‘‘सुन, मैं परसों पहुंच रही  हूं,’’ दीदी फोन पर थीं, ‘‘यहां पर  छोटे गोपाली महाराज आए हुए हैं. युवा संत और बहुत बड़े सिद्ध पुरुष हैं. कल यहां उन की संगीतमय कथा का समापन है. कोटा होते हुए, उन का उज्जैन का कार्यक्रम है. तेरे प्रमोशन का जो मामला चल रहा है उस बारे में मैं ने बात की थी. महाराज बोले कि बाधाएं हैं, हट जाएंगी. बस, तू थोड़ी सी तैयारी कर लेना. 2-4 लोग भी उन के साथ होंगे,’’ फोन कट गया था.

‘‘क्यों? क्या बात है, बड़ा लंबा फोन था?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘दीदी का वही पुराना काम. अब किसी छोटे गोपाली महाराज को ले कर परसों घर आ रही हैं.’’

‘‘क्या यहां ठहरेंगे?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘नहीं, ठहरेंगे तो किसी आश्रम में पर दीदी मुझ से मिलाने के लिए उन्हें घर लाएंगी.’’

दूसरे दिन शाम को ही जीजी का फोन आ गया.

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‘‘सुन, हम लोग आ गए हैं. मैं सावित्री आश्रम से बोल रही हूं… तुम्हारी कालोनी की सुषमाजी के घर महाराज सुबह आएंगे, फिर वहीं से तुम्हारे घर भी आने का उन का कार्यक्रम है. जगदंबा दादी और कृष्ण मोहन को भी बता देना, वरना बाद में वे मुझे उलाहना देंगे.’’

‘‘सीमा, इस कालोनी में कोई सुषमाजी हैं, दीदी उन के साथ आने को कह रही हैं. यह सुषमाजी कौन हैं?’’

‘‘अरे, वही जो संतोषी माता के मंदिर में भजन गा रही थीं. अपने खत्रीजी के घर से हैं.’’

उन का नाम आते ही मैं चौंका. मेरे सामने जलाशय विभाग के बड़े बाबू का चेहरा घूम गया.

दुबलेपतले से खत्री बाबू, हमेशा सुबह के समय अपने बच्चों के साथ घूमते हुए मिल जाते हैं. उन का बच्चा पहाड़े सुनाता चलता है. उन के तीनों बच्चे शायद दफ्तर के बाद खत्री बाबू के संगीसाथी हैं. यह राय मेरी अपनी नहीं बल्कि इस गली के सभी लोगों की है.

मैं ने थैला लिया और बाजार को चल दिया क्योंकि दीदी के आदेश के अनुसार मुझे मिठाई, मेवा और फल ले कर आने थे.

देर रात दरवाजे की घंटी बजते ही मैं समझ गया कि दीदी आ गई हैं.

दीदी ही थीं. बेहद प्रसन्न. दीदी अपने साथ आश्रम से प्रसाद लाई थीं. बच्चे उन का ही इंतजार कर रहे थे. उन्होंने थैला खोला और मिठाई का डब्बा व मेवे निकाल कर बच्चों के सामने रख दिए.

दीदी बड़े मन से गोपाली महाराज का गुणगान करते हुए कहने लगीं, ‘‘4 माह तक तो उन के पास समय ही नहीं है. एक भक्त ने जब 11,001 रुपए की भेंट दी तो बड़ी मुश्किल से महाराजजी ने अगले महीने में समय दिया है, वह भी तब जब सुषमाजी ने बहुत कहा है.

महाराज सुबह ही सुषमाजी के घर आ गए थे. वहीं दीदी भी चली गई थीं. जातेजाते भी अच्छी तरह से बता गईं कि घर को कैसे साफसुथरा कर के रखना है. उन का खास निर्देश था कि महाराज के सामने सब को जमीन पर ही बैठना होता है.

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सीमा ने कहा, ‘‘देखो, जीजी ने कहा कि मैं चाय बना दूंगी और आप को महाराज के पांव धोने हैं.’’

महाराज को साथ ले कर दीदी आ गईं. उन के साथ भक्तजन थे. लंबा कद, 35 साल के आसपास की उम्र, काले घने कंधे तक लटकते हुए केश. सफेद सिल्क का कुरतालुंगी. गोपाली महाराज के गले में छोटे रुद्राक्ष की सोने में गुथी हुई माला थी.

‘‘यह अशोक है, मेरा छोटा भाई,’’ दीदी ने कहा.

मैं ने आगे बढ़ कर चरण छुए.

महाराज बोले, ‘‘मेष राशि है जिस का मालिक मंगल होता है. आमदनी अच्छी है पर अभी राहु का प्रभाव है, तुम्हारी पत्नी का स्वास्थ्य कुछ नरम है, इसलिए परेशान हो.’’

महाराज ने अभी इतना ही बताया था कि भक्त लोगों के चेहरे खिल उठे थे.

सुषमाजी ने जयकारा लगाया तो एक तेज आवाज छोटे से ड्राइंगरूम में गूंज पड़ी.

‘‘जा,’’ दीदी ने इशारा किया तो मैं अंदर आ गया, सीमा की ओर देखा तो वह मेहमानों के लिए प्लेटों में मिठाई, मेवा व फल रख रही थी. गैस पर चाय का पानी उबल रहा था.

मैं ने चौकी उठाई और उसे कमरे में ले कर आ गया. फिर परात और लोटे में पानी ले आया.

‘‘अरे, इस की क्या जरूरत है,’’ महाराजजी बोले, ‘‘बहनजी, मैं ने तो वहां भी मना कर दिया था.’’

दीदी के आग्रह पर महाराजजी ने अपने दोनों पांव चौकी पर रखी परात में रख दिए. मैं ने लोटे से पानी डाल कर उन के धुले पांव तौलिए से साफ किए, फिर उस परात को भीतर ले चला.

अचानक ही आगे बढ़ कर सुषमाजी ने मेरे हाथ से परात ले ली और उस पानी को भक्त लोग अपनी उंगलियां डुबोडुबो कर अपने माथे और आंखों पर लगा रहेथे.

एक थाली में भोग का सारा सामान रख कर महाराज का भोग लगाया गया. महाराज शांत भाव से ध्यान मुद्रा में चले गए थे. 2 मिनट मौन रहा, फिर अचानक एक छोटी सी आरती की ध्वनि पीछे से आई. सुषमाजी का मधुर स्वर फिर से लय में गूंजने लगा था.

महाराज ने नेत्र खोले. सुषमाजी के पूरे खिले हुए चांद जैसे चेहरे को निहारते हुए उन्हें संकेत दिया तो वह तेजी से आगे बढ़ीं. उन्होंने अपनी मेवा की प्लेट उन के हाथ से सब को बांटने को पकड़ा दी तो वह पुलकित भाव से सब को प्रसाद बांटने लगीं.

महाराज कुछ समय रुके, फिर जिस भक्त के घर उन का विशेष कार्यक्रम था उस के साथ लंबी सी कार में बैठ कर चले गए.

‘‘मुझे तो दीदी का यह तरीका पसंद नहीं है,’’ सीमा झुंझला कर बोली, ‘‘तुम्हारी बड़ी बहन हैं, तुम ही करो और धूर्त संत को झेलो.

‘‘अखबार में नहीं पढ़ा, जब पाप और अपराध बढ़ जाते हैं तो महात्मा ही पैदा होते हैं. शायद इसीलिए देश में बढ़ते भ्रष्टाचार की तरह महात्मा भी बढ़ते जा रहे हैं. इस सुषमा को क्या हो गया है? देख लेना यह भी संन्यासिनी बनेगी.’’

रात को दीदी के फोन से पता चला कि वह महाराज के साथ पाटन चली गईं जहां एक कार्यक्रम है. उस में भाग ले कर वह करौली चली जाएंगी.

सुबह ही खत्रीजी ने आ कर दरवाजे की घंटी बजाई तो मैं पूछ बैठा, ‘‘क्या हुआ, खत्रीजी?’’

‘‘सुषमा नहीं है, लगता है, वह भी महाराज के साथ उज्जैन निकल गई. मैं ने तो आप से इसलिए पूछा था कि उस के साथ आप की बहन भी थीं.’’

खत्रीजी का दीनहीन चेहरा देख कर मुझे उन पर दया आ गई. मैं ने उन्हें भरोसा दिया कि मैं अपनी बहन से फोन पर बात कर के पता लगाने की कोशिश करूंगा कि सुषमाजी कहां हैं.

रात को दीदी को फोन किया तो पता चला कि वह महाराज के साथ उज्जैन चली गईं. साथ में उन्होंने यह भी बता दिया कि डरने की कोई बात नहीं है क्योंकि महाराज बहुत भले इनसान हैं.

मैं खत्रीजी के घर गया. वहां कोहराम मचा हुआ था. तीनों बच्चे गला फाड़ कर रो रहे थे. खत्री का चेहरा भी आंसुओं में डूबा हुआ था. बड़ा लड़का आले में रखी धार्मिक किताबें तथा देवीदेवताओं की तसवीरें आंगन में फेंकने जा रहा था. मुझे देखा तो रुक गया.

‘‘फोन आया,’’ खत्री ने पूछा.

‘‘हां, दीदी तो पाटन से सीधी करौली चली गई थीं, पर सुषमाजी उज्जैन चली गईं क्योंकि अब वे वहां का नया आश्रम संभालेंगी. मैं तो आप को सलाह दूंगा कि आप उज्जैन हो आएं.’’

‘‘पुलिस स्टेशन जाने की सोच रहा था,’’ खत्री बोले, ‘‘इस से बदनामी होगी यह सोच कर चुप रह गया. महल्ले वाले भी पूछने आए थे, तो मैं ने उन को यही बताया है कि आप की बहन के साथ गई हैं, आप कृपा कर…’’

‘‘दीदी का इस में कोई कुसूर नहीं है. वह तो खुद सुषमाजी से पहली बार यहीं मिली थीं.’’

‘‘हां, पर उसे समझा तो सकती थीं.’’

‘‘दीदी बता रही थीं कि उन्होंने सुषमाजी को बहुत समझाया पर उन का मन बहुत कड़ा हो चुका था. वह तो उन के सामने ही कार में बैठ कर चली गईं.’’

खत्री के यहां से लौटा तो पाया कि सीमा भी अपने भाई के साथ मायके जाने की तैयारी में है.

‘‘क्यों? तुम्हें क्या हो गया?’’

‘‘पूरे महल्ले में बदनामी हो रही है. अच्छी दीदी आईं, मैं तो मायके जा रही हूं. 2-4 दिन में बात ठंडी हो जाएगी तो आ जाऊंगी.’’

उधर उज्जैन पहुंचते ही सुषमाजी को अतिथि गृह में ठहरा दिया गया. छोटे गोपाली महाराज आश्रम की दिनचर्या में व्यस्त हो गए. उसी दिन उन के लिए भगवा रंग की सिल्क की साड़ी आ गई. केशों को ढंग से रंगने तथा खुले रखने की परंपरा और बोलते समय प्रभावोत्पादक भंगिमा की शिक्षा देने के लिए ब्यूटीशियन मोहिनीजी भी आ चुकी थीं. सुषमाजी का पूरा बदन उन की मेहनत से शाम तक निखर आया था. शाम को जब वह प्रार्थना भवन में पहुंचीं और अपने मधुर कंठ से मीरा का भजन, ‘मैं तो सांवरा के रंग राची’ गाया तो भक्त भावविभोर हो गए.

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छोटे गोपाली बाबू ने दूरदूर तक अपने गुरु भाइयों को मोबाइल पर यह सूचना दे दी थी. यही तय हुआ था कि आने वाली पूर्णमासी पर इन को दीक्षा दी जाएगी और इसी के साथ आश्रम की व्यवस्था भी सौंप दी जाएगी.

उसी रात माधवानंद ने आ कर सुषमा को जगाया जो उस समय गहरी नींद में सो रही थी.

‘‘कौन?’’

‘‘माधवानंद, आश्रम का सेवक.’’

‘‘क्या है?’’

‘‘आप के लिए यह मोबाइल पर संदेश है.’’

सुषमा ने फोन हाथ में ले कर कान से लगाया तो आवाज सुनाई पड़ी :

‘‘तुम मुझे नहीं जानतीं,’’ आवाज किसी महिला की थी, ‘‘तुम अपना घर, बच्चे क्यों छोड़ आईं, क्या पाओगी? ईश्वर…या कुछ और…सुनो, गोपाली पूरा बदमाश, व्यभिचारी है. दीक्षा का मतलब समझती हो, वह तुम्हारा सर्वस्व छीन लेगा. तुम कहीं की नहीं रहोगी. सारी उम्र पाप भावना से लड़ती रहोगी, यह सब छल है, छलावा है, इस से दूर रहो…’’

‘‘आप…’’

‘‘मैं उस की पत्नी हूं. महेश्वर से बोल रही हूं. तुम्हारी बड़ी बहन हूं. उस ने मुझे नहीं छोड़ा, मैं ने और मेरे बच्चे ने उसे छोड़ दिया है. यह आश्रम ही मेरा घर है, जमीन है. बच्चा उज्जैन में पढ़ रहा है, उस ने ही बताया था.

‘‘तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बिना रह नहीं पाएंगे, बहन. घर जाओ और हां, जब छुट्टियां हों तब अपने बच्चों और पति को ले कर यहां आना. जगह सुंदर है, मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा रहेगी.

‘‘माधवानंद पर भरोसा करो, वह मेरा अपना खास आदमी है. वहां से निकलने के लिए तुम्हारे कमरे के पास जो बरामदा है वहां एक दरवाजा है, जो पीछे गली में खुलता है. उसी रास्ते से बाहर निकल जाओ. बस स्टैंड पर कमलाकर मिल जाएगा.’’

‘‘कमलाकर?’’

‘‘तुम्हारा भानजा, तुम्हें वह टिकट दे देगा, उस ने खरीद लिया है…शुभ रात्रि,’’ और फोन कट गया था.

सुषमाजी को इस के बाद कुछ पता नहीं. भजन, पूजन सब कहीं दूर छूट चुका था. वह उस अंधेरी गली में माधवानंद का हाथ पकड़े दौड़ती चली जा रही थीं. बस स्टैंड पर कब पहुंचीं, कुछ पता नहीं. हां, वह सुंदर सा लड़का जिस ने उन के पांव छू कर टिकट व रुपए हाथ में दिए, उसे वह अब तक नहीं भूल पाई हैं.

सुबह खत्रीजी उसी तरह अपने छोटे बेटे के साथ पार्क में घूम रहे थे.

बड़ा लड़का स्कूल बस की प्रतीक्षा में लैंप पोस्ट के नीचे खड़ा था और सुषमाजी भीतर से हाथ में लंच बाक्स लिए तेजी से बाहर आ रही थीं.

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