रौड करने वाले जम कर कमाई करने लगे हैं. ये सब धाराप्रवाह ढंग से बोलते चले जाते हैं और कोई उन्हें रोकताटोकता नहीं है.
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
- 24 प्रिंट मैगजीन