सरित प्रवाह, जून (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘पाकिस्तान में नई सरकार’ में आप ने एक कटु सत्य उजागर किया है कि ‘माननीय नवाज शरीफ बेशक अपने देश के प्रधानमंत्री हैं, मगर उन्हें मुख्यतया पंजाब प्रांत का ही नेता माना जाता है,’ लिहाजा, समस्याग्रस्त बलूचिस्तान व सिंध में उन की नहीं चलती है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर पीओके में उन की कोई मानेगा भी जोकि भारत व पाक दोनों की मुख्य समस्या है. सच पूछो तो पाकिस्तान का ताज चाहे किसी के सिर पर क्यों न रख दिया जाए, पीओके के नाम पर ही तो वहां की हुकूमत चलती है. ऐसे में पड़ोसी देश से हमारे संबंध सुधरेंगे, यह एक प्रश्नचिह्न ही है.

वहीं, नवाज शरीफ अपनी बेकाबू सेना पर कंट्रोल कर पाएंगे, इस में भी संदेह है. लेकिन हमारे प्रशासक, जो निराशावादी नहीं हैं, आशा तो निश्चित ही करेंगे कि नवाज शरीफ भारत से संबंध सुधारने की अपनी इच्छा को अमली जामा पहनाएंगे.

ताराचंद देव, श्रीनिवासपुरी (नई दिल्ली)

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संपादकीय टिप्पणी ‘नक्सलियों की हरकत’ पढ़ी. दरअसल, वर्ष 1965 में पश्चिम बंगाल में यह समस्या जन्मी थी. आज यह 6 राज्यों में फैल चुकी है. भेदभाव के चलते एक दिन यह पूरे भारत में फैल सकती है. खूनखराबे के कारण नक्सली तो चर्चा में आ जाते हैं पर मूल समस्या पीछे चली जाती है. समाज में दूसरों का हक मारने की प्रवृत्ति के चलते देश कमजोर रहा है और 2 हजार साल तक गुलाम रहा.

आजादी के बाद पूरे देश में विकास हुआ. ऊंचीऊंची इमारतें, अस्पताल, कई लेन की सड़कें और फैक्टरियां खुलीं लेकिन आदिवासियों के इलाके में क्या खुला? लगता है विकास केवल गैरआदिवासियों के लिए ही है. मुख्यधारा में लाने के लिए आदिवासियों को मनरेगा के तहत अधिक से अधिक काम मिलना चाहिए था. कम से कम आजाद भारत में वे दो जून की रोटी तो पा जाते.

सरकारें ईमानदारी से उन के कल्याण को अंजाम दें व उन्हें बरगलाने वालों को नियंत्रित करें, अन्यथा देश जलता रहेगा.

 माताचरण पासी, वाराणसी (उ.प्र.)

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पूर्व में नक्सलियों को ले कर गरीबों में सम्मानजनक बातें कही जाती थीं. वर्तमान में नक्सलियों की करतूतों के बदलते स्वरूप ने लोगों को चिंतन करने के लिए मजबूर कर दिया है. संपादकीय टिप्पणी ‘नक्सलियों की हरकत’ पढ़ी, काफी अच्छी लगी. गरीबों का दुख पूर्व में नक्सलियों का दर्द बन जाता था और वे खुलेआम अपना न्याय सुनाते थे. आज भी वे ऐसा ही कर रहे हैं. इस का मुख्य कारण आर्थिक असमानता को माना जा सकता है. जहां बस्तर के गरीब आदिवासी दानेदाने के लिए मुहताज हैं वहीं उसी क्षेत्र के अधिकारियों के निवास में करोड़ों रुपए छापे में निकल रहे हैं.

अभी तो आर्थिक असमानता का आक्रोश कम है. भविष्य में अगर बढ़ गया तो शायद ही कोई रोक पाएगा.  देश के राजस्व का काफी हिस्सा सिर्फ 3 लोगों में बंट रहा है. वे हैं अधिकारी, नेता और ठेकेदार. उदाहरण के तौर पर अगर किसी निर्माण कार्य का ठेका 50 करोड़ रुपए का है और उसे 42 करोड़ रुपए में पूरा कर दिया जाता है तो वह निर्माण कमजोर होगा ही. 27 प्रतिशत तक की कमीशनखोरी को सब जानते हैं. कहींकहीं तो विकासकार्य कागज में दर्शा कर ये तीनों 100 प्रतिशत राशि खा रहे हैं. अधिकारियों, नेताओं और ठेकेदारों की ऐयाशी को देख जनता त्रस्त हो जाती है क्योंकि यह राजस्व तो उस का ही है.

 प्रदीप ताम्रकार, धमधा (छग.)

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‘नक्सलियों की हरकत’ शीर्षक के अंतर्गत अभिव्यक्त विचार कई माने में विचारणीय और उल्लेखनीय लगे. आप ने जोर दे कर लिखा है, ‘लोकतंत्र में नक्सली आंदोलन की कोई जगह नहीं है.’ बात शतप्रतिशत ठीक  है लेकिन यह भी सच है कि अभाव, भूख, गरीबी, अनाहार, अत्याचार व अव्यवस्था की मार और प्रहार से नक्सलियों का जन्म हुआ है और सबकुछ सह कर और समझ कर वे अपने सिद्धांत तैयार करने के लिए बाध्य हुए हैं और कई राज्यों में उन्होंने अच्छी जगह बना ली है. बात बहुत कड़वी है लेकिन सत्य है.

देश को स्वतंत्र हुए 7 दशक होने जा रहे हैं. आज जो वंचित, दलित, शोषित और पीडि़त हैं, उन के बापदादे, परदादे भी शोषित थे, उन्हें वह न्याय नहीं मिल रहा है जो शक्तिसंपन्न, अर्थसंपन्न और सत्तासंपन्न जनसमूहों को मिल रहा है. पिछड़े तबके के लोगों व आदिवासियों को जल, जमीन, जंगल से हटा कर उन्हें मजदूर बनाने की साजिश में सब्जबाग दिखाए गए. नतीजतन, वे अपनी ही जमीन में आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक नजरिए से नंगे होते गए. जब वे मुंह खोलने लगे तो सत्ताधारियों को सहन नहीं हुआ. बुद्धिजीवी नेताओं व अफसरों ने उन की ही जमीनों पर उन्हें दास बना कर खुलेआम लूटने का काम किया. आज जब वे हक और अधिकार की बात करते हैं तो संविधान और विधान के दांवपेंच निकाल कर उन पर हमला होता है, गोलियां चलती हैं. ऐसा वर्षों से चल रहा है तो समाधान कहां से निकलेगा?

बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.)

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‘नक्सलियों की हरकत’ टिप्पणी पढ़ी. नक्सलवाद आज का एक ज्वलंत मुद्दा है. इस टिप्पणी में आप ने वास्तविक तथ्य को बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है. आप ने यह तथ्य सही उजागर किया है कि पिछले 50-60 सालों में पहाड़ी क्षेत्रों के आदिवासियों को शहरियों ने जम कर लूटा है, उन्हें अछूत तो माना ही गया उन की जमीनों, गांवों, जंगलों पर कब्जा कर के शहर, सड़कें, फैक्टरियां भी बना ली गईं और खानों से अरबोंखरबों का खनिज निकाल लिया गया.

अब जब वे मुखर होने लगे तो कानूनों का हवाला दे कर उन का मुंह बंद करने की कोशिश की जा रही है. बहाना बनाया गया कि विकास के लिए यह जरूरी था पर किस के विकास के लिए? विकास हुआ तो शहरियों का, अफसरों का, नेताओं का, ठेकेदारों और अमीरों का. आप ने बिलकुल ठीक कहा है कि लोकतंत्र में नक्सली आंदोलन की कोई जगह नहीं है और जिस तरह से

नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में ‘परिवर्तन यात्रा’ पर जा रहे कांगे्रसी नेताओं को चुनचुन कर मारा उस की तो कोई भी वजह सही नहीं हो सकती. पश्चिम बंगाल से ले कर आंध्र प्रदेश तक की पहाडि़यों में फैले नक्सलियों की शिकायतें जो भी हों, वे राजनीति में बंदूकनीति को थोप नहीं सकते. नक्सली चाहे अब खुश हो लें कि उन्होंने नक्सल विरोधी सलवा जुडूम के संचालक महेंद्र कर्मा को मार डाला है और अपने हजारों साथियों के मौत का बदला ले लिया है लेकिन सच यह है कि यह हमला उन पर भारी पड़ेगा क्योंकि जो सहानुभूति उन्हें मीडिया, विचारकों व अदालतों से मिलती भी थी, अब गायब हो जाएगी और नक्सलवाद का हाल अलकायदा सा हो जाएगा. उधर, आदिवासी यही मान कर चल रहे हैं कि सफेदपोश उन्हें न्याय कभी न देंगे और उन्हें जो मिलेगा, लड़ कर मिलेगा, चाहे इस के लिए कितनी भी जानें जाएं. इन में निर्दोष भी मरेंगे और नीतिनिर्धारक भी.

अगर वे इसी तरह से उत्पात करते रहे तो उन का आंदोलन ज्यादा दिनों तक टिकने वाला नहीं और सरकार के आगे उन को या तो सरेंडर करना पड़ेगा या वे चुनचुन कर मारे जाएंगे. उन के हक में यह है कि वे सरकार से सीधे बात कर अपनी ज्वलंत समस्याएं बताएं और धीरेधीरे उन से छुटकारा पाएं. खूनखराबा, मारकाट किसी भी आंदोलन का हल नहीं हो सकता.

 कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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लोकतंत्र बनाम लालतंत्र

‘लोकतंत्र की पोल खोलता लालतंत्र’ लेख पढ़ा. इस परिपे्रक्ष्य में कहना चाहता हूं कि कोई भी सभ्य समाज किसी भी पहलू से किसी भी निर्दोष की हत्या को उचित नहीं ठहरा सकता. छत्तीसगढ़ के दरभाघाटी इलाके में नक्सलियों द्वारा किया गया नरसंहार कष्टप्रद व निंदनीय है. घटना के उपरांत राजनेताओं, सैन्य व पुलिस अधिकारियों और कुछ बुद्धिजीवियों के बयान स्थिति को और अधिक जटिल कर देते हैं.

लोकतंत्र की हत्या, देश के लिए आंतरिक खतरा तथा आतंकवादी कह देने मात्र से नक्सलवाद की समस्या का समाधान नहीं निकल सकता. इस परिस्थिति से निबटने के लिए हमें सही ढंग से आत्मचिंतन करना होगा. हमें उन कारणों पर विचार करना होगा कि आजादी के इतने साल गुजर जाने के बावजूद आदिवासियों, दलितों की बहुत बड़ी जमात विकास से इतना पीछे क्यों ढकेल दी गई. जल, जमीन, जंगल तीनों पर उन का नैसर्गिक अधिकार था, उस का हम ने निर्दयता से दोहन क्यों किया? सरकार ने जो भी थोड़ी योजनाएं उन के उत्थान के लिए बनाईं उन का बंदरबांट कैसे सरकारी मुलाजिमों व बिचौलियों ने किया. 

शोषण व अत्याचार के नाम पर यदि कुछ लोग भटक कर हिंसा का रास्ता अपना लेते हैं तो उन को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाना सरकार का नैतिक कर्तव्य है. हमें आत्ममंथन कर के उन ज्वलंत समस्याओं से छुटकारा पाना होगा जिन की वजह से लोग राष्ट्र की एकता को चुनौती देने लगते हैं.

सूर्य प्रकाश, वाराणसी (उ.प्र.)

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 ‘लोकतंत्र की पोल खोलता लालतंत्र’ में देश में फैली नक्सली समस्या की वास्तविक उत्पत्ति के बारे में पढ़ने को मिला. सच पूछो तो यह व्यथाकथा हमारे लोकतंत्र की उस सचाई से रूबरू करा रही थी जिस के कारण आज यह समस्या न केवल समाज, देश के प्रशासकों व स्वयं लोकतंत्र के लिए ही एक गंभीर खतरा बन मुंहबाए खड़ी है.

बेशक, हाल ही में एक दल विशेष के समूह पर किया गया घातक हमला निंदनीय, कू्रर व अक्षम्य ही कहा जाएगा. मगर इन तथ्यों को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि क्यों राज्य के आदिवासियों पर इतने बर्बर, असहनीय, अमानवीय व चिंतनीय अत्याचार किए गए कि संबंधित पीडि़त समुदाय को आहतभरे शब्दों में देश के इस काले दाग से बेहतर गोरों की तारीफ करनी पड़ी? क्या कारण है कि राज्य के किसानों को मजदूर बनना पड़ा? क्या हमारे लोकतंत्र का असली रूप यही है कि आज भी ये अभागे गेहूं महंगा होने के कारण, मात्र चावल का मांड़ ही नहीं पीते हैं, बल्कि मेढक व झींगुर तक को भून कर खाने को मजबूर हैं. उस पर यह तुर्रा कि या तो हमारे महान देश के प्रशासक, जनसेवक, राजनीतिज्ञ व नीतिनिर्धारक इन पीडि़तों की आवाज सुन ही नहीं पाते हैं और अगर किसी योजना के तहत इन जिल्लत व जलालतभरी जिंदगी जीने वालों के उद्धार के लिए कुछ भेजा जाता है तो आवंटित रकम संबंधित क्षेत्र के पूंजीपति, नेता व उद्योगपति ही डकार जाते हैं. ऐसे में प्रताडि़त पीडि़तों से नक्सली बने तत्त्वों से निबटने के लिए भाषण या दोगली नीति अपनाने के बजाय, उन से किए जा रहे भेदभाव व शोषण से उन्हें मुक्त करना होगा. ताकि ये भटके तत्त्व भी वापस लौट कर राष्ट्रीयधारा में शामिल हो सकें.

 टी सी डी गाडेगावलिया, करोलबाग (न.दि.)

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विचार क्रांति

लेख ‘सरकार और विपक्ष के 4 साल: दोनों बड़बोले, दोनों नाकाम’ पढ़ा. लेख में ठीक ही कहा गया है कि दोनों बड़बोले, दोनों नाकाम हैं. जनता त्रस्त है. 2014 में चुनाव होने हैं. अच्छी सरकार का गठन कैसे किया जा सकता है, इस बारे में विचार क्रांति का शंखनाद तत्काल किया जाना जरूरी है.

राधाकृष्ण सहारिया, जबलपुर (म.प्र.) 

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विज्ञान की खोज

जून (द्वितीय) अंक में ‘गौड पार्टिकल और धार्मिक अंधविश्वास’ पढ़ कर प्रसन्नता हुई. लेखक का प्रयास सराहनीय है. धार्मिक अंधविश्वास व पाखंड संपूर्ण संसार की मानवता का युगोंयुगों से शिकार करते रहे हैं जो समय के साथ लगातार बढ़ रहा है. ऐसे समय में संसार के उच्च कोटि के वैज्ञानिकों ने सर्न (स्विट्जरलैंड व फ्रांस के बौर्डर पर) में विश्व के कोलाइडर का निर्माण कर ब्रह्मांड व उस की उत्पत्ति के बारे में अनुसंधानों द्वारा जो अपूर्व सफलता प्राप्त की है और जो भविष्य में होने की संभावना है, वह मानव को धार्मिक कट्टरता व पाखंडों को जड़ से विनाश करने के लिए प्रेरित करती है, जो सही?भी है.

 डा. जनार्दन प्रसाद अग्रवाल, एडमंटन (कनाडा)

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