फिल्म चौरंगा आम मसाला फिल्मों से अलग है. अगर आप को जमीनी हकीकत वाली फिल्में पसंद आती हैं तो यह फिल्म आप के लिए है वरना आप इस फिल्म में कुछ नहीं पाएंगे. फिल्म के निर्देशक विकास रंजन मिश्रा की यह पहली फिल्म है. निर्देशक ने फिल्म की कहानी को बिहार की पृष्ठभूमि के इर्दगिर्द बुना है. फिल्म उस दौर की बात करती है जब समाज में जाति विभाजन था. दलितों को मंदिरों में जाने नहीं दिया जाता था. वे सवर्णों के कुओं से पीने का पानी नहीं ले सकते थे. सवर्ण उन्हें तो घृणा की दृष्टि से देखते थे लेकिन उन की महिलाओं से जबरन शारीरिक संबंध बनाने में पीछे नहीं रहते थे.
निर्देशक ने दलितों के साथ होने वाले भेदभाव और बरताव को बिना लागलपेट के इस फिल्म में उठाया है. इस के बावजूद फिल्म न तो चौंकाती है न ही दर्शकों पर अपना असर छोड़ पाती है. इस की वजह है दलितों के प्रति समाज में आया परिवर्तन. आज दलितों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घटनाएं आम नहीं हैं. यदाकदा ग्रामीण अंचलों में ही होती सुनाई पड़ती हैं.
फिल्म में बहुत सी छोटीछोटी बातों को इशारोंइशारों में कह दिया गया है. कहानी 2 दलित किशोर भाइयों के इर्दगिर्द घूमती है. 14 साल का संतू (सोहम मित्रा) अपने गांव में पालतू सूअर की देखभाल करता है. वह पढ़तालिखता नहीं है. हर वक्त जामुन के पेड़ पर चढ़ा रहता है जबकि उस का भाई बजरंगी (रिद्धि सेन) पढ़ने के लिए स्कूल जाता है. संतू रोजाना स्कूल जा रही गांव के दबंग धवल (संजय सूरी) की बेटी मोना (इना साहा) को देखता रहता है और मन ही मन उस से प्यार करता है. धवल संतू की मां धनिया (तनिष्ठा चटर्जी) के बड़े बेटे बजरंगी की पढ़ाई का खर्च उठाता है. बदले में वह उस से शारीरिक संबंध भी यदाकदा बनाता रहता है. धवल को जब अपनी बेटी के बजरंगी के प्यार में पड़ने की भनक लगती है तो वह बजरंगी को पीटता है जबकि उस के आदमी संतू को पकड़ने के लिए उस के पीछे दौड़ते हैं. बजरंगी को तो मार दिया जाता है जबकि संतू मालगाड़ी के पीछे भागता हुआ उस पर चढ़ जाता है और गांव से दूर निकल जाता है.
इस फिल्म के जरिए निर्देशक ने सिर्फ यही कहने की कोशिश की है कि आज भी देश में रोजाना 2 दलित मारे जाते हैं और हर 4 घंटे में दलित महिला का कहीं न कहीं बलात्कार किया जाता है. ‘चौरंगा’ जैसी फिल्में सिर्फ फिल्म समारोहों के लिए ही बनाई जाती हैं. इस फिल्म को भी देशविदेश के फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया जा चुका है. फिल्म की जम कर प्रशंसा भी हुई है और इसे कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं. फिल्म में 2 बातें मुख्य रूप से दिखाई गई हैं. एक तरफ वासना है. दबंग धवल जब चाहे धनिया से सैक्स कर के अपनी कुंठा को मिटाता है. दूसरी ओर किशोर प्रेम है. किशोरों में सैक्स को ले कर उत्सुकता है. संतू और बजरंगी छिप कर पत्रिका में छपी मौडल्स की तसवीरें देखते हैं और लड़की के वक्षों का विकास कैसे होता है, इस बारे में किताबों से जानकारी प्राप्त करते हैं.
दबंग लोग सिर्फ दलितों की औरतों के साथ ही संबंध नहीं बनाते, वे अपनी पत्नियों तक का दमन करते हैं. फिल्म में धवल की पत्नी के दमन को भी दिखाया गया है. दबंगों के पैर छूना, अपनी वाहवाही कराना गांवों में आम है. इस फिल्म में निर्देशक ने गांव के पुजारी की धूर्तता को भी दिखाया है. वह लगभग अंधा है पर है बड़ा धूर्त. धर्म की आड़ में वह अनैतिक काम भी करता है. फिल्म में इन छोटीछोटी बातों की आड़ में निर्देशक बहुत कुछ कह गया है. फिल्म का निर्देशन अच्छा है. संजय सूरी दबंग धवल की भूमिका में जंचा नहीं है. उस का लुक दबंगों वाला नहीं लगता. तनिष्ठा चटर्जी ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है. सोहम मित्रा ने भी अच्छा काम किया है.
फिल्म का पार्श्व संगीत अनुकूल है. अधिकांश शूटिंग रात को की गई है, इसलिए फिल्म कुछ डार्क भी हो गई है.