आजादी के बाद से देश में केंद्र की जितनी भी सरकारें बनीं किसानों की खबर किसी ने नहीं ली. किसान परिवार चलाने वाला मुखिया होता है. वह देश की अर्थव्यवस्था में मददगार होता है. किसान ही जमीन को सुंदर बनाता है. पर क्यों यह किसान सब से परेशान होता है. देश में किसानों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लगातार कई मुहिमें चलाई जाती हैं, लेकिन कुछ राजनीति की भेंट चढ़ जाती हैं और कुछ नौकरशाह चट कर जाते हैं.
हर साल देश के अलगअलग हिस्सों में सूखे की नौबत आती है, वहीं बाढ़ की तबाही भी जगहजगह पर देखी जा सकती है. किसानों के इस दर्द को बांटने वाला कौन है?
ऐसा नहीं है कि सरकारी योजनाएं नहीं बनतीं, बाकायदा सर्वे किए जाते हैं और पीडि़त किसानों के लिए मुआवजे के ऐलान भी किए जाते हैं. लेकिन क्या यह मुआवजा सही हाथों को मिलता है? यदि कोई किसान सर्वे के वक्त मौजूद नहीं होता तो उसे मुआवजा नहीं मिल पाता है. बाद में भले ही वह कितनी कोशिश करे पर कोई फायदा नहीं होता.
सरकारी कार्यक्रम वैसे भी आम जनता की पहुंच से दूर रहते हैं. आज किसानों के लिए बनाए जाने वाले कार्यक्रमों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी सरकार के द्वारा की जा रही है. महत्त्वपूर्ण किसान फसल बीमा योजना अभी खास चर्चा का विषय बनी हुई है.
यदि निजी क्षेत्रों के द्वारा इन योजनाओं में किसानहित की अनदेखी की गई तो कौन देखेगा इस विषय को?
वैसे भी आजादी के बाद से आज तक ऐसा कोई भी संगठन नहीं आया, जो किसानों की सुध ले. और न ही आज तक किसान अपना कोई मजबूत संगठन बना पाए हैं. यदि किसानों की कोई संस्था होती भी है, तो वह राजनीतिक ही होती है.
देश में सरकारी व गैरसरकारी कर्मचारियों व कामगारों की कई रजिस्टर्ड संस्थाएं और संगठन क्रियाशील हैं, जो अपनी मांगें पूरी मजबूती से रखते हैं और मनवाते भी हैं. लेकिन किसान 80 फीसदी गांवों के देश में असंगठित, बेबस व मजबूर हैं, मगर फिर भी अपनी दिक्कतों के साथ खुश हैं. यदि कुंठा से ग्रस्त कोई किसान कोई अनहोनी कर ले, तो देश की राजनीति में उबाल आ जाता है, पर दिक्कतें वैसी ही रहती हैं.