देश में धर्म का व्यापार तेजी से बढ़ रहा है. पुराने तीर्थस्थानों पर भीड़ बढ़ रही है व व्यवस्थाएं खराब हो रही हैं. धर्म के दुकानदारों की दुकानें कोने कोने में खुल रही हैं. मानो, देश में मेक इन इंडिया का मतलब फेक (नकली) इन इंडिया हो जहां सामान उत्पादित नहीं किया जाएगा बल्कि होगा सपनों, चमत्कारों के किस्सों, दान की महिमा का गुणगान और पंडों की भारीभरकम गाडि़यों का दिखावा. खुद को गैरधार्मिक कहने वाली सरकार अगर धर्म के नाम पर इस में लगातार पैसा लुटाए और जनता की जेब से वहां सीधे गए पैसों के अलावा वह टैक्स का पैसा भी लगाए तो इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता. रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने धार्मिक स्थलों को जोड़ने के लिए खास रेलें चलाने का वादा किया है और तीर्थस्थलों, चाहे वहां गंदगी व बदइंतजामी का राज हो, के स्टेशनों को सुंदर करने पर अरबों रुपए खर्च किए जाएंगे.

जहां यात्री जाएं वहां रेल पहुंचाने का काम रेल मंत्रालय का है चाहे यात्री गोआ में मौजमस्ती के लिए जाएं या हरिद्वार में पुण्य कमाने. पर यह हल्ला मचाने का काम सरकार का नहीं कि वह आस्था के व्यापार को चमकाने के लिए धार्मिक शहरों को विशेष सुविधा देगी. धार्मिक शहर नाम की कोई जगह रेल प्रबंधन की सोच में नहीं होनी चाहिए. उस के लिए हर वह शहर व उस का स्टेशन महत्त्व का होना चाहिए जहां यात्री आ व जा रहे हैं. देश को जरूरत तो यह है कि जहां उत्पादन हो रहा है, जहां से मजदूर, अफसर सफर कर रहे हैं, जहां विद्यार्थी आजा रहे हैं वहां वह पैसा खर्च करे, रेल की सुविधा मुहैया कराए. जहां उत्पादन होता है वहां चाहे सामान की लदाई का मामला हो या कामगारों के आनेजाने का, हर क्षण कीमती है, इसलिए वहां रेलें ढंग से चलनी चाहिए और सुविधाजनक होनी चाहिए. मुंबई की लोकल ट्रेनों में 2 घंटे का घिचपिच वाला सफर कर के आदमी की उत्पादकता क्या रह जाती है, यह रेल मंत्री की वरीयता होनी चाहिए न कि पुरी के जगन्नाथ मंदिर में बेवकूफ, अंधविश्वासी तीर्थ करने वालों को कैसे आराम से पहुंचाया जाए, इस की चिंता करने की.

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