23 मई को जनता का फैसला सुनाए जाने तक कम से कम सरकारी विज्ञापनों के खोखले वादों से तो छुटकारा मिलेगा. चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता लागू होने के पहले के सप्ताहों में सरकार ने जिस तरह विज्ञापनबाजी की है वह अभूतपूर्व है. उस ने समाचारपत्रों में एकएक दिन में 10-10, 12-12 पृष्ठों के विज्ञापन छपवा कर जनता पर मानसिक प्रहार किया है. विरोधी दलों के पास तो सरकारी खजाना नहीं था, सो, वे बेचारे मन मसोस कर रह गए.
अब 60 दिनों तक जो सरकारी शांति रहेगी, वह जनता को मौका देगी कि वह, क्या सही था क्या गलत था, का फैसला कर सके. 2014 में हिंदूवादी लहर बनाने के साथ ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, ‘15 लाख रुपए खाते में आएंगे’, ‘भ्रष्टाचारमुक्त भारत बनाएंगे’, ‘सब का साथ सब का विकास’ आदि नारों और नरेंद्र मोदी के नए तरीके के धुआंधारी भाषणों के बल पर जीत कर आई भारतीय जनता पार्टी से जनता को उम्मीदें थीं. भाजपा के कट्टर हिंदू तेवरों से जो डरे थे वे भी एक नए तरह के बेहतर शासन की उम्मीद कर रहे थे.
चुनाव आयोग के मौडल कोड औफ कंडक्ट लागू होने के बाद के ये 60 दिन तय करेंगे कि 2019 में अब जनता का फैसला क्या है? जनता हमेशा सही होती है, यह जरूरी नहीं. जनता ने खुशीखुशी से हमारे ही देश में भी और कई दूसरे देशों में भी बेईमानों, झूठों, विघटनकारियों को चुना है. कितने ही परिपक्व लोकतंत्र गलत नेताओं के हाथों में सौंपे जा चुके हैं. कितने ही देशों में जनता ने तानाशाहों को खुशीखुशी वोट दिया है. जनता ने धार्मिक, देशप्रेम, बराबरी के नारों में उलझ कर गलत सरकारें बनाई हैं.
भारत का लोकतंत्र कोई अलग नहीं है. यहां का मतदाता जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण, पैसे, रिश्वत के आधार पर वोट देता है. ज्यादातर मामलों में उसे मालूम ही नहीं है कि सही क्या है, गलत क्या है. जनता की राय सही हो, यह कोई गारंटी नहीं है. वहीं, इस के अलावा कोई और उपाय भी नहीं है सरकारें बनाने का. राजाओं के दिन लद गए हैं और सभी लड़ाकू राजा अच्छे प्रबंधक साबित नहीं होते.
अच्छे वक्ता अच्छे शासक नहीं होते. अच्छे शासक पूरी बात साफ शब्दों में कह सकें, जरूरी नहीं. जनता को तो उसी आधार पर वोट देना
होगा जो वह सुनेगी, देखेगी या महसूस करेगी. ये 60 दिन जनता के लिए मनन करने के हैं. पर जनता में सही फैसला लेने की क्षमता हो, यह जरूरी नहीं.