डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाते हुए जबरदस्त शोहरत बटोरने के बाद ‘काबुल एक्सप्रेस’ व ‘न्यूयार्क’, ‘एक था टाइगर’, ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी फिल्मों से फीचर फिल्मों के निर्देशन में उतरने वाले कबीर खान लगातर सफलता की ओर अग्रसर हैं. ‘एक था टाइगर’ के बाद सलमान खान के साथ उनकी दूसरी फिल्म ‘‘बजरंगी भाईजान’’ को मिली अभूतपूर्व सफलता से उत्साहित कबीर खान अब सलमान खान के साथ ‘‘ट्यूब लाइट’’ लेकर आ रहे हैं. मजेदार बात यह है कि कबीर खान का दावा है कि वह बाक्स आफिस के आंकड़ों को ध्यान में रखकर फिल्में नहीं बनाते हैं.
आपकी हर फिल्म में पोलीटिकल एंगल होता है. आखिर आपकी राजनीति की समझ क्या है?
– इसकी कई वजहें हैं. मेरे पिता दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में फाउंडर पोलीटिकल साइंस प्रोफेसर रहे हैं. वह 12 साल तक राज्य सभा के नोमीनेटेड सदस्य रहे. यानी कि राजनीति के माहौल में ही पला बढ़ा हूं. हमारे घर के डायनिंग रूम में राजनीति पर ही चर्चा होती रहती थी. पिता के दोस्त व उनके आस पास के सभी लोग राजनीतिक रूप से सक्रिय लोग थे. जब हम खाने पर बैठते थे, तो हमारी बातचीत फिल्मों के बारे में नहीं होती थी. बल्कि मुल्क व पूरे विश्व में क्या हो रहा है, उस पर चर्चा हुआ करती थी. इसलिए पोलीटिकल प्रस्पेक्टिव मेरे दिमाग में आ गया. हर चीज, हर बात को पोलीटिकली देखने का एक नजरिया बन गया. फिर जब मैंने डाक्यूमेंट्री बनानी शुरू की, तो कई पत्रकारों के साथ काम किया. मुझ पर सईद नकवी ने बहुत यकीन किया. सईद नकवी के साथ मैंने साठ सत्तर मुल्क घूमे हैं. उनके साथ मैने कई पोलीटिकल फीचर किए. इसकी वजह से मेरा एक होराइजन बढ़ गया. इसी के चलते मुझे विश्व राजनीति की समझ हो गई.
हम लोग विश्व की राजनीति को ‘बीबीसी’ और ‘सीएनएन’ देखकर उसी को सच मानकर चलते हैं. पर जब आप जमीनी सतह पर पहुंचकर देखते हैं, तो कुछ और ही सच पाते हैं. तब आपकी समझ में आता है कि हर चीज का एक प्रस्पेक्टिव होता है. हर चैनल का अपना एक प्वाइंट आफ व्यू होता है. ‘अल जजीरा’ का अपना प्वाइंट आफ व्यू है. जबकि एक जमाना वह था, जब ‘बीबीसी’ ने जो कह दिया, वही अटल सच माना जाता था. तो विश्व में घूमते हुए मुझे समझ में आया कि जो बीबीसी या सीएनएन बोलता है, वही सच नहीं होता है. फिर मेरे दिमाग में आया कि ज्यादा से ज्यादा इवेंट पर जाया जाए, जमीनी सच्चाई अपनी नजरों से देखी व समझी जाए. तो जो कुछ चैनलों पर बताया जाता है और जो कुछ हकीकत में हो रहा होता है, उसमें ‘गैप’ होता है. मेरी फिल्मों में उस ‘गैप’ की कहानी होती है. कौन सी कहानी कही जाए और कौन सी नहीं, के बीच के गैप की कहानी को मैने अपनी फिल्मों का हिस्सा बनाया. उस गैप की कहानी ‘काबुल एक्सप्रेस’ है. उस गैप की ही कहानी ‘न्यूयार्क’ है. ‘एक था टाइगर’, ‘फैंटम’ सहित मेरी हर फिल्म है. यही मूल वजह है कि मेरी हर फिल्म में पोलीटिकल कंटेंट होता है.
पोलीटिकल माहौल में परवरिश होने के बावजूद आपने सिनेमा में करियर बनाने की बात क्यों सोची?
– मेरी राय में हम सभी पोलीटिकल इंसान हैं. हर इंसान की एक आइडियोलाजी होनी चाहिए. मैंने कभी भी सक्रिय राजनीति के बारे में नही सोचा. पर हम चाहे जो काम करें, उसमें एक पोलीटिकल नजरिया आएगा ही आएगा. मैं पहले डाक्यूमेंटरी बना रहा था. पर एक दिन मैने महसूस किया कि इसे कोई देखता नहीं है. डाक्यूमेंट्री फिल्मों का कोई दर्शक नहीं है. मेरी बात जिन तक पहुंचती है, वह वही हजार पांच सौ लोग हैं, जो मेरी बात से सहमत हैं. तो फिर इनके लिए डाक्यूमेंट्री क्यों बनायी जाए?
मैं चाहता था कि ऐसा सशक्त माध्यम हो, जिसके द्वारा आप कोई बात कहें, तो पूरे विश्व तक पहुंच जाए, तब मुझे सिनेमा ही एकमात्र माध्यम नजर आया, इसलिए मैं सिनेमा से जुड़ा. मुझे लगता है कि यदि हम किसी बात पर सशक्त रूप से यकीन करते हैं, तो उसके बारे में बात की जानी चाहिए. हम वह बात सिनेमा में कर सकते हैं. हो सकता है कि कुछ लोगों को हमारी बात पसंद आए या कुछ लोगों को न आए. हर फिल्म में फिल्मकार को अपना नजरिया डालना चाहिए. जिन चीजों से आपको दिक्कत है, उनके बारे में सिनेमा में बात करनी चाहिए.
आपने फिल्मों में पोलीटिकल एंगल पिरोने की बात क्यों सोची?
– पहले जब मैं फिल्में देखता था, तो मुझे दिक्कत होती थी कि अरे इसमें कुछ पोलीटिकल कंटेट क्यों नहीं डाल दिया. जब मैने मणि रत्नम की फिल्में देखीं, तो उनमें कंटेंट पाया. मणि रत्नम की फिल्मों में पोलीटिकल पृष्ठभूमि के साथ अच्छी कहानी होती है. तो जब मुझे मेनस्ट्रीम सिनेमा करने का अवसर मिला, तो मैंने हर फिल्म में पोलीटिकल कंटेंट पिरोया. मैं अपनी फिल्म में राजनीति इस तरह से पिरोता हूं कि फिल्म राजनीति के बारे में नहीं किरदारों के बारे में होती है. जिन दर्शकों को राजनीति के बारे में कुछ नहीं पता होता है, वह फिल्म के किरदारों को फालो करते हैं. मेरी ज्यादातर फिल्में कमर्शियली सफल रही हैं, इसके मायने हैं कि यह सब दर्शकों को अच्छा लगता है.
इस वक्त की देश की राजनीति को लेकर आपकी अपनी क्या सोच है?
– सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हमारे देश में क्या हो रहा है? मेरी फिल्म ‘‘बजरंगी भाईजान’’ के संदर्भ में लोग कहते हैं कि यह फिल्म भारत व पाक की बार्डर/सीमा के बारे में है. जबकि हकीकत में मेरी फिल्म ‘‘बजरंगी भाईजान’’ हमारे अंदर क्या हो रहा है, उसकी बात करती है. यदि आप इंटरवल के पहले देखें, तो यह कहानी भारत के अंदर बनी सीमाओं के बारे में है. भारत व पाक के बीच तो एक अंतरराष्ट्रीय सीमा है. जबकि हमने खुद अपने मुल्क में कई सीमाएं पैदा कर रखी हैं. एक दूसरे की कम्यूनिटी के बीच में, वह मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है. दुर्भाग्य की बात यह है कि मैं आजकल देख रहा हूं कि देश के अंदर बार्डर बढ़ते जा रहे हैं. हर चीज में सीमा हो गयी है. पहले धर्म को लेकर सीमा थी. अब तो तुम खाते क्या हो, उसको लेकर भी सीमा/बार्डर खींचा गया है. तुम यह नारा बोलते हो या नहीं, उस पर एक बार्डर हो गया है. हर चीज में कैसे बार्डर हो सकता है. जिस मुल्क में मैं बड़ा हुआ हूं, और अब जिस तरह का मुल्क है, वह देखकर काफी दिक्कत होती है. मेरे जेहन में सवाल उठते हैं कि यह कैसे हुआ? कब हुआ?
आप जो कुछ कह रहे हैं, उसकी वजहें सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ है या कुछ और?
– सब पोलीटिकल है. आम लोगों में ऐसा नहीं है. राजनीतिक रूप से यह सब क्रिएट किया जाता है. उसकी वजह से फिर लोगों के अंदर असुरक्षा की भावना आती है. नकारात्मक भाव आते हैं. मसलन-‘जयश्री राम’ को लें. हमने बचपन में ‘जय श्री राम’ को धर्म के रूप में देखा ही नहीं. यह तो अभिवादन का एक प्रतीक हुआ करता था. मैं तो दिल्ली की रामलीलाओं में हनुमान का किरदार निभाया करता था. उस वक्त हर लड़का हनुमान बनना चाहता था, राम कोई नहीं बनना चाहता था. जब मैंने अपनी पिछली फिल्म का नाम ‘‘बजरंगी भाईजान’’ रखा, तो कइयों ने टोका था कि यह नगेटिव भाव है. लोगों ने गुजरात का संदर्भ याद दिलाया. मैंने उनसे कहा कि जो हो गया, सो हो गया. मेरे लिए ‘बजरंगी’ पाजीटिव हैं. क्योंकि हनुमान तो लायलिटी और बड़े दिल के साथ खड़े रहते हैं.
‘बजरंगी भाईजान’ के रिलीज के बाद लोगों ने क्या कहा?
– इस फिल्म में हमने जो कुछ कहा वह बात कुछ लोगों तक पहुंची. कुछ लोगों तक नहीं पहुंची. एक ही तरह का संदेश हर इंसान को खुश नहीं कर सकता. मुझे खुशी है कि इस फिल्म को बड़ा प्यार मिला. मैं यह मानकर चलता हूं कि एक फिल्म समाज में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं ला सकती. फिल्म कुछ समय के लिए कुछ लोगों को सोचने पर मजबूर कर सकती है. कुछ पाकिस्तानियों ने मुझसे कहा था कि फिल्म देखने के बाद उनकी सोच बदली है. अब कोई भारतीय मिलेगा तो वह उसके गले लगेंगे. अब यह सोच उनकी कितनी देर रही, उसका दावा तो नहीं कर सकता. वास्तव में आज के जमाने में हमारे न्यूज चैनल बहुत लाउड व अग्रेसिव हो गए हैं. ऐसे में सिनेमा ही सबसे बड़ी ताकत बचती है, जिसके माध्यम से हम कुछ कह सकते हैं. बालीवुड में हमें काउंटर प्वाइंट देना चाहिए. वैसे यही हालत पाकिस्तानी न्यूज चैनलों की भी है. वह वहां भोंकते रहते हैं और हमारे चैनल यहां भोंकते रहते हैं.
न्यूज चैनलों की इस हालत की वजह क्या है? आप तो पहले काम कर चुके हैं?
– टीआरपी का फंडा. दर्शक जुटाने का मसला. यदि आप लाउड हैं या सेंसेनल हैं, तो दर्शक ज्यादा मिल जाते हैं. मैं इन्हे न्यूज चैनल नहीं बल्कि ‘लो कास्ट रियालिटी मनोरंजक चैनल’ मानता हूं. वह मनोरंजन ही करते हैं. न्यूज चैनलों पर जो बहस होती है, उसे आप सुन नहीं सकते.
आपकी नई फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ क्या है?
– यह अंग्रेजी फिल्म ‘‘लिटिल ब्वाय’’ का भारतीय करण हैं. जिसमें दो भाईयों लक्ष्मण व भरत की कहानी है.
अंग्रेजी फिल्म ‘‘लिटिल ब्वाय’’ देखकर किस बात से प्रभावित हुए कि आपने उसे हिंदी में ‘‘ट्यूबलाइट’’ के नाम से बनाने की बात सोची?
– यह बहुत ही अद्भुत बात है. 2-3 हालीवुड स्टूडियो मेरे साथ काम करना चाहते थे. उन्होंने मेरे सामने सारी अंतरराष्ट्रीय फिल्मों का लंबा चौड़ा कैटलाग रखते हुए कहा कि मैं इसमें कोई भी फिल्म चुन सकता हूं. 15-20 दिन तक मैंने कुछ फिल्मों के नाम, उनकी कहानी वगैरह पढ़ी. अंत में मैंने कहा कि मुझे कोई भी पसंद नहीं है. क्योंकि मुझे लगा कि यह फिल्में भारतीय परिवेश में ढाली नहीं जा सकती. इन फिल्मों में ऐसा कोई मुद्दा नहीं है, जिससे भारतीय रिलेट करें.
अचानक मुझे एक छोटी सी फिल्म ‘लिटिल ब्वाय’ का ट्रेलर देखने का मौका मिला, जो कि बाइबल के बारे में हैं. मैं धर्म को लेकर बहुत ज्यादा नहीं सोचता. फिर एक दिन मेरे सहायक ने ‘लिटिल ब्वाय’ देखने के लिए दे दी. यह फिल्म एक छोटे बच्चे और बाइबल के बारे में है. फिल्म देखकर मुझे लगा कि इसे भारतीय परिवेश में बदला जा सकता है. कुछ चरित्र बदले जाएंगे. फिर इस फिल्म के अधिकार खरीदकर उसे हमने अपनी कहानी बनायी. अब हमने जो फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ बनायी है, वह हमारे लिए आज के माहौल में बहुत रिलीवेंट है.
पर फिल्म की कहानी तो 1962 भारत चीन की पृष्ठभूमि में है?
– जी हां! लेकिन मुद्दे आज के हैं. मैं फिल्म की कहानी बताना नहीं चाहता. पर उस वक्त कुछ चीजें हुई थीं, जो आज भी ज्यों की त्यों हैं. 1962 में जंग की वजह से लोगों की पहचान पर सवाल खडे किए गए थे. उनकी लायलिटी पर सवाल किए गए थे. आज के माहौल में भी वही हो रहा है. आज हमसे हमारी भारतीयता को साबित करने को कहा जा रहा है. सवाल किया जा रहा है कि हम हिंदुस्तानी क्यों हैं? मेरी राय में यदि मैं अपने आपको हिंदुस्तानी समझता हूं, तो किसी को इस बात से क्या मतलब है कि मैं क्या खाता हूं? क्या पहनता हूं? या मैं किस जबान में बात करता हूं. मैं खुद को दिल से हिंदुस्तानी मानता हूं. ऐसे में आपको हिंदुस्तानी हूं या नहीं, यह सवाल करने का हक नही बनता है. यह बहुत बड़ा मुद्दा है. एक देश की महानता यह होती है कि उस देश के नागरिक देश में जो कुछ हो रहा है, उस पर सवाल कर सकें? यदि हम ऐसा नही करते हैं? तो फिर हममें और उत्तर कोरिया में क्या फर्क रहा? मेरी राय में कोई भी सरकार एक देश का प्रतिनिधित्व नहीं करती है. हमारा मुल्क 6000 साल पुराना है. हर सरकार पांच साल के लिए आती है. इसलिए कोई भी सरकार इंडिया का प्रतिनिधित्व नहीं करती. वह उस वक्त की रूलिंग पार्टी हो सकती है.
सरकार हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व नहीं करती है. यह बात फिल्म ‘‘ट्यूबलाइट’’ में किस तरह से है?
– इसके लिए मुझे फिल्म की कहानी बतानी पड़ेगी, जो कि फिलहाल उचित नहीं होगा. फिल्म में कुछ संवाद, कुछ सीन हैं, जहां यह सारी बातें आएंगी. मैं अपनी हर फिल्म में पालीटिक्स को कई लेयर में लेकर आता हूं. आखिर हमारी फिल्म मेनस्ट्रीम की फिल्म है.
फिल्म में युद्ध बंदियों को लेकर कोई बात कही गयी है?
– फिल्म की पृष्ठभूमि में युद्ध जरूर है, पर फिल्म में युद्ध नहीं है. युद्ध की वजह से हमारे समाज में क्या होता है? उसकी कहानी है. हमारी फिल्म ‘ट्यूब लाइट’ जवानों/सैनिकों के परिवारों को समर्पित है. देखिए, जवान या सैनिक सीमा पर युद्ध लड़ने जाता है, उसी वक्त उसका पूरा परिवार भी युद्ध लड़ता है. सैनिक के जाने के बाद उसके खानदान को किस तरह का युद्ध लड़ना पड़ता है, उसकी कहानी है हमारी फिल्म ‘ट्यूब लाइट’.
आप डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर के रूप में संतुष्ट थे या फीचर फिल्ममेकर के रूप में?
– मैं दोनों जगह संतुष्ट हूं. डाक्यूमेंट्री फिल्मकार के रूप में अलग रोमांच है. मैं अफगानिस्तान में कई माह रहा हूं. छिपछिपकर शूटिंग करता था. हम कैमरा खोलते थे, पर हमें पता नहीं होता था कि हमारे साथ क्या होने वाला है. तो उसका अलग रोमांच था. फीचर फिल्मों में तो सब कुछ सुनियोजित तरीके से होता है. तो दोनों जगह अलग रोमांच है. अलग क्रिएशन है. डाक्यूमेंट्री फिल्मकार के रूप में मैं 70 देश घूमा हूं. डाक्यूमेंट्री फिल्मकार के रूप में मुझे ढेर सारा रॉ मैटेरियल मिला, ढेर सारी कहानियां मिली. अब वही रॉ मैटेरियल मेरी फिल्मों की कहानी का हिस्सा होती हैं.
आपने सुभाष चंद्र बोस की आर्मी ‘आजाद हिंद फौज’ पर एक डाक्यूमेंट्री बनायी थी. अब आप उसी पर वेब सीरीज बना रहे हैं?
– बीस वर्ष पहले जब मैं डाक्यूमेंट्री बना रहा था, तो मैंने ऐसी कहानी देखी कि वह कहानी मेरे जेहन से आज तक नहीं उतरी. तो मैंने सोचा कि अब इस पर वेब सीरीज बनायी जाए. मैंने रीयल बैकड्राप पर कुछ किरदार रचे हैं. यह बहुत ही फैसिनेटिंग कहानी है. यह ऐसी कहानी है, जिसे हम लोग जानते नहीं हैं. उनकी आर्मी में जंग लड़ने वाले 55000 पुरुष और औरतें कौन थी? जो कि आजादी के लिए ब्रिटिश सैनिकों के खिलाफ युद्ध के मैदान में कूद गए? झांसी की रानी रेजीमेंट की वह औरतें कौन थी, जिन्होंने भारत नहीं देखा था. वह तो सिंगापुर, मलेशिया, बर्मा की थीं. आज तक किसी भी सेना में महिला इंफीनिटी नहीं रही है. तो यह वेब सीरीज हाई रोमांच पैशन रोमांस की कहानी है. यह कहानी आजाद हिंद फौज के सैनिकों की हैं, पर कहीं न कहीं सुभाष चंद्र बोस की भी मौजूदगी रहेगी.
सिनेमा के बदलाव को किस तरह से देखते हैं?
– बहुत अच्छा बदलाव है. उसी बदलाव का नतीजा है फिल्म ‘बाहुबली’. ‘बाहुबली’ हिंदी में डब फिल्म है. बाहुबली के स्टार इसके निर्देशक एस एस राजमौली हैं. लोग निर्देशक के विजन को नमस्कार कर रहे हैं. मैं इसे सकारात्मक विकास मानता हूं. अब कंटेंट आधारित छोटे बजट की फिल्में चलने लगी हैं. ‘दंगल’ जैसी फिल्म चीन में भी कमा रही हैं. जब ‘बजरंगी भाईजान’ बन रही थी, तो लोगों ने कहा था कि सलमान खान हैं, तो उनसे एक्शन करवाना चाहिए. सलमान खान को शर्ट उतारना चाहिए. पर हमने अपनी फिल्म में ऐसा नहीं दिखाया. अब तक ‘बजरंगी भाईजान’ सलमान खान की सबसे ज्यादा सफल फिल्म है. सच यह है कि अब दर्शक कहानी को महत्व देने लगा है.