पिछले 45 वर्षों से अभिनय जगत में सक्रिय अदाकारा प्रतिमा कानन किसी परिचय की मोहताज नही हैं.प्रतिमा कानन सबसे पहले बीस वर्ष तक रंगमंच पर अपने अभिनय के नित नए आयाम विखेरती रहीं.1997 में फिल्म ‘‘सिक्स्थ सेंस’’से बौलीवुड में कदम रखा.अब तक तीस से अधिक सफलतम फिल्मों के अलावा तकरीबन बीस सीरियलों में अभिनय कर अपनी एक अलग पहचान बनायी है.इन दिनों वह ‘दबंग टीवी’ पर प्रसारित हो रहे सीरियल ‘‘नथ: जेवर या जंजीर’’ में अति सशक्त किरदार निभा रही हैं.वह निजी जीवन में ‘नथ उतराई’की कुप्रथा के सख्त खिलाफ हैं.वह कहती हैं-‘‘यह कुप्रथा हर सभ्य समाज के लिए कलंक है.सीरियल में मेरा किरदार ठकुराईन दुर्गा का है,जिसे ठाकुराईन होने के नाते ‘नथ उतराई ’प्रथा में कोई बुराई नजर नहीं आती.लेकिन निजी जीवन में मैं ऐसी प्रथा व कुप्रथा के सख्त खिलाफ हॅूं.मैं ऐसी किसी प्रथा का समर्थन नही कर सकती,जो किसी भी लड़की या औरत के मान सम्मान के साथ खिलवाड़ करती हो.यदि ‘नथ उतराई’ प्रथा के खिलाफ कोई मुहीम चलती है,तो मैं उसके साथ जुड़ना चाहूंगी.’’
प्रतिमा कानन का मानना है कि टीवी की बढ़ती लोकप्रियता से रंगमंच को काफी नुकसान हुआ है.हर कलाकार त्वरित शोहरत व पैसा कमाने के लिए रंगमंच को अलविदा कह कर टीवी से जुड़ रहा.प्रतिमा कहती हैं-‘‘जब हम थिएटर करते थे,तो हमने सिर्फ थिएटर ही किया. उस वक्त हमारी सोच भी फिल्म या टीवी इंडस्ट्ी की तरफ नहीं जाती थी. 1995 में जब मैं मंुबई आयी और श्याम बेनेगल व सागर सरहदी जी से मेरी मुलाकात हुई,तो दोनो ने मुझसे कहा कि,‘आपको नहीं लगता कि आपने आने में बहुत देर कर दी है.’ तब मैने उन्हे जवाब दिया था-‘सर मुझे यहंा आने के बाद अहसास हो रहा है कि मैने देर कर दी.पर जब तक मैं दिल्ली मंे थिएटर कर रही थी, तब मुझे फिल्मों या टीवी सीरियलों से जुड़ने का ख्याल तक नही आया.मुझे जो ज्ञान लेना था, वह मैंने भरपूर लिया.कभी कभी मुझे लगता है कि हमारे अंदर इतनी प्रतिभा तो थी कि हम पहले भी आ सकते थे.पर उसके लिए मुझे दुःख नही है. क्यांेकि थिएटर करते हुए हमने बहुत कुछ पाया.’’
वह आगे कहती हैं-‘‘हम जब दिल्ली में थिएटर किया करते थे, उन दिनों हमने एनएसडी की रैपेटरी में काम किया है,पैसा होता था.उस वक्त हम कलाकारों को पैसे का इतना मोह भी नहीं होता था.हम सभी खुद को कला के प्रति समर्पित भाव से झोंक देते थे.तब हम कला के प्रति एक जुनून व भूख के लिए काम करते थे.लेकिन अफसोस की बात यही है कि आज की तारीख में पैसा बहुत अहम हो गया है.मुझे लगता है कि आज की तारीख में लोगों के पास विषयों का अभाव है.अच्छे नाटक लिखने वालों का अभाव है.ऐसे अच्छे नए नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं, जिसे दर्षक पैसे खर्च कर देखना पसंद करे.
वही सदियों से चले आ रहे नाटक ही किए जा रहे हैं। कई अच्छे लेखकांे को अवसर नही मिल रहा है। नाटक ही नही सब कुछ बहुत ही ज्यादा कमर्षियल हो गया है.अब लोग कमर्षियल नाटक लिख रहे है, जिनका मूल्य नही है.ऐसे नाटक टिकाउ नही है.लोग स्लैप्स्टिक काॅमेडी के नाम पर कुछ भी परोस रहे हैं.मराठी व गुजराती थिएटर में नित नए प्रयोग हो रहे हैं.वह नाटक इतने जीवंत होेते हैं कि लोग पैसा देकर देखने जाते हैं.हिंदी थिएटर में ऐसा क्यों है, समझ में नही आता. हिंदी थिएटर की दुनिया में गिने चुने ग्रुप ही षेष बचे हैं, जो कार्यरत हैं.
मैने कईयों से बात की, तो उनकी षिकायत है कि उन्हे उनके नाटकों को परफार्म करने, षो करने के लिए अच्छे हाॅल नही मिलते.हम जब दिल्ली में थिएटर कर रहे थे,उस वक्त हमारे हर नाटक के षो हाउसफुल होेते थे. लोग नाटक देखने के लिए पागल रहते थे.अब षायद थिएटर के पतन की एक वजह यह भी है कि लोग थिएटर पर अभिनय की थोड़ी सी ट्ेनिंग लेते ही सीधे मंुबई आकर टीवी सीरियल व फिल्मों में अभिनय करके षोहरत बटोरने के लिए संघर्ष करने लगते हैं.’’
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