नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी की बागडोर सौंप देने पर कभी उस की साथी रही कई पार्टियों का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से हट जाना आश्चर्य की बात न होगी. बिहार के नीतीश कुमार ने तो नाता तोड़ ही लिया है. हालिया उपचुनाव में महाराजगंज की सीट पर लालू यादव के उम्मीदवार की जीत के बावजूद उन्होंने अपना गुस्सा दिखा दिया.
जयललिता अभी भारतीय जनता पार्टी का साथ दे रही हैं पर चुनावों के नजदीक उन्हें एहसास हो जाएगा कि न केवल मुसलिम, दलित व अति पिछड़े भी नरेंद्र मोदी के हिंदुत्व और विरोधियों को सबक सिखाने की रणनीति का कोई स्वागत न करेंगे.
1998 के बाद भारतीय जनता पार्टी को जो सफलता मिली उस का बड़ा कारण बाबरी मसजिद का ढहाना नहीं था, कांग्रेस के नेतृत्व का ढह जाना था. 1991 में प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव नेता की मिट्टी के नहीं बने थे. वे वैसे ही प्रदेशीय नेता थे जैसे नरेंद्र मोदी हैं और कांग्रेस की रगरग की उन्हें कोई पहचान न थी. उन्होंने कांग्रेस का बेड़ा गर्क किया तो भारतीय जनता पार्टी को ही नहीं कई और पार्टियों को पैर जमाने का मौका मिल गया.
जो पार्टी 1984 में 400 सीटें जीती थी और अगले चुनाव में उस को हार का सामना करना पड़ा तो उस की वजह थी विश्वनाथ प्रताप सिंह की साजिश और राजीव गांधी का नौसिखियापन. पर 2004 तक सोनिया गांधी ने सिद्ध कर दिया कि विषम स्थितियों में लड़ने की उन की क्षमता अन्य किसी नेता से ज्यादा है, नरेंद्र मोदी से भी ज्यादा.
यह बात राज्यों के दूसरी पार्टियों के नेता समझते हैं और इसीलिए पूर्णबहुमत न होने के बावजूद 2004 से 2009 और 2009 से अब तक कांग्रेस राज भी करती रही व रिश्वतखोरी भी करती रही. अन्ना हजारे की मुहिम भी उसे न हिला पाई.