हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद का सफर और फिजा से शादी की शहनाई ठीक से बजी भी नहीं थी कि इस में एक नाटकीय मोड़ आ गया. चांद मोहम्मद ने जहां फिर से हिंदू धर्म स्वीकार करने की बात कही वहीं ला कमीशन ने शादी के लिए धर्म परिवर्तन करने वालों पर रोक लगाने के लिए एक सुझाव पेश कर दिया.

ला कमीशन ने अपने सुझाव में इसलाम द्वारा प्रदत्त 4 शादियों की इजाजत को इसलामी रूह के विपरीत बताते हुए इसे खारिज कर दिया. सरकार को सौंपी अपनी 227वीं रिपोर्ट में ला कमीशन ने इस को स्पष्ट करते हुए कहा कि इस का मकसद एक से ज्यादा शादियों की इजाजत से फायदा उठाने के लिए इसलाम कबूल करने का ढोंग रचाने वालों का रास्ता रोकना है. कमीशन ने अपने विचार के समर्थन में तर्क दिया है कि एक से अधिक शादी पर ज्यादातर देशों में कानूनी पाबंदी है. उस के अनुसार तुर्कों में यह पूरी तरह गैर कानूनी है जबकि मिस्र, सीरिया, ईरान, उरदन, इराक, यमन, मोरक्को, पाकिस्तान और बंगलादेश में यह प्रशासन अथवा न्यायालय के नियंत्रण में है. ला कमीशन की इस साफगोई से उलेमा संतुष्ट नहीं हैं और वे इसे इसलाम के विरुद्ध बता कर इस का विरोध कर रहे हैं. इस से स्थिति काफी जटिल हो गई है.

ला कमीशन की इस रिपोर्ट से पूर्व जस्टिस कुलदीप सिंह और जस्टिस आर.एम. सहाय पर आधारित सुप्रीम कोर्ट की 2 सदस्यीय खंडपीठ 10 मई, 1995 को सरला मुद्गल आदि के मामले में एक अहम फैसला दे कर यह बात अच्छी तरह स्पष्ट कर चुकी है कि हिंदू शादी जो हिंदू कानून के तहत की गई हो, केवल उसी कानून में दर्ज बुनियादों के आधार पर निरस्त होगी. जब तक इस कानून में दर्ज किसी बुनियाद के हवाले से हिंदू शादी निरस्त नहीं होती, उस समय तक जोड़े में से किसी एक को दूसरी शादी करने का हक हासिल नहीं होगा.

तब सुप्रीम कोर्ट की उक्त खंडपीठ के सामने 4 याचिकाएं विचाराधीन थीं. मामला मीना माथुर की याचिका से अदालत के सामने आया. मीना माथुर जितेंद्र माथुर की शादी 27 फरवरी, 1978 में हुई थी और इन के 3 बच्चे थे. 1988 में जितेंद्र माथुर ने इसलाम कबूल कर के सुनीता निरोला से शादी कर ली. मीना माथुर का कहना था कि उन्होंने धारा 494 के तहत काररवाई से बचने के लिए ही इसलाम कबूल किया है.

याचिका दाखिल करने वाली एक अन्य वादी गीता रामी रानी ने अदालत से कहा कि हिंदू रीतिरिवाज के अनुसार उस की शादी प्रदीप कुमार से हुई थी, जो दिसंबर 1991 में दीपा नाम की एक महिला को ले कर फरार हो गया और इसलाम धर्म कबूल कर उस से शादी कर ली. एक अन्य वादी सुष्मिता घोष ने अपनी याचिका में कहा कि उस की शादी 10 मई, 1984 को जी.सी. घोष के साथ हिंदू रीतिरिवाज के तहत हुई थी. 20 अप्रैल, 1992 को मेरे शौहर ने बताया कि वह मेरे साथ नहीं रहना चाहता और दबाव डाला कि मैं पति जी.सी. घोष को तलाक देने के लिए राजी हो जाऊं. सुष्मिता घोष इस के लिए तैयार नहीं हुई तो जी.सी. घोष ने इसलाम धर्म कबूल कर लिया और वनीता नाम की एक अन्य महिला से शादी की तैयारी करने लगा. इस बीच सुष्मिता ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि उस के शौहर को वनीता घोष के साथ शादी करने से रोका जाए.

अदालत ने इन तीनों याचिकाओं को एक सामाजिक संस्था कत्यानी की अध्यक्ष सरला मुद्गल की याचिका के साथ जोड़ दिया और यह पूरा मामला इन्हीं के नाम से प्रचारित हुआ. खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा, ‘हिंदू शादी कानून’ की विभिन्न धाराओं से स्पष्ट है कि हिंदू कानून एक बीवी रखने के नियम का सख्ती से पालन करता है. इस कानून के तहत की जाने वाली शादी उसी सूरत में अमान्य करार दी जाएगी, जब इस कानून की धारा 13 के तहत बयान की जाने वाली कोई बुनियाद मौजूद हो. इस कानून के तहत की जाने वाली शादी इस सूरत में भी बाकी रहती है, जब कोई शौहर दूसरी बीवी के लिए इसलाम धर्म कबूल कर लेता है. धर्म परिवर्तन करने वाले किसी ऐसे व्यक्ति की दूसरी शादी इस बीवी के हवाले से गैर कानूनी करार दी जाएगी जिस ने इस से पहले हिंदू कानून के तहत शादी की है और अब भी हिंदू धर्म पर कायम है… इसलाम धर्म कबूल करने और इस के बाद दूसरी शादी हिंदू कानून के तहत की गई शादी के निरस्त करने का कारण नहीं बनती. धर्म परिवर्तन करने वाले की दूसरी शादी हिंदू कानून का उल्लंघन होगा और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत यह शादी नाजायज करार दी जाएगी.’’

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का अनुमोदन लली थामस मामलों में भी होता है. इन दोनों मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश स्पष्ट तौर पर कबूल इसलाम धर्म करने का ढोंग रचाने वालों का मनोबल गिराता नजर आता है. इस कानून के आधार पर शौहर के इसलाम धर्म कबूल करने के बाद उस की बीवी से उस का रिश्ता स्वत: नहीं टूटता है और इस तरह के किसी भी व्यक्ति के खिलाफ धारा 494 के तहत कानूनी काररवाई की जा सकती है जो सजा का कारण बन सकती है, लेकिन आश्चर्य इस बात पर है कि सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट आदेश भी इस को खत्म करने में सहायक नहीं बन सका. अब हिंदू मैरिज एक्ट में एक और धारा जोड़ कर इस बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रयास किया जा रहा है. इस बाबत यह कितना सहायक होगा, अभी इस पर कुछ कहना संभव नहीं है.

जहां तक मुसलिम पर्सनल ला का मामला है, मुसलिम पर्सनल ला के विशेषज्ञों के सामने किसी पसर्नल ला के तहत की जाने वाली शादी किसी अन्य धर्म को कबूल  कर लेने के बाद स्वत: निरस्त (फस्ख) नहीं हो जाती. हिंदू मैरिज एक्ट में यह व्यवस्था पैदा की जाए कि धर्म परिवर्तन करने वाला शौहर भी तलाक के लिए अदालत में अपील कर सके. वर्तमान कानून में यह सुविधा केवल बीवियों को ही हासिल है. हिंदू मैरिज एक्ट में यह बात कही गई है कि यदि शौहर अपना धर्म बदल ले तो इस आधार पर बीवी तलाक का मुकदमा दायर कर सकती है कि उस के शौहर ने धर्म बदल लिया है लेकिन शौहर को यह हक हासिल नहीं है कि वह अदालत से कहे कि उस ने अपना धर्म बदल लिया है और बीवी पुराने धर्म पर कायम है इसलिए उसे तलाक की इजाजत दी जाए, क्योंकि अब एकसाथ रहना उन के लिए संभव नहीं रह गया है. यह हक न मिलने की सूरत में शौहर को बीवी के अदालत जाने का इंतजार करना पड़ेगा. यदि वह ऐसा नहीं करती है तो इस के सिवा कोई उपाय नहीं होगा कि शौहर की पूरी जिंदगी संकट में गुजरे.

जहां तक इसलाम धर्म द्वारा 4 शादियों की इजाजत की बात है तो इस की इजाजत इसलाम धर्म देता है लेकिन यह केवल इजाजत है, इस का यह अर्थ नहीं है कि हर मुसमलान 4, 3 या 2 बीवियां रखे. इसलाम धर्म ने यह इजाजत सशर्त दी है. इसीलिए उलेमा का मानना है कि सशर्त शादी की इजाजत पर ला कमीशन की रोक का सुझाव इसलाम विरोधी है. उन के सामने जिन देशों को उदाहरण के तौर पर ला कमीशन ने पेश किया है वे देश मुसलमानों के लिए प्रेरणा का स्रोत नहीं हो सकते. इसलिए कौन देश क्या कर रहा है, यह उस का अपना मामला है.

ला कमीशन ने भारतीय मामलों में एक से ज्यादा शादी पर अपना पक्ष पेश करते हुए कहा कि यहां मुसलमानों में एक से ज्यादा शादी का रिवाज बहुत आम नहीं है और एक से ज्यादा बीवियां रखने वालों की संख्या बहुत कम है. आमतौर पर भारतीय मुसलिम समाज में एक से अधिक शादी को बुरी निगाह से देखा जाता है और ऐसे व्यक्ति को उस के परिवार से बाहर के लोग अच्छी नजर से नहीं देखते हैं. इस के बावजूद कमीशन ने कहा कि फिलहाल ऐसी कोई तबदीली समाज में नहीं आ रही है और यह कि धार्मिक उलेमा इस सिलसिले में कानून में किसी सुधार के लिए तैयार नहीं हैं. धार्मिक तौर पर अति संवेदनशील मामला होने के कारण इस बाबत देश को किसी सुधार की इजाजत नहीं दी गई है. उलेमा मानते हैं कि जो लोग केवल शादी के लिए धर्म परिवर्तन करते हैं उन पर तो कानून का शिकंजा कसा जाए लेकिन जो लोग सोचसमझ कर इसलाम धर्म कबूल कर शादी करते हैं, उन्हें इस की इजाजत दी जानी चाहिए, अन्यथा ला कमीशन का यह सुझाव मुसलिम पर्सनल ला में हस्तक्षेप और गैरकानूनी एवं अलोकतांत्रिक है.

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