कम से कम कलाकारों को ले कर बनाई गई यह फिल्म डौक्यूमैंट्री सरीखी लगती है. फिल्म के सभी कलाकार नए हैं. फिल्म में कोई तड़कभड़क नहीं है, न ही इस में गाने हैं. फिल्म का अधिकांश हिस्सा हरियाणा के एक गांव में शूट किया गया है. फिल्म कुछ हद तक दर्शकों को बांधे तो रखती है परंतु उन के दिमागों पर असर नहीं छोड़ पाती.

‘कजरिया’ जैसी फिल्में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में दिखाने के लिए ज्यादा बनती हैं. इस फिल्म को फोर्ब्स लाइफ मैगजीन ने साल की 5 बेहतरीन फिल्मों में शामिल किया है. भ्रूण हत्याओं पर केंद्रित यह फिल्म चौंकाती है. हमारे देश में बच्चियों की हत्याओं का आंकड़ा इतना ज्यादा है कि 1986 से अब तक 10 लाख से ज्यादा बच्चियों को या तो जन्म देने से पहले या जन्म लेने के तुरंत बाद मार दिया गया.

फिल्म बताती है कि कन्या हत्याओं का यह सिलसिला सिर्फ गांवों तक ही सीमित नहीं है, बड़े शहरों के पढ़ेलिखे लोग भी लड़की पैदा करना पसंद नहीं करते. फिल्म का विषय सचमुच बहुत अच्छा है, बहुतकुछ सोचने को मजबूर करता है. इस विषय पर महिलाओं की सोच क्या है, इस पर भी रोशनी डाली गई है. परंतु फिल्म में जो कुछ दिखाया गया है, वह सब सतही सा लगता है. ऐसा लगता नहीं कि फिल्म देख कर लोगों पर इस का कुछ असर होगा.

फिल्म की कहानी भारत के गांवों में फैले अंधविश्वासों को बयां करती है. आज गांवों के लोग भले ही पढ़लिख गए हों, फिर भी उन में अंधविश्वास कूटकूट कर भरे हुए हैं. आज भी गांवों में पुजारी और तांत्रिक गांव वालों का शोषण करते हैं. वे काली माता का खौफ दिखा कर गांव वालों का मालमता हड़पते हैं. आज भी गांव की औरतें यह मानती हैं कि बेटा ही कुल का तारक होता है.

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