बिहार के एक गांव से निकल कर मुंबई फिल्म नगरी में अपनी पहचान बना लेना आसान नही है और यह हर इंसान के वश की बात भी नही है. मगर बिहार के छोटे से गांव से निकलकर दिल्ली में सात वर्षों तक थिएटर करने के बाद 2009 से मुंबई में संघर्षरत अभिनेता पंकज झा ने अंततः 12 वर्षों बाद बतौर अभिनेता अपनी जबरदस्त पहचान बनायी.2009 से लगातार सीरियलों में काम करते आ रहे पंकज झा ने 2018 में लघु फिल्म ‘‘सीजंस ग्रीटिंग्स’’ में अभिनय कर लोगों को चैंकाया था. फिर 2021 में वेब सीरीज ‘‘महरानी’’ में अभिनय कर जबरदत लोकप्रियता बटोरी. और अब 25 अगस्त से वह ‘महारानी’ के ही दूसरे सीजन ‘‘महारानी 2’’ में भी नजर आने वाले हैं.
प्रस्तुत है पंकज झा से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के मुख्य अंश…
बिहार के छोटे से गांव में रहते हुए आपके अंदर अभिनय का प्रेम कैसे जागा? उसके बाद की आपकी यात्रा कैसी रही?
यह तो बहुत लंबी कहानी है. मैंने अभिनेता बनने का कोई निर्णय नहीं लिया था.सब कुछ अपने आप होता गया. मेरे पिता जी थिएटर ग्रुप चलाते हुए खुद नाटकों में अभिनय किया करते थे. मुझे याद है जब मैं बहुत छोटा था,तब एक नाटक का एक दृश्य मुझे याद आता है. मैं अपने दादा जी की गोद में बैठकर नाटक देख रहा था.उस नाटक के एक दृश्य में सामने वाले कलाकार ने उनके पेट में छूरा घोंप दिया और सारा खून निकला,जिसे देखकर मैं रोने लगा.तब मेरे दादा जी ने मुझे परदे के पीछे ले जाकर दिखाया कि कुछ नहीं हुआ है.पेट में लाल रंग का भरा हुआ गुब्बारा बंधा हुआ था. मेरे दादा जी सांस्कृतिक कार्यक्रम व नाटक करवाया करते थे. मेरे पिताजी काफी अच्छा गाते भी हैं.स्टेज पर भी गाते रहे हैं. वह अभिनय भी करते रहे हैं. लेकिन जैसे ही मैंने होकर संभाला, मेरी पढ़ाई लिखाई शुरू हुई, तो मेरे पिता जी ने यह सारी कलाकारी बंद कर दी.लेकिन उससे पहले मेरे दादाजी ने मुझे स्टेज पर छोटे कृष्ण और राम का चरित्र करवाया था.कहने का मतलब यह कि अभिनय की शुरूआत तो अनजाने में बचपन में ही हो गयी थी. शायद अभिनय मेरे जींस, मेरे खून में ही है.लेकिन मुझ पर पढाई का इतना दबाव था,कि यह दबा रहा. मेरे परिवार के लोग मुझे आईएएस अफसर बनाना चाहते थे, जबकि मैं डाक्टर बनने का सपना देख रहा था.
मैं मुजफ्फरपुर में पढाई के दौरान संगीत सीखता रहा.थिएटर करता रहा.यानी कि अभिनय वं सगीत की ट्ेनिंग भी सतत चल रही थी.लेकिन जब मैं उच्च शिक्षा के लिए बिहार से निकलकर दिल्ली पहुंचा,तो मेरे चक्कर मंडी हाउस में लगने लगे और मैं अभिनेता बन गया.
दिल्ली में आपने जो नाटक किए, उनमें से कौन से नाटक सर्वाधिक लोकप्रिय रहे?
थिएटर में दिलीप शंकर जी मेरे गुरू हैं. मैंने मोहन मह-िुनवजर्या सहित कई दिग्गज रंगकर्मियो के साथ थिएटर किया. मेरा सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक ‘प्रेमपरिभाषा’ था, जिसमें साठ के दषक के 99 गानों का कोलाज था.तीन ग्रुप थे.हर ग्रुप में एक पुरूष और एक लड़की का जोड़ा था.यह एक प्रयोग था.गाना पार्श्व में बजता था और हम उसमें अभिनय करते थे.दूसरा नाटक अंग्रेजी भाषा में ‘स्टीरियोटाइप’ था.फिर ‘टोकरियां’ नामक नाटक था. फिर मैंने म्यूजिकल रामायण किया, जिसमें राम का किरदार निभाया,जो कि गाना भी गाता है.तो पूरी तरह से म्यूजिकल रामायण का यह बेहतरीन शो हुआ था. मैंने अथैलो भी किया. बाबी बेदी निर्मित ‘कर्ण’ नाटक में मैं कर्ण के पिता का किरदार निभाता था.
मैने हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं के नाटकों में मैंने अभिनय किया.
मुंबई पहुंचने के बाद किस तरह का संघर्ष रहा?
सच यह है कि मैं दिल्ली में बड़ी सहजता के साथ थिएटर कर रहा था. मेरा मुंबई आने का कोई इरादा ही नहीं था.लेकिन मेरे गुरू दिलीप शंकर व दो तीन अन्य लोगों ने मुझसे मुंबई आने के लिए कहा. उन्होंने मुझे समझाया कि आपको नाम व पैसे दोनों चाहिए. भवि-ुनवजयय में आपके खर्च ब-सजय़ेंगे और थिएटर में पैसे तो है नहीं.तब हिम्मत जुटाकर मैं 2009 में मुंबई आया. मुंबई में छह माह की दौड़ भाग के बाद मुझे लगा कि मेरे लिए दिल्ली ही ठीक है.दिल्ली में उमेश बिस्ट का एक शो ‘जीना इसी का नाम है’ कर रहा था,तो वह करने के लिए वापस दिल्ली चला गया.वहां पर वी के शर्मा के म्यूजिकल ‘रामायण’ के शो भी कर लिए. उसके बाद फिर दिल्ली में बेकार हो गया.तो अक्टूबर 2009 में फिर से मंुबई आकर अंधेरी में एक दोस्त के साथ किराए पर रहने लगा.
रंजीत कपूर ने मुझे दूरदर्शन के एक सीरियल के पायलट एपीसोड में काम करने का अवसर दिया.‘स्टार प्लस’ के एक सीरियल के प्रोमो की शूटिंग की. तो मुझे लगा कि मेरी तकदीर खुल गयी. दूसरी बार मुंबई पहुंचते ही तुरंत काम मिलने लगा.
लेकिन इन दोनों सीरियलों की कोई प्रगति नही हुई.सब कुछ शून्य हो गया. फिर संघर्ष शुरू हो गया.
तो कैरियर कैसे शुरू हुआ?
2011 में मुझे पहली बार ‘कलर्स’ चैनल के सीरियल ‘‘बालिका वधु’’ में एक कैमियो करने का अवसर मिला था.आनंदी की सहेली के भाई का किरदार निभाया.यह काफी चर्चित सीरियल रहा है.इससे मेरे कैरियर पर बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा. उसी दौरान मैने ‘आजतक’ चैनल के लिए मैंने एक सीरीज गांधी की. इसमें गांधी जी अलग अलग शहरों में घूमते हैं और लोगों की प्रतिक्रियाएं क्या होती है..यह सब था. यह एक नया प्रयोग था.‘‘इसका नाम था-ंउचयभ्र-ुनवजयटाचार मुक्त हिंदुस्तान, सबको सम्मति दे भगवान’.इसमें मैं गांधी बना था.दिल्ली में रहते हुए मैंने ‘दिल्ली 6’ और ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ फिल्मों में छोटे किरदार निभाए थे.उसके बाद ‘सावधान इंडिया’, ‘शपथ’ सहित कई एपीसोडिक सीरियल करता रहा.पर दिल की बात यह है कि मुझे टीवी सीरियलो में अभिनय करते हुए मजा नहीं आ रहा था. इसी बीच मुझे लघु फिल्म ‘‘सीजंस ग्रीटिंग्स’’ मिली. इसे विश्व के कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में कई अवार्ड मिले. काफी प्रशंसा मिली. ‘शिकागो’,‘लंदन फिल्म फेस्टिवल’, ‘लॉस एजेंल्स फिल्म फेस्टिवल’ सहित कई फिल्म समारोहो में इस फिल्म के प्रदर्शन के वक्त जाने का अवसर मिला था. 2018 में इस फिल्म को ‘दादा साहेब फालके अवार्ड’ भी मिला.इसके अलावा भी मैंने दो तीन लघु फिल्में की.
उसके बाद कोविड के चलते जब लॉकडाउन लगा, तो मुझे वेब सीरीज ‘‘महारानी’’ में एम एलए दिवाकर का किरदार निभाने का अवसर मिला.नवंबर 2020 में भोपाल में हमने इसकी षूटिंग षुरू की,तब मु-हजये अहसास हुआ कि यह तो काफी रोचक किरदार है.मैने मेहनत से इस किरदार को निभाया. जब इस सीरीज का प्रसारण हुआ, तो लोगों ने वेब सीरीज ‘महारानी’ के साथ ही मेरे दिवाकर के किरदार को भी काफी सराहा.अब 25 अगस्त से इसी वेब सीरीज का दूसरा सीजन यानी कि ‘‘महारानी 2’’ सोनी लिव पर प्रसारित होने जा रहा है. इसके अलावा विक्रमादित्य मोटावणे की वेब सीरीज ‘‘जुबली’’ की है,जो कि इसी व-ुनवजर्या आएगी. मधुर भंडारकर की फिल्म ‘‘लॉक इंडिया लॉक’’ में भी एक अच्छा किरदार निभाया है.
अब 25 अगस्त से ‘सेानी लिव’ पर स्ट्रीम होने वाली वेब सीरीज ‘‘महारानी 2’’ भी कर रहे हैं?
इस वेब सीरीज में मेरा किरदार वही एमएलए दिवाकर -हजया का ही है.दल बदल करता है. इससे अधिक बताकर दर्षकों की उत्सुकता को खत्म नही करना चाहता.पर इस बार दिवकार पहले की अपेक्षा कुछ कम समय के लिए परदे पर आएगा, मगर धमाल है.‘महारानी 2’ में कुछ नए किरदार भी जोड़े गए हैं.
‘‘महारानी 2’’ के प्रति लोगों की उत्सुकता बढ़ाने के लिए निर्देशक को बदला गया है?
पूरी सीरीज के निर्देशक तो सुभा-ुनवजया कपूर ही हैं.पहले सीजन में करण शर्मा निर्देशक थे.इस सीजन का निर्देशन रवींद्र गौतम ने किया है.रवींद्र गौतम इससे पहले कई सफलतम टीवी सीरियलों के अलावा फिल्म ‘‘21 तोपों की सलामी’’ का निर्देशन कर चुके हैं. पर पूरा कंट्रोल तो सुभा-ुनवजया कपूर क ही है.
वही इस सीरियल के जन्मदाता हैं.पोलीटिकल ड्रामा में तो उन्हे महारत हासिल है.पहले सीजन में किरदार के सुर को पकड़ने में सुभा-ुनवजया कपूर ने मेरी काफी मदद की थी.
मैं एक घटना का जिक्र करना चाहॅूंगा.जब मैं भोपाल में ‘महारानी’ के सेट पर पहली बार पहुंचा था,उस वक्त मुझे कुछ पता नहीं था. मैंने स्क्रिप्ट नहीं पढ़ी थी. जब मुंबई में इसका वर्कशॉप हुआ और स्क्रिप्ट प-सजय़ी जा रही थी, तब मैं लॉक डाउन के चलते गांव में था.तो मैंने सुभा-ुनवजया कपूर जी से पूछा कि इसका रिर्फेंस प्वाइंट क्या है.कुछ बताएं? तो उन्होंने मुझसे कहा कि प्रशांत किशोर को जानते हो.तो मैंने कहा कि हां! मैं उन्हे सोशल मीडिया पर फालो कर रहा हूं. उनकी आइडियोलौजी को समझ रहा हॅूं.वही आपका किरदार है.मैं उसी हिसाब से पूरी तैयारी करके शॉट देने के लिए सेट पर पहुंचा,तो पता चला कि यह तो बदला हुआ है.यह तो पूरी तरह से बिहारी प्रशांत किशोर है. यह तो प्रशांत किषोर की तरह गंभीर है
ही नही.दिवाकर तो कटाक्ष मारता रहता है.आपने भी देखा होगा कि पूरी सीरीज में दिवाकर कटाक्ष मार रहा है.मेरे ‘टेकनिकल सी एम’ के कटाक्ष के ही चलते रानी भारती, महारानी यानी कि मुख्यमंत्री बन जाती हैं. सुभा-ुनवजया कपूर मुझसे थोड़ा गुस्सा भी हुए थे और फिर उन्होंने बताया कि इस किरदार को इस तरह से पकड़ो.उसके बाद ही मैं किरदार का सही सुर पकड़ पाया था.
किसी भी किरदार को निभाने से पहले आपकी अपनी किस तरह की तैयारी होती है?
-थिएटर से होने के चलते मेरी जिस तरह की ट्रेनिंग है, उसके चलते मैं हमेशा किरदार के सोल/ आत्मा को पकड़ काम करने वाले कलाकारों की श्रेणी में आता हॅूं.आप इसे मैथड एक्टिंग भी कह सकते हैं. मुझे ऑन व आफ समझ में नही आता है.मेरी सोच यह है कि जब भी कोई किरदार निभाता हॅूं,तो उसके ‘सोल’ में घुस जाता हॅूं.मैं सोल तक पहुंचने का प्रयास करता हॅूं,अब मैं कहां तक सफल होता हॅूं,यह तो दर्शक तय करते हैं.लेकिन मैं अपनी तरफ से हर किरदार की सोल तक पहुंचते हैं.इसके लिए हमें काफी प्रैक्टिस करनी होती है.उसके मैनेरिजम और बौडी लैंगवेज को पकड़ना आवश्यक होता है. उसके थॉट प्रोसेस को समझना होता है.यदि पटकथा में नहीं लिखा होता है,तब भी मैं उसकी एक कहानी समझता हॅूं कि वह परिवार के अंदर किस तरह से रहता होगा.दोस्तों और घर से बाहर वह किस तरह से चलता होगा?किस तरह से बातें करता होगा?जब मैं ‘आज तक’ के लिए गांधी पर डाक्यूमेंट्री कर रहा था,तो गांधी जी के पुराने वीडियो देखे थे.मैंने भरसक कोशिश की कि उनकी बौडी लैंग्वेज व उनकी भाषा को पकड़ने का प्रयास किया.लोगों ने काफी तारीफ की थी.
सोशल मीडिया को लेकर आपकी क्या सोच है?
मैं सोशल मीडिया को काफी अच्छा मानता हॅूं.वैसे कुछ लोग इसे बहुत बुरा मानते हैं.जब आप पब्लिक फिगर हाते हैं,तो स्वाभाविक तौर पर लोग तरह तरह से रिएक्ट करते हैं,गालियां भी देते हैं.मेरी नजर में यदि कलाकार सोशल मीडिया का सही ढंग से इस्तेमाल करे, तो यह मुफ्त का पीआर है. मसलन मैं अपने हर काम की जानकारी सोशल मीडिया पर देता रहता हॅूं.बेमतलब कुछ नहीं लिखता. अपने काम या अभिनय से जुड़ी कोई बात हो. फेशबुक पर मेरे दो पेज हैं. एक वेरीफाइड पेज हैं और दूसरा नॉर्मल है. नॉर्मल पेज पर मैं कभी कुछ अपनी जिंदगी के बारे में लिख भी देता हॅूं, लेकिन वेरीफाइड पेज पर सिर्फ मेरा काम नजर आएगा.देखिए,हकीकत यही है कि सोषल मीडिया को इन दिनों हर कोई देख रहा है.आज की तारीख में यह काफी सशक्त हो गया है.यूट्यूब हो या इंस्टाग्राम हो या ट्वीटर हो,इस पर सिर्फ भारत के लोग ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया आपको देख रही है.कमाल की बात यह है कि सोशल मीडिया के फालोवअर्स के आधार पर कलाकार का फिल्म या सीरियल या वेब सीरीज के लिए चयन भी होने लगा है.अब यह तरीका सही है या गलत,इस पर मैं कुछ नही कह सकता.
तमाम लोग यूट्यूब पर अपना चैनल षुरू कर कंटेंट बनाकर पैसा कमा रहे हैं. लेकिन किसी भी चीज की अति नहीं होनी चाहिए. आपने एकदम सही. आज कल सोशल मीडिया के फालोवअर्स की संख्या बल पर कलाकार को काम दिया जा रहा है.जिसके चलते कई बार प्रतिभाशाली कलाकार को काम नहीं मिल पाता और यह रवैया कहीं न कहीं सिनेमा को बर्बादी की ओर ले जा रहा है?
मेरी राय में किसी भी कलाकार के फालोवअर्स के संख्या बल के आधार पर फिल्म सफल या असफल नही होती.फिल्म की सफलता तो उसकी गुणवत्ता पर निर्भर करती है. कलाकार किसी भी इंस्टीट्यूट से हो,इसका भी असर नही होना चाहिए. फिल्म,सीरियल या वेब सीरीज के लिए कलाकार का चयन उसकी अभिनय प्रतिभा के बल पर पूरी पारदर्शिता के साथ होनी चाहिए. अच्छे कलाकार को ही प्राथमिकता देना चाहिए.मेरी राय में फिलहाल औडीशन से बेहतर कोई रास्ता नही है.
ऑडीशन के दौरान कलाकार की प्रतिभा का आकलन हो जाता है.जो बड़े कलाकार हैं,जिनके साथ निर्देषककई बार काम कर चुके होते हैं,तो उनके औडीशन की जरुरत नही होती है.मैं यह नही मानूंगा कि हर जगह सिर्फ सोशल मीडिया के फालोवअर्स के बल पर ही काम दिया जा रहा हो.आज भी भारतीय सिनेमा में प्रतिभा की कद्र की जा रही है.कास्टिंग डायरेक्टर कलाकार का औडीशन लेने के बाद ही उसका चयन करता है.यह पारदर्शिता हर जगह होनी चाहिए.
आप बिहार से है और हिंदी आपकी मातृभाषा है.पर कई लोग मानते हैं कि हिंदी की वजह से काम करना मुश्किल होता है? आपके अनुभव..?
-देखिए,जब तक मैं दिल्ली में थिएटर कर रहा था,तब तक मेरा हिंदी उच्चारण एकदम शुद्ध नही था.भोजपुरी टच था. कुछ शब्दों का उच्चारण गलत होता था. मसलन ‘स’ व ‘श’ में अंतर नहीं होता था.पर सुमित टंडन ने मेरे उच्चारण दो-ुनवजया को खत्म करने में काफी मदद की. सुमित टंडन एनएफडीसी के निर्देशक रहे.राज्यसभा व लोकसभा टीवी में रहे. वह हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं में दूरदर्शन पर समाचार पढ़ा करते थे.उन्होंने मेरे हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं में मेरे उच्चारण दो-ुनवजया को ठीक कराया.इसके अलावा थिएटर करते समय स्क्रिप्ट रीडिंग के दौरान निर्देशक हमारा उच्चारण दो-ुनवजया ठीक कराता ही है.उस वक्त हम सीखते है कि नुक्ता कहां लगाना है और कहां नही लगाना है.इसके अलावा उस वक्त वह हमें हिंदी के अखबार व पत्रिकाएं भी पढ़ने पर जोर देते थे.तो मैंने अपने हिंदी उच्चरण को सुधारने के लिए काफी प्रैक्टिस की.
मेरा सवाल है कि हिंदी भाषा होने से बौलीवुड में काम करना कितना आसान होता है?
-देखिए,बौलीवुड में हिंदी में ही फिल्में बनती हैं, इसलिए हिंदी भाषा होना फायदे की बात है.माना कि यहां पर वर्क कल्चर में अंग्रेजी का प्रभाव है.पर मैंने तो दिल्ली में रहते हुए कई अंग्रेजी नाटकों में अभिनय किया है.माना कि कुछ हिंग्लिश फिल्में भी बन रही है.फिर भी मैं नहीं मानता कि कलाकार के अंग्रेजी आना जरुरी है.बशर्ते कलाकार बिना किसी हीनग्रंथि का शिकार हुए हिंदी में बात करे.क्या हिंदी बोलना शर्म की बात है?जी नहीं..यह बात हर कलाकार को अच्छी तरह से समझनी होगी.जो लोग मानते हैं कि बिना अंग्रेजी सीखे बिना हिंदी फिल्मों में काम नही मिलेगा,उनकी सोच गलत है. मैं ऐसा नहीं मानता.मैं तो हर जगह फर्राटेदार हिंदी में ही बात करता हॅूं.लोग तो मेरी तारीफ करते है कि में कितनी अच्छी हिंदी बिना हिचक के बोलता हूं. हिंदी मेरी मातृभाषा है,मातृभाषा में बात करने में शर्म कैसी?मैं देसी अंग्रेज नही हॅूं. मुझे अंग्रेज क्यों बनना है? नहीं बनना है.
कोई ऐसा किरदार है,जिसे आप निभाना चाहते हों?
कोई ऐसा एक किरदार तो नही है.मगर जब हम किरदार का विष्लेषण करते हैं,तो हमारे दिमाग में कई किरदार आते हैं.ईश्वर करे कि कभी मुझे ‘गॉड फादर’ का किरदार निभाने का अवसर मिले. मैं इफरान खान का फैन रहा हॅूं,जिस तरह के किरदार उन्होंने निभाए हैं,उस तरह के किरदार निभाने को मिल जाएं.मेरी इच्छा सदैव चुनौतीपूर्ण किरदार निभाने की होती है.एक कलाकार की असली प्रतिभा चुनौतीपूर्ण किरदार निभाने में ही निखरती है.पर जब तक निर्देशक को कलाकार की प्रतिभा पर विश्वास नहीं होगा,तब तक चुनौतीपूर्ण किरदार मिलना ही मुष्किल है.मैं तो हर निर्देषक व हर कास्टिंग डायरेक्टर से गुजारिश करता हॅूं कि वह एक बार मुझे चुनौतीपूर्ण किरदार निभाने का अवसर देकर देखें कि मैं क्या कर पाता हूं.
आपके शौक क्या हैं?
लिखने का शौक है.कभी मैं कविताएं लिखा करता था.मैंने एक फिल्म की पटकथा भी लिख रखी है.तो जब भी समय मिलता है,कुछ न कुछ लिखता रहता हॅूं.तरह तरह के व्यंजन बनाने व खाने का शौक है.जिंदगी में बेवजह की भागादौड़ी करने में यकीन नहीं रखता. मुझे अतीत या भविष्य में नहीं,वर्तमान में ही जीना पसंद है.