इंटेलेक्चुअल आतंकवाद की कलई खोलने के साथ साथ आदिवासियों की भलाई की बात करने वाले नक्सली किस तरह महज खून की नदियॉं बहाने के लिए भोलेभाले आदिवासियों को नुकसान पहुॅचाने के साथ साथ उनका षोशण करते है,इस बात को रेखांकित करने वाली फिल्म का नाम है-‘‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’’. फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री ने अपनी इस फिल्म के माध्यम से यह भी बताने का प्रयास किया है कि राजनेता और नक्सलियों की मिली भगत से आदिवासियों का भला नहीं हो पा रहा है.
फिल्म‘बुद्धा इन ट्रैफिक जॉम’’की कहानी षुरू होती है बस्तर से.जहॉं एक रानीतिक पार्टी का नेता नन्हें सिंह आदिवासी की पिटाई यह कह कर करता है कि वह सरकार के साथ नही बल्कि नक्सलियों के साथ है.तो वहीं नक्सल प्रमुख गोपाल सिंह उसी आदिवासी की पिटायी कर उसके बेटे को उठा ले जाता है कि वह नक्सलियो की बजाय सरकार के साथ है. उधर दिल्ली के आईएमएम के प्रोफेसर प्रोफेसर राजन बाटकी(अनुपम खेर)एमबीए के विद्यार्थियों को जो शिक्षा दे रहे है,वह भी हर विद्यार्थी को क्रांतिकारी या यॅूं कहे कि कॉमरेड बनाना चाहते है.
कहानी आगे बढ़ती है तो पता चलता है कि राजनेता नन्हें सिंह,नक्सल चीफ और प्रोफेसर राजन तीनो एक साथ पढे़ हुए हैं और तीनो ने योजना बनाकर अलग अलग जगह व कार्यक्षेत्र चुने.इनका मकसद वाम विचार धारा का प्रसार,सरकार को अस्थिर करना और सड़को पर खून की नदियॉं बहाते हुए सिविल वार करना है.जब प्रोफसर राजन के विष्वविद्यालय का होनहार छात्र विक्रम पंडित (अरूणोदय सिंह),अचानक सफलता पूर्वक सोशल मीडिया पर कट्टरपंथियों के खिलाफ नैतिकता को लेकर आंदोलन चलाकर सूर्खियों आ जाता है तो प्रोफेसर राजन उसे कामरेड बनाकर अपनी योजना का हिस्सा बनाते हुए क्रांतिका अगुवाकर बनाना चाहते हैं.इसलिए वह उसके साथ एक खेल शुरू करते हैं.पता चलता है कि प्रोफेसर राजन की असलियत से अनजान राजन की पत्नी शीतल बाटकी(पल्लवी जोषी)आदिवासियों की मदद के लिए एनजीओ चला रही चारू सिद्धू(माही गिल )को ‘द पॉटरी क्लब’’के नाम पर सरकार से डोनेशन लेकर देती रहती है.इस बार 22 करोड़ रूपए मिलने वाले है,मगर अचानक सरकार की जॉच एजंसियों को पता चलता है कि एनजीओ नक्सलियो को धन पहुॅचा रहे है.और तभी पता चलता है कि चारू भी नक्सली चीफ की दाहिना हाथ है.बहरहाल,.विक्रम को अहसास होता है कि वह एक एसी साजिश का हिस्सा बनने वाले थे,जिससे उनकी अपनी जिंदगी के साथ साथ देश भी खतरे में पड़ जाता.
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