परंपरा किस तरह इंसान के जीवन में भीषण बदलाव लाती है, इस बात को रेखांकित करने वाली फिल्म है ‘सांकल’. लेखक व निर्देशक देदिप्या जोशी ने अपनी फिल्म ‘‘सांकल’’ में एक ग्यारह वर्षीय बालक की 26 वर्षीय युवती के संग विवाह कराने के बाद किस तरह उस बालक की अगले बीस वर्ष की जिंदगी बर्बाद होती है, उसका सजीव चित्रण करते हुए एक विचारोत्तेजक फिल्म बनाई है.

फिल्म की कहानी राजस्थान में पाकिस्तानी सीमा से सटे जैसलमेर व बाड़मेर सहित थार जिले के एक गांव यानि की खेतू की धानी की है. जहां मेहर मुस्लिम समुदाय के दस बार परिवार आसपास रहते हैं, उसे गांव की बजाय धानी कहा जाता है. धानी में पंचायत व सरपंच का निर्णय ही सर्वोपरी है. इस गांव में पुलिस भी बिना सरपंच के बुलावे के नहीं जाती. इस गांव में कई दशकों से कुछ परंपराएं चली आ रही हैं, जिन्हे तोड़ने का साहस कोई नहीं कर पाया.

खेतू की धानी में प्रथा के अनुरूप ग्यारह वर्षीय केसर (समर्थ शांडिल्य) की शादी युवा 26 वर्षीय लड़की अबीरा (तनिमा भट्टाचार्य) से हो जाती है. समाज की नजर में केसर और अबीरा पति पत्नी हैं, जबकि घर के अंदर केसर का पिता उस्मान उसे बाहर भेजकर अबीरा के साथ जबरन कुकर्म करता था, जिसे अपराध नहीं माना जाता था. बेचारे केसर व अबीरा इस जुल्म को सहते थे. इस बीच केसर व अबीरा एक बेटी गुड़िया के माता पिता भी बन गए. वक्त बीतता है.

अब केसर (चेतन शर्मा) सोलह साल का हो चुका है और उसके पिता ने उसकी पढ़ाई छुड़वाकर ईंट भट्टे पर काम पर लगवा दिया है. इसी बीच उसके पिता उस्मान व्यापार के सिलसिले में पाकिस्तान गए, तो केसर व अबीरा के बीच कुछ ज्यादा ही प्यार पनपा. अब उन्हे यह बर्दाश्त नहीं था कि उनके बीच कोई वापस आए. जब केसर के पिता वापस आए और केसर को काम करने के लिए भेजकर अबीरा के साथ शारीरिक संबंध बनाने चाहे, तो केसर ने आकर इसका विरोध किया. इस पर उसके पिता ने उसे समझाने का प्रयास किया. मगर गुस्से में केसर अपने पिता के सिर पर शराब की बोजल मारता है और उनकी मौत हो जाती है.

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