हर इंसान को सपने देखने और उन्हे पूरा करने के लिए मेहनत करने का हक है. हर इंसान मेहनत के बल पर अपने सपनों को पूरा कर सकता है. कुछ लोग आपके सपनों को पंख लगाने में मददगार साबित होंगे. इस तरह का सकारात्मक संदेश देने वाली ‘‘निल बटे सन्नाटा’’ मां व बेटी के अनोखे रिश्तों को भी पेश करती है. फिल्म में गणित जैसे अति शुष्क विषय को भी मनोरंजक तरीके से पढ़ाया व पढ़ा जा सकता है, इस बात को भी यह फिल्म रेखांकित करती है. तो वहीं शिक्षा व्यवस्था पर कटाक्ष भी करती है.
फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ की कहानी उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में लोगों के घरों में जाकर काम करने वाली बाई उर्फ चंदा सहाय (स्वरा भास्कर) और उनकी बेटी अपेक्षा (रिया शुक्ला) के इर्द गिर्द घूमती है. मां बेटी के बीच बड़ा प्यारा सा रिश्ता है. मगर चंदा सहाय को अपनी बेटी की शिक्षा की चिंता सताती रहती है. वह इस बारे में अक्सर अपनी एक घर की मालकिन व डाक्टर (रत्ना पाठक शाह) से जिक्र करती रहती है. डाक्टर मैडम अपनी बातों से चंदा की चिंता खत्म कर देती हैं. जब अपेक्षा दसवीं में पहुंचती है, तो चंदा की चिंता बढ़ जाती है. चंदा को पता है कि की उसकी बेटी गणित विषय में बहुत कमजोर है. उसे पास अपनी बेटी को ट्यूशन पढ़वाने के लिए धन नहीं है. उधर अपेक्षा का मन पढ़ाई में कम टीवी देखने, गाने सुनने,नाचने व खेल में ज्यादा लगता है. क्योंकि उसके दिमाग में शुरू से यह बात भरी हुई है कि डाक्टर का बेटा डाक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर और बाई की बेटी को बाई ही बनना है.
एक दिन जब चंदा प्यार से अपेक्षा से पूछती है कि वह क्या बनना चाहती है, तो अपेक्षा यही बात कह देती है. इससे चंदा के सारे सपने चूर हो जाते हैं. वह कभी नहीं चाहती कि उसकी बेटी भी उसी की तरह घर घर जाकर काम करने वाली कामवाली बाई बने. वह तो अपनी बेटी को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहती है. डाक्टर मैडम एक सलाह देने के साथ साथ जिस सरकारी स्कूल में अपेक्षा पढ़ती है, उसी सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल श्रीवास्तव (पंकज त्रिपाठी) से मिलकर दसवीं कक्षा में चंदा को प्रवेश दिलवा देती है. यह बातअपेक्षा को अच्छी नहीं लगती.
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