2017 में राज कुमार राव की ‘ट्रैप्ड, ‘बरेली की बर्फी, ‘न्यूटन, ‘बहन होगी तेरी’ जैसी विविधतापूर्ण फिल्में प्रदर्शित हो चुकी हैं. इनमें से कुछ ने जबरदस्त सफलता बटोरी, तो कुछ किसी तरह लागत वसूल कर पायीं. मगर राज कुमार राव की शोहरत में बढ़ोत्तरी ही हुई है. राज कुमार राव इन दिनों काफी उत्साहित हैं. एक तरफ इस बात को लेकर वह उत्साहित है कि उनकी फिल्म “न्यूटन” को आस्कर अवार्ड के लिए भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के तौर पर भेजा गया है, तो वहीं वह दस नवंबर को प्रदर्शित हो रही निर्माता विनोद बच्चन और निर्देशक रत्ना सिंहा की फिल्म “शादी में जरुर आना” को लेकर, जो कि एक रोमांटिक कामेडी फिल्म है.

यदि राज कुमार राव के करियर पर दृष्टिपात किया जाए, तो पता चलता है कि ‘शाहिद’, ‘अलीगढ़’ , ‘न्यूटन’जैसी फिल्मों में यथार्थ परक व संजीदा किस्म के किरदारों को निभाकर कलाकार के तौर पर अपनी एक अलग पहचान बनाने के बाद अब वह‘बरेली की बर्फी’, ‘बहन होगी तेरी’और ‘शादी में जरुर आना’जैसी रोमांटिक कामेडी फिल्मों में एक अलग तरह के किरदार निभा रहे हैं.

न्यूटनको आस्कर अवार्ड दिलाने के लिए आपकी तरफ से क्या प्रयास किए जा रहे हैं?

हमें इसके लिए काफी मेहनत करनी है. हमारी पूरी टीम इस पर काम कर रही है. हम फिल्म के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए लास एंजेल्स में ज्यादा से ज्यादा फिल्म के शो करने जा रहे हैं. हमें पूरी उम्मीद है कि हमें सफलता मिलेगी. अभी मैं शिकागो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल से वापस आया हूं. वहां पर “न्यूटन” को काफी पसंद किया गया. वहां पर तमाम अमरीकन फिल्मकार भी थे. उनका मानना था कि लंबे समय बाद भारत से ऐसी फिल्म आयी है. वास्तव में लोकतंत्र भारत के अलावा कई अन्य देशो में भी है. हर देश में लोकतंत्र के चलते कुछ समस्याएं भी हैं. इसलिए लोग इस फिल्म के साथ रिलेट कर रहे हैं. एक इंसान जो कि सिस्टम में रहकर इमानदारी से काम करता है, साथ में ही वह अपने सिस्टम को भी फालो करता है. दर्शक ऐसी दुनिया को देख पा रहा है, जिसके बारे में सुना था. झारखंड और नक्सल प्रभावित इलाका, जहां पर चुनाव कराना आसान नहीं.

करियर के इस मुकाम पर किस तरह की अनुभूति हो रही है?

अनुभूति तो पहले वाली ही है. जब तक अच्छी कहानियां, अच्छी फिल्में मिल रही हैं, तभी तक अनुभूति है. हां! अब लोग ज्यादा पहचानने लगे हैं, इसके चलते मटेरियालिस्टिक चीजें बढ़ गयी हैं. सुख सुविधाएं बढ़ गयी हैं, पर मेरे लिए सबसे बड़ी महत्ता तो अच्छे काम की ही है.

सफलता के साथ फिल्मों के आफर की संख्या बढ़ती है. ऐसे में सही चुनाव करना कितना कठिन हो जाता है?

यह सच है. पहले चुनने के लिए आप्शन कम थे, पर अब आप्शन ज्यादा होते हैं. दूसरी बात अब अच्छी कहानी के आफर ज्यादा आते हैं. लोगों का मुझ पर विश्वास बढ़ गया है. पहले जो लोग हमारे साथ काम नहीं करना चाहते थे, वह अब काम करना चाहते हैं, तो इस तरह हमारे लिए काम करने का दायरा बढ़ जाता है.

आप अपने करियर में एक खास तरह की फिल्में ही कर रहे हैं.कमर्षियल फिल्मों से अभी भी आप दूर हैं?

मुझे लगता है कि अब कमर्शियल फिल्मों की परिभाषा बदल चुकी हैं. अब‘पिकू’,‘हिंदी मीडियम’, ‘ट्वायलेट एक प्रेम कथा’,‘शुभ मंगल सावधान’, ‘दंगल’,‘जुड़वा 2’ जैसी फिल्में कमर्शियली सफलता दर्ज करा रही हैं. इससे कमर्शियल फिल्मों की परिभाषा बदल रही है. ‘दंगल’आम कमर्शियल फिल्म नही है. यह गांव की कहानी है, जिसमें आमीर खान ने दो बेटियों के पिता की भूमिका निभायी है.तो अब कमर्शियल सिनेमा की धारणा बदल रही है.

सिनेमा में यह जो बदलाव आ रहा है, वह आप सभी उभरते कलाकारों के लिए फायदेमंद हो रहा है?

यह फायदेमंद है. दर्शक भी हमसे जुड़ रहे हैं. वह हमारे किरदारों में खुद को देखते हैं. यह अच्छी बात है.

मगर कमर्शियल सिनेमा में संगीत व नृत्य की बहुतायत होती है. क्या सिनेमा में आ रहे बदलाव के साथ यह सब खत्म हो जाएगा?

मुझे ऐसा कुछ नही लगता. देखिए, मैं तो खुद को नृत्य में सक्षम भी पाता हूं. मुझे तो डांस बहुत पसंद है. मुझे डांस से परहेज नही है, पर फिल्म में कहानी महत्वपूर्ण होनी चाहिए. उसके बाद उसके इर्द गिर्द संगीत व नृत्य को रखा जा सकता है.

पर आप इन दिनों संजीदा किरदारों की बजाय रोमांटिक कामेडी फिल्मों में ज्यादा नजर आ रहे हैं. यह बदलाव सोचा समझा है?

बिलकुल नहीं..मैं अपनी ईमेज बदलने का कोई प्रयास नही कर रहा. मेरे लिए कहानी  किरदार अहम होते हैं, पर जो फिल्में कर रहा हूं, उनसे रिलेट कर रहा हूं. मेरी परवरिश गुड़गांव में हुई है. जहां हम सभी एक दूसरे से परिचित होते हैं. ऐसे में वहां पर रोमांस का मतलब है काफी डे में बैठकर एक ही कोका कोला की बोतल से कोका कोला पीना या काफी मग बदलना. इसी तरह का रोमांस लोगों को फिल्म “शादी में जरुर आना” में नजर आएगा.

फिल्म शादी में जरुर आनाक्या है?

यह एक ड्रामा लव स्टोरी है, साथ में कामेडी भी है. कहानी कानपुर व इलाहाबाद में स्थित रोचक कहानी है. बतौर निर्देशक रत्ना सिन्हा की यह पहली फिल्म है. निर्माता विनोद बच्चन से सभी वाकिफ हैं. हमारे साथ पहली बार इस फिल्म में कृति खरबंदा हैं. एक लंबे समय बाद ऐसी प्रेम कहानी आ रही है, जिसमें सादी वाले दिन ही किरदार बदल जाते हैं. “बरेली की बर्फी” में भी किरदार में बदलाव आता है, पर उसमें कौमिक मसला था. जबकि इस फिल्म में कुछ और ही मसला है.

कृति खरबंदा के साथ आपकी यह पहली फिल्म है. क्या अनुभव रहे?

बहुत अच्छे अनुभव रहे. वह काफी सिंसियर कलाकार हैं. मेहनती हैं. मैं भी ऐसा ही हूं, इसलिए हमारी अच्छी ट्यूनिंग बन गयी.

रत्ना सिन्हा को लेकर क्या कहेंगे?

वंडरफुल, शांत व अनुभवी निर्देशक हैं. मैने उनके द्वारा निर्देशित कुछ म्यूजिक वीडियो देखे हैं. उनके एक म्यूजिक वीडियों में तेा निर्देसक हंसल मेहता ने अभिनय किया था. हंसल मेहता ने भी मुझसे रत्ना सिंहा का जिक्र किया था.

हंसल मेहता की कौन सी खूबी आपको बार बार उनके साथ काम करने लिए प्रेरित करती है?

जिस तरह की कहानियां वह कह रहे हैं, वह मुझे उनके साथ जोड़ती है. वह निडर निर्देशक हैं. कहानी को लेकर समझौता वादी नही है. मैं भी काम में समझौता पसंद नहीं करता. अब हमने एक साथ इतना काम कर लिया है कि परिवार जैसे संबंध हो गए हैं.

हंसल मेहता के निर्देशन में आप एक फिल्म ‘‘ओमार्टाकर रहे हैं, जो कि एक आतंकवादी की कहानी है. क्या ऐसे इंसान की कहानी को परदे पर लाना जायज मानते हैं?

जब तक हम उसे हीरो बनाकर नहीं दिखा रहे हैं, तब तक उसकी कहानी को बयां करना गलत नहीं है. आतंकवाद दुनिया का सच है. आतंकवाद से पूरी दुनिया जूझ रही है. यह कहानी सिर्फ आतंकवाद पर नहीं है, बल्कि कहानी यह है कि एक स्मार्ट लड़का आतंकवाद का रास्ता क्यों चुनता है? उसकी यात्रा क्या है. हमने अब तक आतंकवाद को इस नजरिए से देखा है कि एक आतंकवादी ने कहां कितने लोगों को मौत के घाट उतारा, पर इस फिल्म में हम आतंकवाद को दूसरे नजरिए से देख रहे हैं. यह जानना जरुरी है कि आखिर आतंकवाद से छोटे छोटे लड़के क्यों जुड़ रहे हैं. बांगला देश में तो पढ़े लिखे स्टूडेंटों ने यह काम किया. सिर्फ आतंकवादियों पर बम फेंक देने से आतंकवाद खत्म नहीं होगा. इसकी जड़ में जाकर वजह समझनी होगी. आखिर बच्चे इस रास्ते से क्यों जुड़ रहे हैं.

इस फिल्म में अभिनय करने से पहले आपने अपनी तरफ से कुछ शोध कार्य किया होगा, तो आपको इसकी वजह क्या समझ में आयी?

युवा पीढ़ी के लोग कुछ समस्याओें के चलते दिशाहीन हो जाते हैं. उसके बाद कुछ लोग उनके इसी दिशाहीन स्थिति का फायदा उठाते हैं.

प एक अंग्रेजी भाषा की फिल्म “5 वेंडिंग” कर रहे थे?

जी हां! नरगिस फाखरी के साथ यह फिल्म कर रहा हूं. इसकी भारत की शूटिंग खत्म हो गयी है. तीन दिन का अमरीका में शूटिंग का काम बाकी है, बहुत जल्द जाकर पूरा करना है. मुझे बहुत मजा आया इस फिल्म को करने में, इसमें भारत को बहुत अलग अंदाज व नजरिए से दिखाया गया है.

आप एक बंगला फिल्म ‘‘अमी सायरा बानोभी कर रहे हैं?

मैं यह फिल्म तीन वर्ष पहले कर रहा था. हमने आधी फिल्म की शूटिंग कर ली थी. उसके बाद निर्माता व निर्देशक के बीच झगड़े हो गए और फिल्म बंद हो गयी. अब इसे पूरा करना मुश्किल है.

एक फिल्म शिमला मिर्चकर रहे थे?

मेरी समझ में नहीं आ रहा कि इस फिल्म का क्या हो रहा है. आप खुद इसके निर्माता से बात करें, तो शायद आपको कुछ पता चले.

आप ऐश्वर्या राय बच्चन के साथ फिल्म फन्ने खांकर रहे हैं. इस फिल्म को लेकर कई तरह की खबरें आती रहती हैं?

शूटिंग चल रही है. हमारे व अनिल कपूर के सीन फिल्माए जा रहे हैं. ऐश्वर्या राय भी जल्द शूटिंग करने वाली हैं.

आपने जिन किरदारों को निभाया है, उनमे से किस किरदार ने आपकी निजी जिंदगी पर असर किया और उससे आपने कैसे छुटकारा पाया?

जब हम‘शाहिद’,‘अलीगढ़’ या ‘ओमार्टा’ जैसी फिल्मों के किरदारों को निभाने के लिए शूटिंग करते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर इनका असर हमारे दिमाग पर होता है. सबसे पहले हम उसे जीना शुरू करते हैं, पर हमें यह भी पता होता है कि यह बहुत जल्द खत्म होना है. तो इसका प्रोसेस यही है कि जब तक शूटिंग चलनी है, तब तक किरदार में रहिए, फिर उसे भूल जाइए. उसके बाद हम अगली फिल्म के किरदार की तैयारी में लिप्त होते हैं, तो पिछला भूलना ही होता है.

कोई किरदार लंबे समय तक आपके साथ चिपक गया हो?

फिल्मों में अलग अलग किरदार निभाते हुए इंसान के तौर पर मैंने काफी सीखा और ग्रो हुआ हूं. फिल्म‘अलीगढ़’करते हुए हमने सीखा कि समलैंगिक इंसान के साथ क्या हो सकता है. उनकी तो मौत ही हो गयी थी. तो मुझे प्रोफेसर का दर्द समझ में आया. फिल्म‘सिटी लाइट’करके माइग्रेशन का दर्द समझ में आया. ‘न्यूटन’करने के बाद मेरी समझ में आया कि छत्तीसगढ़ में किस तरह का समुदाय रह रहा है, जिसके बारे में हम क्या दुनिया के कम लोग ही जानते हैं. ऐसे इलाके में चुनाव कराना कितना कठिन काम होता है, यह समझ में आया. यह अपने आप में जोखिम भरा काम हो सकता है, पर लोग चुनाव करवा रहे हैं. ‘ओमार्ट’ करके समझ में आया कि लोग आतंकवाद की राह क्यों पकड़ रहे हैं. मेरी राय में हर फिल्म के साथ इंसान के तौर पर हम काफी ‘ग्रो’होते हैं. यही हमारे सिनेमा की खूबसूरती है.

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