फिल्म उद्योग और कानूनी विशेषज्ञों की राय में फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया को नियमित, उस में सुधार करने और उसे व्यवस्थित करने के बजाय सरकार का अध्यादेश के जरिए ‘एफसीएटी’ का उन्मूलन करना फिल्म प्रमाणीकरण प्रक्रिया को और अधिक अड़चनों वाला बनाएगा. अब यह प्रक्रिया काफी महंगी हो जाएगी और वक्त भी ज्यादा लगेगा. मौजूदा केंद्र सरकार तमाम संस्थाओं को नेस्तानाबूद करने पर उतारू है. अभी दिसंबर 2020 के तीसरे सप्ताह में सरकार ने बाल फिल्म समिति, फिल्म्स डिवीजन, फिल्म समारोह निदेशालय और नैशनल फिल्म आर्काइव औफ इंडिया आदि का सिनेमा का विकास व बेहतरी के नाम पर राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम में विलय कर दिया था.
उस वक्त अधिकांश लोगों ने इस का समर्थन किया था. जबकि फिल्म उद्योग के कुछ लोगों की राय में सभी 4 संस्थाओं के साथ ही राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम को भी बंद कर दिया जाना चाहिए. लोगों की राय में ये पांचों संस्थान सफेद हाथी हैं. इन संस्थाओं ने सिनेमा के विकास में कोई योगदान नहीं दिया. राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम पर तो 2014 से ही कई तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लगातार लगते रहे हैं. अब सरकार ने ट्रिब्यूनल सुधार अध्यादेश 2021’ ला कर फिल्म सर्टिफिकेट अपीलिएट ट्रिब्यूनल (एफसीएटी) सहित 12 संस्थाओं को बंद कर दिया. परिणामतया अब लोगों को ट्रिब्यूनल के बजाय हाईकोर्ट जाना पड़ेगा. अब तक केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रताडि़त फिल्मकार अपनी समस्या के समाधान के लिए तटस्थ संस्था के रूप में एफसीएटी के पास जाया करते थे. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड तो 1952 से कार्यरत है मगर एफसीएटी की शुरुआत 1983 में हुई थी. एफसीएटी के बंद किए जाने पर हम ने बौलीवुड की कई हस्तियों से बात की. पर इन हस्तियों की राय से पहले जरूरी है यह सम झने की कि हमारे यहां किसी भी फिल्म के सिनेमाघरों में पहुंचने तक केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से ले कर एफसीएटी तक की क्या भूमिका है. नियमानुसार हर फिल्म निर्माता अपनी फिल्म को सैंसर बोर्ड से पारित कराने के बाद ही फिल्म को सिनेमाघर में या सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकता है.
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इसलिए निर्माता सर्वप्रथम भारीभरकम फीस जमा कर सैंसर बोर्ड से अपनी फिल्म को पारित करने की मांग करता है. तब सैंसर बोर्ड की परीक्षण समिति (इस में 4 एडवायजरी पैनल सदस्य व एक सैंसर बोर्ड का अफसर होता है) बैठ कर फिल्म देखती है और सैंसर बोर्ड की गाइडलाइंस की व्याख्या करते हुए उस फिल्म के संदर्भ में एक निर्णय लेती है. परीक्षण समिति के निर्णय से उसी वक्त सैंसर बोर्ड का अफसर फिल्म के निर्माता या निर्देशक को मौखिक रूप से अवगत कराता है. फिल्मकार अपने तर्क दे कर दृश्यों को न काटे जाने का अनुरोध करता है, लेकिन अंतिम निर्णय परीक्षण समिति लेती है. परीक्षण समिति का लिखित निर्णय मिलने के बाद यदि फिल्मकार संतुष्ट नहीं होता है तो वह एक बार फिर लंबीचौड़ी रकम जमा कर रिवाइजिंग कमेटी के सामने अपील करता है. रिवाइजिंग कमेटी (इस में सरकारी अफसर, 8 एडवायजरी पैनल सदस्य और एक सैंसर बोर्ड सदस्य होते हैं) भी फिल्म को देख कर अपना निर्णय देती है. इस बार भी असंतुष्ट होने पर निर्माता अपनी फिल्म को पारित कराने के लिए वकील की सेवा ले कर दिल्ली स्थित एफसीएटी में भारीभरकम रकम जमा कर याचिका दायर करता है.
ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष हाईकोर्ट के अवकाशप्राप्त जज व 4 सदस्य फिल्म देख कर अपना निर्णय सुनाते हैं. एफसीएटी के निर्णय से असंतुष्ट होने के बाद निर्माता अपने शहर के हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाता है. उस के बाद उस के पास सुप्रीम कोर्ट जाने का भी विकल्प रहता है. इस से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक निर्माता करोड़ों रुपए अपनी जेब से या ब्याज पर कर्ज ले कर फिल्म बनाने के बाद किस तरह बारबार परेशान होता रहता है. फिलहाल जो नियम है, उस के अनुसार सैंसर बोर्ड में फिल्म पारित कराने की अर्जी देने के 68 दिनों के भीतर सैंसर बोर्ड की परीक्षण समिति उस फिल्म को देखती है और अपना निर्णय सुनाती है. उस के बाद रिवाइजिंग कमेटी अपनी सुविधानुसार निर्णय लेती है. फिर ट्रिब्यूनल में भी वक्त की बरबादी होती है. हर कदम पर निर्माता की जेब से पैसे भी जाते हैं. निर्माता ने कई तरह की परेशानियों को झेलते हुए फिल्म बनाई होती है, उस पर फिल्म को जल्द से जल्द प्रदर्शित करने का दबाव होता है. परिणामतया, हर निर्माता अपनी हैसियत व मजबूरी के तहत सम झौते भी करता है वरना कई निर्माताओं की फिल्में बैन भी हो जाती हैं.
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फिल्म निर्माता अपनी फिल्म के प्रचार पर करोड़ों रुपए खर्च कर चुका होता है, तो वह जल्द से जल्द अपनी फिल्म को सैंसर बोर्ड से पारित कराने के उपाय अपनाता है, जुगाड़ करता है. ऐसे में कहीं न कहीं भ्रष्टाचार का पनपना स्वाभाविक है. हम ने अकसर देखा है कि कुछ दिग्गज फिल्मकारों की फिल्में सैंसर बोर्ड से महज एक सप्ताह में पारित हो जाती हैं. दरअसल होना यह चाहिए कि सैंसर बोर्ड के एडवायजरी पैनल में सिनेमा से जुड़े कुछ लोगों के अलावा शिक्षाविद, वकील सहित समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व हो लेकिन यह देखा गया है कि इन में केंद्र की सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल के चमचों आदि की संख्या सर्वाधिक होती है जो दूसरे सदस्यों को अपने हिसाब से चलने के लिए मजबूर करते हुए अपने राजनीतिक दल की सोच को सर्वोपरि रख कर ही सारे निर्णय लेते हैं.
इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि एफसीएटी की वजह से ही दर्शकों तक कई फिल्में पहुंच सकीं, वरना सीबीएफसी ने तो इन फिल्मों को बैन कर दिया था. कुशान नंदी निर्देशित फिल्म ‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ में सीबीएफसी ने 48 कट दिए थे, मगर एफसीएटी ने महज 8 कट के साथ ‘ए’ प्रमाण दे दिया. सीबीएफसी ने अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरका’ को बैन कर दिया था, मगर एफसीएटी ने एक लंबे सैक्स दृश्य को छोटा कर के ‘ए’ प्रमाणपत्र दे दिया. लेकिन अब एफसीएटी को निरस्त किए जाने के बाद हर निर्माता सैंसर बोर्ड की परीक्षण समिति व रिवाइजिंग कमेटी के बाद सीधे हाईकोर्ट जा सकेगा. इस तरह मुंबई या मद्रास से दिल्ली जाने, होटल में रुकने, वकील की फीस देने के अलावा ट्रिब्यूनल की फीस देने सहित कई खर्च व समय की बचत होगी. इस आधार पर कई निर्माता इस निर्णय से खुश हैं. मगर कुछ लोगों की राय में जो ‘ट्रिब्यूनल’ में जुगाड़ फिट करने में माहिर रहे हैं, उन्हें एफसीएटी के निरस्तीकरण से तकलीफ है.
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गौरतलब है कि फिल्म निर्माताओं को जल्द से जल्द राहत देने और उन की फिल्मों के प्रदर्शन की राह आसान करने के मकसद से 1983 में तत्कालीन सरकार ने एफसीएटी का गठन किया था. इस से सीबीएफसी के निर्णयों के खिलाफ अपील करने वाले परेशान निर्माताओं की समस्या का समाधान अतिशीघ्र हो जाया करता है. मगर अब एफसीएटी के निरस्तीकरण के बाद हर व्यथित फिल्म निर्माता को हाईकोर्ट से संपर्क करना पड़ेगा जिस का मतलब है कि समय व पैसे का ज्यादा से ज्यादा खर्च होना. बता दें कि केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग सिंह ठाकुर ने इस बिल को फरवरी माह में लोकसभा में पेश किया था. इस बिल के लोकसभा व राज्यसभा से पारित होने के बाद राष्ट्रपति ने 7 अप्रैल की शाम अध्यादेश जारी कर दिया. उस के बाद विशाल भारद्वाज, हंसल मेहता सहित ‘ट्विटर के कुछ वीर धुरंधर’ फिल्मकारों ने आननफानन ट्विटर पर अपनी राय व्यक्त करते हुए सरकार के इस कदम को गलत बताने में देर नहीं की. एफसीएटी के खत्म किए जाने का अध्यादेश जारी करते ही हंसल मेहता ने ट्वीट कर लिखा,
‘‘क्या हाईकोर्ट के पास फिल्म प्रमाणन से जुड़े विवादों के निबटारे के लिए समय है? कितने निर्माताओं के पास हाईकोर्ट तक पहुंचने के साधन हैं? एफसीएटी को अचानक बंद किया गया. इस दुर्भाग्यपूर्ण वक्त पर क्यों? ये सारे निर्णय अचानक क्यों?’’ जबकि विशाल भारद्वाज ने ट्वीट किया, ‘‘सिनेमा के लिए दुखद दिन. एफसीएटी को बंद कर दिया गया.’’ फिल्म ‘समीर’ के निर्मातानिर्देशक दक्षिण छारा ने लिखा, ‘‘मेरी फिल्म ‘समीर’ को एफसीएटी ने मंजूरी दी थी. फिल्म निर्माता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण दिन. एफसीएटी को सामान्यतया उदार निकाय के रूप में माना जाता है जो फिल्मों को समग्रता से देखता है न कि आप के राजनीतिक बिंदु से.’’ फिल्म उद्योग और कानूनी विशेषज्ञों की राय में फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया को नियमित, उस में सुधार करने और उसे व्यवस्थित करने के बजाय अध्यादेश द्वारा एफसीएटी का उन्मूलन वास्तव में फिल्म प्रमाणीकरण प्रक्रिया को और अधिक अड़चनों वाला बनाएगा.
अब यह प्रक्रिया काफी महंगी हो जाएगी और वक्त भी ज्यादा लगेगा. भारतीय अदालतें पहले से ही मामलों के बो झ तले दबी हुई हैं. तो वहीं सीबीएफसी की चेयरपर्सन रह चुकीं, अपने समय की चर्चित अदाकारा, शर्मिला टैगोर ने कहा, ‘‘यह निर्णय बिना किसी चर्चा के एकतरफा लिया गया है. हितधारकों के साथ बिना किसी परामर्श के इसे क्यों खत्म कर दिया गया? यह उत्पादकों के हित में नहीं है. एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एफसीएटी अच्छा काम कर रही थी. सीबीएफसी के निर्णय से नाखुश निर्माता एफसीएटी चला जाता था. यह एक पुल की तरह था जो अदालत जाने से कम खर्चीला था, जहां दोनों पक्षों को सुन कर एक सौहार्दपूर्ण समाधान दिया जा रहा था.’’
शर्मिला टैगोर अपनी जगह सही हो सकती हैं मगर 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद कई निर्माता एफसीएटी को नजरअंदाज करते हुए सीधे अदालत के दरवाजे खटखटाने लगे थे. फिल्मकार अनुराग कश्यप ने भी सैंसर बोर्ड से विवाद होने के बाद अपनी फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ को मुंबई हाईकोर्ट से ही पारित करवाया था और उस वक्त के सीबीएफसी चेयरमैन पहलाज निहलानी ने फिल्म को दिए गए प्रमाणपत्र में लिखा था, ‘‘हाईकोर्ट के आदेश पर यह प्रमाणपत्र जारी किया गया.’’ उधर, फिल्मकार प्रकाश झा कहते हैं, ‘‘फिल्म निर्माता किसी भी तरह अपनी फिल्मों के साथ उच्च न्यायालयों में भाग रहे थे. उस के लिए उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच प्रमुख महत्त्व की है. फिल्म निर्माताओं के लिए एक कानूनी सहारा खुला होना चाहिए.
यह प्रक्रिया सरकार द्वारा विभिन्न फिल्म निकायों को कम बो िझल करने के बड़े अभियान का हिस्सा हो सकती है.’’ यहां तक कि सीबीएफसी के चेयरमैन रहते हुए पहलाज निहलानी से कई फिल्मकार नाराज हुए थे. पर उस के बाद जब पहलाज निहलानी ने 2018 में फिल्म ‘रंगीला राजा’ बनाई तो उन्हें भी अपनी फिल्म को पारित कराने के लिए एफसीएटी में जाना पड़ा था. फिल्म निर्माता मुकेश भट्ट ने एफसीएटी के निरस्तीकरण को सरकार का तानाशाही रवैया करार देते हुए कहा, ‘‘यह फैसला अब फिल्मकार की रचनात्मकता को खत्म कर देगा.’’ सिनेमा को देश का सांस्कृतिक दूत माना जाता है. यह तभी पल्लवित हो सकता है जब सिनेमा व फिल्मकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली हो.
वहीं, जब उस पर बंदिशें हों तो सिनेमा महज उस देश की सरकार का प्रोपेगंडा मात्र बन कर रह जाता है. अब तक के अनुभवों व केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की कार्यशैली के जानकारों की मानें तो अब फिल्मकार पर सीबीएफसी की कई बंदिशें व उस का तानाशाही रवैया झेलना पड़ेगा, जिस के चलते उन्मुख सिनेमा के बनने की कल्पना करना बेकार होगा. जानकारों की मानें तो अब सीबीएफसी में भ्रष्टाचार का बोलबाला होगा. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड में अहम बदलाव यह होना चाहिए कि इस की परीक्षण व रिवाइजिंग कमेटी के सदस्यों में राजनीतिक दलों या फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों की बनिस्बत वकील, शिक्षक, पत्रकार, प्रोफैसर, मनोचिकित्सक, बाल मनोचिकित्सक सहित समाज के विभिन्न वर्गों से जुड़े लोगों का समावेश हो. वैसे एफसीएटी के निरस्तीकरण से अब फिल्मकार की अभिव्यक्ति और रचनात्मक स्वतंत्रता पर हथौड़ा चलने से भी इनकार नहीं किया जा सकता. इतना ही नहीं,
अब हो सकता है कि सरकार के इशारे पर एक खास तरह का सिनेमा ही दर्शकों तक पहुंच पाए क्योंकि हर फिल्म निर्माता के पास हाईकोर्ट के दरवाजे खटखटाने की क्षमता हो, यह संभव नहीं. द्य सीबीएफसी ही नहीं, फिल्म निर्माता व निर्देशक भी दोषी सीबीएफसी में तमाम गड़बडि़यां हैं. हर माह कई निर्माता सीबीएफसी द्वारा प्रताडि़त किए जाने के आरोप भी लगाते रहे हैं. मगर परीक्षण समिति के ही एक सदस्य की मानें तो इस के लिए कुछ हद तक निर्माता व निर्देशक भी दोषी हैं. उस सदस्य के अनुसार, हर फिल्मकार सैंसर बोर्ड जाते हुए यह मान कर चलता है कि बोर्ड उस की फिल्म के कुछ दृश्यों पर कैंची चलाएगा और उसे सदस्यों से झगड़ना ही है. फिल्म को प्रमाणित करते हुए फिल्मकार स्वयं अपनी रचनात्मकता को भूल कर सैंसर बोर्ड को अपनी मनमानी करने के लिए विवश करते हैं. यदि हर फिल्मकार अपनी फिल्म के हर दृश्य को रचनात्मक स्तर पर बचाने का प्रयास करते हुए दृश्य की कहानी में जरूरत की बात करे तो काफी समस्याएं खत्म हो सकती हैं.
हर फिल्मकार को यह मान कर चलना चाहिए कि सैंसर बोर्ड की परीक्षण समिति का हर सदस्य फिल्मकार को परेशान नहीं करता. सीबीएफसी में भ्रष्टाचार की बानगी हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं, ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा.’ ऐसे में स्वाभाविक सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार खत्म हो गया. जी नहीं. जान लें कि सीबीएफसी में भ्रष्टाचार खत्म करने के दावे पूर्व चेयरमैन पहलाज निहलानी ने भी किए थे और अब वे मानते हैं कि सीबीएफसी में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. लेकिन वर्तमान चेयरमैन प्रसून जोशी का दावा है कि सीबीएफसी के अंदर भ्रष्टाचार खत्म हो चुका है, हर काम पूरी पारदर्शिता के साथ किया जा रहा है. मगर, सूत्रों की मानें तो यह पूर्ण सत्य नहीं है. दूसरी बानगी, थिएटर में परीक्षण समिति के चारों सदस्यों के पहुंचने पर वहां मौजूद सीबीएफसी के अफसर कहते हैं, ‘‘
हम आज जिस फिल्म को देखने जा रहे हैं, इस के निर्माता या निर्देशक के चेयरमैन से काफी अच्छे संबंध हैं. अथवा इस फिल्म के निर्माता की फलां मंत्री तक पहुंच है. सदस्य फिल्म देख कर अपना निर्णय दें, उस से पहले ही सदस्यों को इस तरह की जानकारी दे कर उन पर मानसिक दबाव बढ़ाने के क्या माने हो सकते हैं, सम झा जा सकता है. सरकार का यह निर्णय कई दशक पीछे ले जाने वाला है -कुशान नंदी, फिल्म निर्देशक ‘दो लफ्जों की कहानी’ सहित 9 टीवी सीरियलों तथा ‘88 एंटौप हिल’, ‘हम दम’ और ‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ जैसी फिल्मों के निर्देशक कुशान नंदी का सैंसर बोर्ड/केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के साथसाथ ट्रिब्यूनल से भी साबका पड़ चुका है. कुशान नंदी को अपनी पिछली फिल्म ‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ को पारित कराने के लिए ट्रिब्यूनल जाना पड़ा था. सरकार द्वारा ट्रिब्यूनल को बंद किए जाने पर प्रतिक्रिया देते हुए कुशान नंदी कहते हैं, ‘
‘मेरी सम झ से सरकार द्वारा ट्रिब्यूनल को बंद किए जाने का निर्णय सही नहीं है. मेरी पिछली फिल्म ‘बाबू मोशाय बंदूकबाज’ को ले कर जब मैं ट्रिब्यूनल पहुंचा था तो मेरा मसला महज कुछ घंटों में ही सुल झ गया था. उन दिनों सैंसर बोर्ड के चेयरमैन पहलाज निहलानी थे और सैंसर बोर्ड ने हमारी फिल्म में 48 कट किए थे. जबकि एफसीएटी ने सिर्फ 5 कट किए. मेरी सम झ से फिल्मकारों की रचनात्मक स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिए ट्रिब्यूनल एक अधिक तटस्थ और उदार संस्था रही है.’’ सरकार ने ट्रिब्यूनल को बंद किया, इस के पीछे सरकार की मंशा क्या हो सकती है? इस संदर्भ में कुशान नंदी ने कहा, ‘‘सच कहूं तो ट्रिब्यूनल को बंद करने के पीछे सरकार की मंशा के बारे में मु झे पता नहीं है क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार सरकार की तरफ से अभी तक कोई ऐसी प्रैस विज्ञप्ति नहीं आई है जिस से वजह पता चले. हालांकि, सरकार का यह निर्णय हमें कुछ दशक पीछे ले जाने वाला है. अब जिन फिल्मकारों को सैंसर बोर्ड से समस्या होगी,
उन्हें उस समस्या से नजात पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा और आप तथा हम अच्छी तरह से सम झते हैं कि अदालत का दरवाजा खटखटाना हर फिल्म निर्माता व निर्देशक के लिए संभव नहीं होगा.’’ सरकार बेहतर कदम उठाएगी -सुनील दर्शन, फिल्म निर्माता 35 वर्ष के फिल्मी कैरियर में ‘इंतकाम’, ‘लुटेरे’, ‘अंदाज’, ‘बरसात’, ‘मेरे जीवन साथी’, ‘शाकालाका बूमबूम’ से ले कर‘एक हसीना थी एक दीवाना था’ तक तकरीबन 14 फिल्मों का निर्माण कर चुके फिल्म निर्माता सुनील दर्शन साफसाफ कहते हैं, ‘‘इस संदर्भ में अभी कानूनी सलाह लेनी पड़ेगी. इस की व्याख्या क्या होगी, इस के लाभ व नुकसान क्या हैं, इस पर अभी लोगों को बैठ कर सम झने की आवश्यकता है. ‘‘मैं हमेशा यही एहसास करता हूं कि सरकार फिल्म इंडस्ट्री की बेहतरी के लिए ही कदम उठाएगी. मैं चाहूंगा कि सरकार का यह कदम फिल्म इंडस्ट्री के हित में हो. आप ने देखा है कि पिछले 15 वर्षों के अंतराल में कितनी बड़ीबड़ी कौर्पोरेट कंपनियां इस इंडस्ट्री में आईं और फिर गायब हो गईं.
इस का मतलब है कि फिल्म इंडस्ट्री के अंदर कुछ तो गड़बड़ है जो इंडस्ट्री को अंदर ही अंदर जड़ से खोखला कर रही है. ‘‘जहां तक फिल्मों की सैंसरशिप का सवाल है, तो मैं हमेशा चाहता हूं कि सैंसरशिप के कायदेकानून लिबरल जरूर होने चाहिए पर सैंसरशिप अनिवार्य है.’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘पहले फिल्म की कहानियां अच्छाई को ले कर हुआ करती थीं, पर अब नैटफ्लिक्स वगैरह पर जो कुछ आ रहा है उस में नैगेटिविटी हावी है. इस का असर समाज पर गलत हो रहा है. सच कहूं तो अब हिंदुस्तानी सिनेमा आयातित कंटैंट पर बन रहा है. मेरा सिनेमा एक दायरे में बनता था. इसी वजह से मु झे ट्रिब्यूनल तक नहीं जाना पड़ा. मगर इस के ये माने नहीं हैं कि मैं ने सैंसरशिप की समस्या न झेली हो. जब पूरे देश में भ्रष्टाचार था तो वह सैंसरबोर्ड में भी था.’’