जो लोग खुद को मिडिल क्लास का मानते हैं उन के अंदर ही ललक होती है कि वे भी उच्चवर्ग के लोगों की तरह जीवन जिएं,अच्छा खाएंपिएं, गाड़ियों में घूमें, बगल में पैसे वाली खूबसूरत प्रेमिका हो.
खैर, सपने तो सपने होते हैं. सपने सब के सच नहीं होते, सिर्फ मेहनत कर जिंदगी में आगे बढ़ने वालों के ही सपने सच होते हैं. आज के युवा खुद को ‘मिडिल क्लोरोसिस’ जैसी खतरनाक बीमारी से ग्रसित मानते हैं. वे मिडिल क्लास की लाइफ से तंग आ जाते हैं. उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता कि उन की मिडिल क्लास फैमिली किनकिन परेशानियों से गुजर कर रही है.
यह फिल्म भी एक मिडिल क्लास युवक युधिष्ठिर उर्फ यूडी (प्रीत कमानी) की है जो कूल बनने के चक्कर में अपने दोस्तों तक के दिल तोड़ देता है. वह शहर के सब से महंगे कालेज में एडमिशन लेना चाहता है, जहां वह कोई पैसे वाली छात्रा को पटा कर प्रेमिका बना सके. उस का पिता किशनचंद शर्मा (मनोज पाहवा) खुद का चश्मा ठीक कराने में 200 रुपए तक खर्च नहीं करता. मां टिफिनों में खाना बनाबना कर लोगों को सर्व करती है. बड़ा भाई मां के खाना बनाने में मदद करता है. फिर भी उस का पिता डेढ़ लाख रुपए खर्च कर उस का बढ़िया कालेज में एडमिशन कराता है.
कहते हैं न, हर आदमी के पीछे औरत का हाथ होता है और हर मिडिल क्लास आदमी के पीछे उस का बेटा होता है जिसे वह रोज कंजूसी वाले टिप्स देता है. निर्देशिका रत्ना सिन्हा की यह फिल्म मिडिल क्लास की तमाम परतों और विडंबनाओं को दर्शाती है जिन से मिडिल क्लास के लोग गुजरते हैं.युधिष्ठिर जुगाड़ लगा कर किसी तरह मसूरी के महशूर कालेज तो पहुंच जाता है. कालेज में उस की मुलाकात कालेज की मशहूर लड़की सायशा ओबेराय (काव्या कापूर) से होती है, जिस से डेटकर वह वीआईपी टिकट जीत सकता है. मगर सायशा उसे बौयफ्रैंड बनाने के लिए शर्त रखती है. उसे आशा त्रिपाठी (ईशा सिंह) जैसी लड़की को डेट करना होगा, जिस से साइशा बहुत नफरत करती है.
कहानी में प्रेम त्रिकोण बनता है. कई घुमावदार इंसिडैंट्स होते हैं. आखिरकार, यूडी को यह समझ आ जाता है कि अपनों का साथ कितना जरूरी होता है. क्लाइमैक्स में वह सब के सामने अपनी गलतियां स्वीकार करता है और अपने मम्मीपापा के प्यार को एक्सप्रैस करता है.
निर्देशिका रत्ना सिन्हा प्रसिद्ध निर्देशक अनुभव सिन्हा की पत्नी है. उस की पहली फिल्म ‘शादी में जरूर आना’ थी. फिल्म ‘मिडिल क्लास लव’ में उस ने मिडिल क्लास की परेशानियों को हलकेफुलके अंदाज में पेश किया है. मध्यांतर से पहले की फिल्म धीमी गति में चलती है, मध्यांतर के बाद रफ्तार पकड़ती है.
फिल्म का निर्देशन साधारण है. नए कलाकार प्रभाव नहीं छोड़ते. कहानी प्रिडक्टिबल है. फिल्म को ‘स्टूडैंट औफ द ईयर’ का देसी वर्जन कह सकते हैं. फिल्म जिंदगी का आईना तो दिखाती है, मगर दिलों पर असर नहीं छोड़ पाती.
समीर आर्य और मनीष खुशलानी ने मसूरी की रमणीक लोकेशनों को फिल्माया है. हिमेश रेशमिया के संगीत में थोड़ाबहुत दम है. कुछ गाने अच्छे बन पड़े हैं.अभिनय की दृष्टि से नायक प्रीत कमानी ने आकर्षित किया है. मनोज पाहवा तो सदाबहार ऐक्टर है ही. दोनों नायिकाओं की ऐक्टिंग साधारण है. संवाद कहींकहीं अच्छे बन पड़े हैं. बीचबीच में बढ़िया कौमेडी भी की गई है.