बॉलीवुड में कलाकार की किस्मत हर शुक्रवार को बदलती है. इसे चंकी पांडे के कैरियर पर निगाह दौड़ाकर समझा जा सकता है. कभी बॉलीवुड में उनकी गिनती सर्वाधिक सफल हीरो के रूप में होती थी. लेकिन 1993 में प्रदर्शित पहलाज निहलानी की सफलतम फिल्म ‘‘आंखे’’ ने उनकी किस्मत बदल दी. ‘‘आंखे’’ में चंकी पांडे व गोविंदा दोनों थे. इस फिल्म के बाद गोविंदा को 20 फिल्में मिल गयी, मगर चंकी पांडे को बॉलीवुड में काम नहीं मिला. तो उन्होंने बांगला देश की राह पकड़ ली और वहां वह सुपर स्टार बन गए. 1994 से 1999 तक वह बांगला देश में ही रहते हुए वहां के सिनेमा में व्यस्त रहे. फिर पत्नी के कहने पर वापस भारत आ गए. भारत आने पर उन्होंने चरित्र अभिनेता के रूप में काम करना शुरू किया. चरित्र अभिनेता के रूप में उन्होने हास्य भूमिकाएं ही ज्यादा निभायीं.

चंकी पांडे एक बेहतरीन अभिनेता हैं, इसमें कोई दो राय नहीं. तभी तो लोग असफल फिल्म के किरदार आखिरी पास्ता, जिसे चंकी पांडे ने निभाया था, नहीं भूले हैं. और अब असफल फिल्म ‘‘बेगम जान’’ में पहली बार कबीर का नगेटिब किरदार निभाकर उन्होंने लोगों को अपने अभिनय का मुरीद बना लिया है. लोगों की जुबान पर कबीर का नाम छाया हुआ है. फिल्म ‘‘बेगम जान’’ के प्रदर्शन के बाद चंकी पांडे से मुलाकात हुई. उस वक्त उनसे हुई बातचीत इस प्रकार रही.

‘बेगम जान’ असफल?

यह बहुत डिस्टर्बिंग फिल्म है. इसलिए नहीं चली. मैं खुद बेगम जान जैसी फिल्म की बजाय ‘आंखे’ या ‘हाउसफुल’ जैसी फिल्में देखता हूं. हर फिल्म की सफलता हम पर निर्भर नहीं करती. ‘बेगम जान’ को बॉक्स ऑफिस पर सफलता नही मिली, मगर लोगों को मेरा किरदार कबीर पसंद आया.

फिल्म ‘‘बेगम जान’’ में आपके किरदार कबीर को बहुत पसंद किया गया. आप क्या कहेंगे?

अब तो मुझे अपने आप से डर लगने लगा है. मैं लंबे समय से हास्य किरदार निभाता आया हूं. जबकि मेरी पत्नी मुझसे कहा करती थी कि मेरे अंदर एक बहुत बड़ा विलेन/खलनायक छिपा हुआ है. मैं इसे मजाक समझता था. मेरी शादी को 19 साल हो गए हैं. मैं उससे बहुत डरता आया हूं. लेकिन फिल्म ‘‘बेगम जान’’ के बाद वह मुझसे डरने लगी हैं. अब मेरी पारिवारिक जिंदगी सही हो गयी है. कबीर के किरदार को लेकर मुझे बहुत गालियां पड़ी. मैं अपने एक दोस्त के घर गया हुआ था, तो उसकी दादी ने कहा कि, ‘मैं तुझे चप्पल लेकर मारूंगी.’ मैं बहुत मुश्किल से उन्हें समझा पाया कि वह मैंने सिर्फ फिल्म में किया है. मेरी दोस्त की पत्नी का ब्यूटी पार्लर है. उसने फोन पर बताया कि उसके यहां जो महिलाएं आती हैं, वह सब कबीर को गालियां देती है.

कबीर का जो लुक है, वह आपके दिमाग की उपज है या निर्देशक के दिमाग की उपज है?

देखिए, जब मेरे पास श्रीजित मुखर्जी इस किरदार का ऑफर लेकर आए, तो मैंने उनसे पूछा कि क्या आप वास्तव में चाहते हैं कि मैं इस खतरनाक किरदार को निभाउं. इस पर उन्होंने कहा- ‘‘मैं तुझे पिछले 25 साल से अभिनय करते हुए देखता आ रहा हूं. तू कॉमेडी करता है, तब भी तेरे अंदर एक शैतानी नजर आती है.” मैंने भी उससे कहा कि माना मेरे अंदर एक विलेन है, पर उसे बाहर कैसे निकाला जाए? तो श्रीजित मुखर्जी ने कहा कि मुझे अपने चंकी पांडे को भूलना होगा? तो मुझे अपनी पहचान को खत्म करने. फिर श्रीजित मुखर्जी के इशारे पर मैंने सबसे पहले अपने बाल मुंडवाए. मेरी खूबसूरत हंसी को बिगाड़ने के लिए दांत बड़े किए गए. चुलबुली आंखों को हटाने के लिए काजल लगाया. मेरी दाढ़ी तो वैसे भी सफेद है, तो 6 दिन के बाद सफेद दाढ़ी आ गयी थी. फिर बनियान पहन ली और लूंगी पहन लिया. इस लुक में जब मैं पहली बार सेट पर गया, तो विद्या बालन ने भी मुझे नहीं पहचाना.

लोग मुझे देखकर डर गए. लोग मेरे नजदीक नहीं आते थे. सभी को मेरे किरदार से एक खास तरह की घिन्न आती थी. तो मेरी समझ में आ गया कि मैं इस मकसद में कामयाब हो गया हूं कि लोगों के दिलों में खौफ पैदा करना है. जब मैं कलकत्ता एअरपोर्ट पर अपना बोर्डिग कार्ड लेने गया, तो वह मुझे मेरा बोर्डिग कार्ड देने तैयार नहीं था. तो मेरी समझ में आ गया कि लोग मुझे पहचान नही पाएंगे. वैसे श्रीजित मुखर्जी चाहते थे कि मैं अपनी भौंहें सफाचट कर दूं, पर मैंने उनकी यह बात नही मानी. सिर्फ भौहों पर कलर किया था. मैं तो बचपन से वैसे भी बडे़-बडे़ विलेन मसलन अजीत, प्रेम चौपड़ा व अमजद खान का फैन रहा हूं.

तो जब मुझे मौका मिला, मैंने सोचा कि अब मैं लोगों कि बैंड बजाउंगा. मैं कई तरह के मैनेरिजम अपनाना चाहता था, पर निर्देशक ने कहा कि कोई मैनेरिजम अपनाने की जरूरत नही है. केवल संवाद अदायगी समाचार पढ़ने की तरह की जाए. मैंने वही किया. कहीं कोई इमोशन नहीं, कुछ नहीं.

किरदार के नाम को लेकर भी कई तरह के सवाल उठे. क्योंकि कबीर तो बहुत बड़े समाज सुधारक संत कबीर के नाम के साथ मेल खाता है?

हमारे दिमाग में भी यह बात आयी थी. पर हमें ऐसा नाम चाहिए था, जो हिंदू या मुस्लिम दोनों हो सकता हो. इसलिए फिर हमने इसी नाम को रखा. फिल्म में संत कबीर का कोई रिफरेंस नही है. हमें कोई दूसरा नाम नहीं मिल रहा था, जो हिंदू भी लगे और मुस्लिम भी. आपने फिल्म में देखा होगा कि फिल्म के अंत में सब लोग मर जाते हैं. पर कबीर नहीं मरता. निर्देशक कहना चाहता है कि इस संसार में अच्छाई होगी, मगर बुराई कभी खत्म नहीं होगी. बुरे इंसान हमेशा रहेंगे. हम सभी के अंदर एक बुरा इंसान है. जिसे हमें दबा कर रखना चाहिए.  

कुछ देर पहले आपने कहा कि कबीर का आपकी निजी जिंदगी पर असर रहा. वह असर क्या रहा?

सबसे बड़ा असर यह रहा कि अब मेरी पारिवारिक जिंदगी खुशहाल हो गयी है. पत्नी डरने लगी है. अब मैं कहता हूं कि चाय चाहिए, तो चाय बनाकर ले आती हैं. पहले मुझे उसके लिए काफी बनानी पड़ती थी. अब लोगों को यह पता चल गया कि चंकी पांडे सिर्फ कॉमेडी नहीं करता, बल्कि अच्छा कलाकार है. ‘‘बेगम जान’’ के बाद जिस तरह की मुझे पहचान मिली है, उससे मैं बहुत खुश हूं.

क्या अब आपको लगता है कि आपने पिछले 10-12 साल में जो कॉमेडी की है, वह नहीं करना चाहिए थी?

ऐसा नही है. कॉमेडी तो मेरी रूह में है. मैंने जो भी किरदार किए हैं, लोगों को पसंद आए हैं. मैंने एक फिल्म में नेपाली का किरदार निभाया था. मैं शुक्रगुजार हूं कि साजिद खान ने मुझे यह किरदार निभाने का मौका दिया था. पहले इस किरदार को साजिद खान निभाने वाले थे. जब मैं इस किरदार को निभाने पहुंचा, तो अक्षय कुमार ने साजिद से कहा कि तू खुद क्यों यह किरदार नहीं निभा रहा है. तो उसने कहा कि मैं अभिनय नहीं, सिर्फ निर्देशन करूंगा. अब जब दर्शकों ने मुझे कबीर के किरदार में पसंद किया, तो उन्होंने मेरे करियर की दूसरी पारी अलग अंदाज में शुरू करने की प्रेरणा दे दी. मैं हमेशा कहता हूं कि कोई भी कलाकार अपनी फिल्मों या अपने अभिनय के बल पर पहचाना जाता है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कलाकार अपनी निजी जिंदगी में क्या है.

1993 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘आंखे’’ में आपके साथ गोविंदा की जोड़ी थी. पर इस फिल्म ने आप दोनों के करियर बदल दिए?

आपने एकदम सही कहा. इस फिल्म के बॉक्स ऑफिस पर सफल होने के बावजूद मुझे कामनहीं मिला और गोविंदा को 20-25 फिल्में मिल गयी थीं. वह स्टार बन गए थे. घर पर मैं खाली बैठा हुआ था. मेरे अंदर काम करने की इच्छा मुझे परेशान कर रही थी. तभी मुझे बांगला देश की फिल्म में अभिनय करने का अवसर मिला, मैंने किया और फिर कुछ समय के लिए वहीं का होकर रह गया.

मैंने बांगलादेशी फिल्मों में 1994 से 1999 तक ही काम किया था. उसके बाद पत्नी के कहने पर भारत वापस आ गया था. लोग कहते हैं कि पानी हमेशा अपनी राह ढूंढ़ लेता है. उसी तरह से बांगला देशी फिल्मों में मैं जो काम कर रहा था, उसे लोग पसंद कर रहे थे. अनिल कपूर हॉलीवुड चले गए, तो मैं बांगलादेश. इससे कोई फर्क पड़ता है, तो दूसरे देश में लोगों को अपने अभिनय का कायल कर देना भी उपलब्धि है. मेरे अभिनय वाली बांगलादेशी फिल्मों ने जो कमायी की है, वह बहुत ज्यादा है. जितने भी समय मैंने काम किया, लोग मेरी फिल्मों की वजह से परेशान थे. मेरे पास अभी भी बांगलादेशी फिल्मों के ऑफर आते हैं. पर मैं मना कर देता हूं. एक वक्त वह था, जब मैं बतौर हीरो काम कर रहा था. उस वक्त मैं बहुत इंज्वॉय कर रहा था. पर मुझे पता है कि हमेशा हीरो के रूप में काम नहीं कर सकता हूं. तो समय के साथ बदलाव आना चाहिए, तभी आप सफल हो सकते हैं. यदि मैं आज से दस साल पहले ‘‘बेगम जान’’ के कबीर को निभाया होता, तो शायद लोग पसंद न करते.

क्या अब आप कुछ और करने की सोच रहे हैं?

मैं खुद कंफ्यूज हूं कि मुझे क्या करना चाहिए. मैंने खुद फिल्म ‘‘हनुमान दा दमदार’’ में एक किरदार को अपनी आवाज दी है. लेकिन शूटिंग होने के बाद मैंने उस किरदार के लिए डबिंग नहीं की है. बल्कि पहले मैंने किरदार को माइक के सामने निभाया यानीकि संवाद अदायगी की, उसके बाद उस आवाज से निकले चारित्रिक विशेषता के साथ मेरे किरदार को गढ़ा गया. यह कार्टून फिल्म है. मेरा किरदार विरोधा भासी है. यह फिल्म डबिंग थिएटर में बनी है. पहले हमने आवाज दी, फिर शूटिंग हुई. मेरे किरदार का नाम है राजू गाइड. यह बहुत नाजुक है. डबिंग स्टूडियो में पहुंचकर मैं अपने बचपन के किस्से सुना रहा था कि अस्पताल में जिस दिन मैं पैदा हुआ, उस दिन मेरे अलावा सभी लड़कियां पैदा हुई थी. मेरी मां भी लड़की चाहतीं थीं. पर मैं पैदा हो गया था. मेरी मम्मी बचपन में लड़की वाली पोशाक ही पहनाती थी. काजल लगाती थी. कान में बोल पहनाती थी. तो मैने राजू गाइड को महिला जैसी आवाज दी है.

कुछ नया कर रहे हैं?

दो-तीन नए व अच्छे ऑफर हैं. एक तेलगू फिल्म का ऑफर है. एक हॉलीवुड फिल्म का ऑफर है. एक टीवी शो का भी ऑफर है. देखते हैं कि क्या होगा. मैंने तो दो साल पहले यह नही सोचा थी कि मुझे ‘बेगम जान’ में नेगेटिव किरदार निभाने का अवसर मिलेगा, जो लोगों को काफी पसंद आएगा. मैं तो हर तरह के किरदार निभाना चाहता हूं.

फिल्मों में आ रहे बदलाव को किस तरह से देखते हैं?

दर्शक बदलते रहते हैं. दर्शक समाज व देश के हालात के अनुसार बदलते हैं.

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