सरित प्रवाह, दिसंबर (प्रथम) 2013

संपादकीय टिप्पणियां ‘इतिहास की खुदाई’ और ‘लोकतंत्र में लूटतंत्र’ मौजूदा हालात का सही चित्रण करती हैं. आज इस देश के गरीब तबके के लोगों को जिस ढंग से लूटा जा रहा है वह लोकतंत्र के नाम पर एक धब्बा है. ये तो कुछ पत्रपत्रिकाएं हैं जो एक मिशन ले कर समाज को सचेत करने में अपनी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं और हाईकोर्ट व सुप्रीमकोर्ट सरकारों की लगाम को खींच कर रख रहे हैं वरना राजनेता देश की हालत को न जाने क्या बना देते?

आज गरीब की बात नहीं सुनी जाती है, वह अपने कार्य करवाने के लिए दरदर भटकता रहता है जबकि राजनीतिक घुसपैठ करने वाले चांदी कूट रहे हैं.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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संपादकीय ‘लोकतंत्र में लूटतंत्र’ नौकरशाही के भ्रष्टाचार का कच्चा चिट्ठा खोलती है. यह बिलकुल सही है कि हमें नेताओं का भ्रष्टाचार तो दिखाई पड़ता है पर नौकरशाहों का नहीं. आज हम सब इस के आदी हो चुके हैं या यों कहें कि हमें इस का आदी बना दिया गया है. इसीलिए काली नदी हमें सफेद नजर आती है.

इस के कई कारण हो सकते हैं, पर सब से बड़ा कारण रिश्वत दिए बिना काम का न होना है. न कोई सुनने वाला है, न ही कोई शिकायत करने वाला है. आश्चर्य तो तब होता है जब हम पत्थर का कलेजा लिए ऐसा होते देखते रहते हैं. उपरोक्त वाक्य जनता के लिए नहीं है बल्कि उस पर शासन करने वालों के लिए है.

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणी ‘इतिहास की खुदाई’ पढ़ी. भारत के लोग ज्योतिष, कर्मकांड, धर्म, मंत्रतंत्र, मुहूर्त, चमत्कार व देवीदेवताओं पर विश्वास करते हैं. हम उन्हीं लोगों से पूछते हैं कि तब हमारे देवता कहां थे जब सोमनाथ मंदिर लूटा गया? जब हमारे देश की बहूबेटियां, माताएं लूट का माल घोषित कर के आक्रांताओं के द्वारा ही शोषित किए जाने से कराह रही थीं?

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