उस दिन दोनों ने अपनेअपने काम से छुट्टी ली थी. कई दिनों से दोनों ने एक फैसला लिया था कि वे अपने पुश्तैनी मकान में रहेंगे, क्योंकि आंटी का रिटायरमैंट करीब था और अंकल भी अपनी सेहत के चलते कचहरी के अपने काम को ज्यादा नहीं ले रहे थे. शुगर होने के चलते थक जाते थे. अंकल और आंटी को हालांकि आंटी के अनुज के बच्चों का पूरा प्यार और अपनत्व मिल जाता था, लेकिन वास्तविकता में दोनों ही एकदूसरे का सच्चा सहारा थे.

पारिवारिक मूल्यों को बखूबी समझने वाले अंकल ने अब तक जो कमाया, सारा का सारा अपनी मां और अपने भाईभतीजों को ही दिया था. आंटी की एक निजी विद्यालय में नौकरी थी, उसी से उन का घरखर्च चल रहा था. इसी सब के चलते दोनों ने किराए के मकान को छोड़ कर अपने पुश्तैनी मकान के फर्स्टफ्लोर के अपने कमरे में जा कर रहने का फैसला लिया था.

लगभग 30 वर्षों पहले दोनों किराए के मकान में आ गए थे. आंटी जब से ससुराल में ब्याह कर आई थीं, वहां उन्होंने कलहक्लेश, झगड़े जैसा माहौल ही देखा था. घर के किसी भी सदस्य का व्यवहार अच्छा नहीं था. ताने, उलाहने, मारपीट, भद्दी भाषा और चरित्रहीनता जैसे उन के आचरण से तंग आ कर ही अंकल और आंटी ने एक दिन अपना जरूरी सामान बांधा और एक रिकशा में सवार हो कर घर से निकल पड़े.

मानसिक अशांति से थोड़ी राहत तो पाई, लेकिन बहुत सी कठिनाइयों से उन्हें दोचार होना पड़ा, क्योंकि उन के पास पलंगबरतन कुछ भी नहीं था. हर चीज पर घरवालों ने अधिकार जमा रखा था. वह घर नहीं, मुसीबतों का एक अड्डा नजर आता था. पानी की एक बूंद को तरसते थे.

आंटी एक संपन्न परिवार से ऐसी ससुराल में आई थीं जहां तमीज और तहजीब नाम की चीज कोई नहीं जानता था. अंकल की मां को चुगलखोर औरत के रूप में सारा महल्ला जानता था. अंकल ने जब अपनी आंखों से देखा, कानों से सुना कि किस तरह घर के लोग आंटी के नाक में दम करते हैं जब वे घर पर नहीं होते हैं, तब उन्हें यकीन हुआ कि वास्तव में घरवाले बदतमीजी की सारी हदें लांघ चुके हैं.

किराए के मकान में आ जाने के बाद भी अंकलआंटी अपने पुश्तैनी मकान में बराबर आतेजाते थे, हर मौके पर मौजूद रहते. वहां अपनत्व या इज्जत नाम की कोई बात ही नहीं थी, तब भी अंकल पारिवारिक मूल्यों के पक्षधर और बेहद सरल स्वभाव के धनी होने के नाते अपनी जिम्मेदारियों की अनदेखी कभी नहीं करते थे.

अधिकार शब्द को तो अंकल ने जैसा भुला ही दिया था. अधिवक्ता थे तो रोजाना कचहरी आनाजाना रहता था, जाते और आते रोज अपनी मां के पास रुकते थे, हर तरह की मदद करने को तैयार रहते. खुद कितनी भी तंगी में हों, मां को हमेशा बिना मांगे ही रुपएपैसे देते थे बिजली के बिल, राशन सबकुछ के लिए. ये उन की सादगी कहें, मां की चतुराई या कहें अंकल की दूरदर्शिता.

आंटी की जहां तक बात है, ससुराल वालों के साथ रहते समय बहुत सारे कटु और कसक देने वाले अनुभव उन्हें वहां मिले थे. विवाह के कुछ समय बाद ही, अभी आंटी नईनवेली ही थीं कि, उन के सासससुर ने एक दिन उन के कमरे में आ कर उन से उन के सभी जेवर उतरवा लिए थे, जो अलमारी में थे, वे भी सारे ले लिए इस वादे के साथ कि जल्द ही लौटा देंगे. अब चूंकि आंटी का सारा स्त्रीधन वे लोग ले ही चुके थे, तो अब उन को उन से वास्ता भी क्या रखना था. अब वो देनदार थे, सो, जितना हो सकता था उतना परेशान करते थे.

इसी बीच, आंटी के पीहर पक्ष से बड़ी रकम लाखों में उधार मांग ली लौटा देने की शर्त पर आंटी ने अपने पीहर पक्ष को कभी भी अपनी आपबीती नहीं बताई थी. एक तो आंटी को संस्कार ही ऐसे मिले थे कि वे स्वभाव से ही गंभीर थीं और दे ही देंगे तो उन्हें क्यों कहना जैसा भाव भी मन में था.

अंकल को भी आंटी ने बहुत दिनों बाद बताया कि सारे जेवर आप के मातापिता ने ले लिए. अंकल ने जरा भी आशंका नहीं जताई. सोचा, कोई बात नहीं, दे देंगे वापस. उधर आंटी के मातापिता ने ताउम्र अपना धन वापस नहीं मांगा. मांग ही नहीं सके, अपने दामाद के लिए उन के मन में सम्मान और प्यार था इस कारण. आंटी का पीहर बहुत दूर था, आंटीअंकल खुद ही वर्ष में एकदो बार मिल आते थे.

बहुत आहत मन से अंकलआंटी उस घर से निकले थे, लेकिन अब समय का लंबा फर्क और मजबूरी उन्हें फिर वहां ले जा रही थी. किराया नहीं दे सकेंगे, सो, अपने कमरे में जाने का विचार किया.

आंटी ने अंकल से कहा, ‘‘आप कल उधर जाओगे तो अपना कमरा खोल आना, मैं साफ करने के लिए जाऊंगी, फिर जरूरी सामान रख आएंगे.’’

अंकल ने कहा, ‘‘ठीक है.’’

अगले दिन अंकल ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, हम ने अपने कमरे में लौटने का विचार किया है क्योंकि आप की बहू रिटायरमैंट के करीब है, मकान का किराया देना मुश्किल होगा. सेहत की वजह से मैं भी वकालत का काम कम ही लेता हूं.’’

अंकल की बात सुनते ही मां को तो जैसे सांप सूंघ गया हो. बिना जवाब दिए घर से बाहर निकल गईं.

अंकल अपने घर आ गए. आंटी ने कहा, ‘‘कमरा खोल आए क्या?’’

अंकल ने कहा, ‘‘नहीं, कल चलेंगे, तब कमरा झाड़ देना तुम.’’

अगले दिन अंकल, मां के पास रोजाना की तरह जा बैठे और कहा, ‘‘मां, आप की बहू को अभी साथ ला रहा हूं, कमरा साफ कर जाएंगे. और कल रविवार है, कल से यहीं आ जाएंगे हम आप के पास.’’

अंकल की बात सुनते ही आसपास के कमरों से सारा कुनबा ही जैसे कूद पड़ा. बरामदे में पहले से सभी जमा थे. अंकल रोजाना इसी समय आया करते थे. बेटी और दामाद को भी बुला रखा था. छोटेबड़े सभी इकट्ठा थे. कोई कुछ बोले, इस से पहले अंकल ने फिर कहा, ‘‘मां, क्या बात है, बोल नहीं रहा कोई?’’

इतने में बिजली सी कड़कती कर्कश आवाज में बोलते हुए अंकल की मां अंकल पर टूट पड़ीं. अंकल को धकियाती हुई बाहर के दरवाजे तक ले गई. बहन, जीजा ने धक्के मारे. भाइयों ने जलीकटी कहीं. भाभियां मुसकरा रही थीं.

अंकल अचानक हुए इस हमले को सह न सके, कुछ समझ न सके और लड़खड़ा कर नीचे गिर पड़े. मां व बहन ने गिरने पर भी धक्के दिए. अंकल का बाजू हिल गया, पैंट घुटने से फट गई. इस अजीब व्यवहार व अपमान ने अंकल का दिमाग घुमा दिया. पगड़ी उतर कर दूर जा गिरी. अंकल अकेले उठ पाने की हालत में नहीं थे. किसी तरह सीढ़ी पकड़ कर उठे और अपने घर पहुंचे. बदहवास, परेशान, लज्जित और चुप, वे तत्काल बोलने की स्थिति में नहीं थे. आंटी ने उन्हें देखा तो सहम गईं और प्रश्नों की झड़ी लगा दी.  किसी भी प्रश्न का कोईर् जवाब अंकल नहीं दे रहे थे.

आंटी ने खाना परोसा. अंकल ने नहीं खाया. आराम करने को कह कर करवट ले ली. आंटी को काटो तो खून नहीं. अंकल ही सेहत को ले कर वैसे भी हर वक्त चिंता में रहती थीं और आज क्या हुआ, क्यों नहीं बताते. ऐसे में स्वभाविक ही था चिंता का बढ़ना. आंटी ने देखा कुहनी तथा घुटने छिले थे, पैंट फटी थी, अब तो यही अनुमान लगाया कि स्कूटर तेज चलाया होगा. पर मन नहीं माना. अंकल कभी तेज चलाते ही न थे स्कूटर. चोट आखिर कैसे लगी होगी. कहीं खड्डों वाली सड़क पर स्कूटर फंस गया होगा.

कहते हैं कि जब स्नेह, प्रीति, लगाव का दायरा छोटा हो तो वह एक पर ही केंद्रित हो जाता है, आंटी की कुछ ऐसी ही स्थिति थी. अंकल ही उन के पास थे, जीवनसाथी से लगाव होना स्वभाविक भी है. फिर दोनों का साथ. तीसरा तो कोई जबतब ही पास आता, अधिकतर तो दोनों अकेले ही होते थे. अंकल से आंटी ने सब जानना चाहा. पर अंकल शायद सोए तो थे ही नहीं, सुबक रहे थे, रो रहे थे. तकिया आंसुओं से भीग गया था.

बहुत मनुहारें करने के बाद अंकल ने बताया, ‘‘मैं गया था उस घर में, किंतु अब हम कभी वहां नहीं जाएंगे. कभी भी नहीं.’’

‘‘आखिर क्यों?’’ आंटी ने तुरंत जानना चाहा था. अब आशंकाओं ने आंटी के मन को घेरना शुरू कर दिया था,  आशंकाओं को आधार भी मिलने लगा था भीतर ही भीतर. जिस घर में उचित सम्मान कभी नहीं मिला, बड़े होने के नाते भी नहीं, वहां तो कुछ भी गड़बड़ हो सकती है. ऐसा आंटी के मन में विचार उठ रहा था.

अब अंकल ने सारी बात बताई, लेकिन रोते हुए, सुबकते हुए. अंकल के चेहरे पर मन की पीड़ा को साफ पढ़ा जा सकता था. आंखों से मानो दिल का दर्द टपकटपक पड़ रहा था. सारी आपबीती बताई. आंटी अंकल को दुखी देख कर तड़प उठीं, किंतु खुद को रोका. यह वक्त अंकल को सहारा देने का है, सताने या सुनाने का नहीं. अब जबकि अंकल खुद भुगत कर आए हैं, तो क्या बचा है कहनेसुनने को.

अब तो उन्हें मां की भक्ति से मिले रिजल्ट का साक्षात अनुभव हुआ है. जिन भाइयों ने कभी भैया कह कर बुलाया भी नहीं, उन्हें अंकल ने कहांकहां सहारा नहीं दिया? एक को तो सरकारी नौकरी भी अपनी जानपहचान के बूते परीक्षा के प्रश्नपत्र पूर्व में ही बता कर दिलवाई जैसेतैसे. शेष की आर्थिक मदद, कानूनी मदद करते रहे. आज उन्होंने ठोकरें मार कर बाहर कर दिया था.

आंटी ने अंकल को सहारा दिया, ‘‘हमें जाना ही नहीं वहां, आप चिंता न करें. आप के साले, साली कितना पूछते हैं आप को, हमेशा मदद के लिए खड़े रहते हैं. सो, परेशान नहीं होना है. बस, इस बात को यहीं रोको.’’ आंटी अंकल की सेहत न बिगड़ जाए, इस बात से भीतर ही भीतर डर रही थीं. इस के बाद अंकल हमेशा गुमसुम रहने लगे थे. काम पर जाते, जल्दी घर आ जाते.

फिर एक दिन बहुत कठिन घड़ी आई. अंकल कचहरी में बेहोश हो कर गिर गए. आंटी के भाई को सूचना मिली तो फौरन उन्होंने संभाला, अस्पताल पहुंचाया. सभी जांचें हुईं. अंकल को बीते दिनों अपनों से मिली प्रताड़ना के कारण गहरा आघात पहुंचा था. विश्वासघात के शिकार हुए थे वे. सूचना तो उन के घरवालों को भी दी गई किंतु किसी ने हाल जानना जरूरी नहीं समझा, वे ही तो गुनाहगार थे, वे क्यों आते पूछने. पक्षपातिनी मां, वह बेरहम बहन किसी को दुख नहीं हुआ अपने ही घर के सदस्य के बीमार होने का.

आंटी नौकरी पर थीं, लौटीं तो बहुत दुखी हुईं. उन की व्यथा का कोई पारावार न था. आते ही अंकल से लिपट गईं. सब पूछ डाला भाई से, चिकित्सक से, रिपोर्ट पढ़ी.

अंकल अपने साथ घटित उस अपमानजनक व्यवहार को याद करें भी तो कैसे? कटु सत्य से सामना हुआ था उन का. एक बहुत बड़े राज से परदा उठा था. मन में चल रही उठापटक ने अंकल को असामान्य हालत में पहुंचा दिया था. अंकल रहरह कर यही बुदबुदाते, ‘मैं ने बिगाड़ा क्या है उन का?’

लगभग 8 माह तक ससुराल वालों की सेवा से अंकल थोड़ा स्वस्थ हुए.

एक दिन अंकल के पास उन का एक नजदीकी रिश्तेदार फुफेरा भाई आया और कहने लगा, ‘‘तुम्हारा पुश्तैनी मकान वे लोग बेच रहे हैं, ऐसी भनक मुझे लगी है.’’ अंकल के साथ हुए अमानवीय व्यवहार का उसे पता था. उस ने आगे कहा, ‘‘तुम्हें कानूनी मदद लेनी चाहिए.’’

अब क्योंकि अपने पुश्तैनी घर में वे जा नहीं सकते थे, सो, याचिका लगा कर न्याय दिलाने की व घर में अपना हक लेने की अपील की. पहली पेशी पर ही सारा राज जाहिर हो गया. अंकल की मां, भाई सब मिल कर कचहरी में आए. वकील के माध्यम से अंकल के हाथ की लिखी दस्तबरदारी के सरकारी कागजात पेश कर दिए वह भी 15 वर्ष पूर्व की गई समस्त कार्यवाही के. केस वहीं खत्म हो गया, जब खुद ही अपना हक छोड़ने को लिख दिया तो अब  कोई प्रावधान ऐसा न बचा था कि आगे सुनवाई हो.

अंकल अनजान थे इस कटु सत्य से. यदि जानते होते तो केस ही क्यों लगाते भला? खुद अधिवक्ता हो कर भी मां की चाल न समझ सके, क्योंकि कोई मां पर ही विश्वास नहीं करेगा तो किस पर करेगा? अब सारा मामला समझ आ गया कि क्यों घर से खदेड़ा? क्यों उन्हें वापस घर आने देना नहीं चाहते थे. उन्होंने सिर्फ मिल्कीयत की खातिर यह षड्यंत्र रचा था. मिल कर आपस में बांटना था, घर की कीमत, जमीनजायदाद सब बहुत पहले ही लिखवा ली थी, बेच भी दी थी, ये राज भी खुल गए. अंकल के पास कुछ नहीं था.

ऐसे आस्तान के सांप निकले अंकल के अपने. और मां की ऐसी घिनौनी हरकत को क्या कहा जाए? क्या इस बेटे को पैदा नहीं किया था? यह आसमान से गिरा था? या इस बेटे को उस की सरलता या ईमानदारी का यह इनाम दिया गया था? अपनों द्वारा दी गई ऐसी सजा जिसे दिल पर ले लिया अंकल ने. शहरभर के शुभचिंतक अंकल का हालचात पूछते रहते हैं. आंटी के पितृगृह के भाईबहन ने तनमनधन से अंकल की सहायतासेवा की. यदि इन लोगों का सहारा न होता तो पता नहीं क्या हाल होता दोनों का? एक वे अपने हैं जिन्होंने मार कर फेंका, एक ये पराए हैं जिन्होंने संभाला ही नहीं, सहारा भी बने हैं.

अनेक लोग अंकल के परिजनों को लानतें दे चुके हैं, सामाजिक बहिष्कार कर चुके हैं उन का. तब भी धन की लालसा में घिरे वे लोग एकजुट हैं. उन के लिए तो एक ही बात अर्थ रखती है, ‘बाप बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपैया.’ हंसतेमुसकराते दंपती की हंसी छीन कर आज वे पुश्तैनी मकान की करोड़ों की कीमत पाने को प्रयासरत हैं. भविष्य के वे लखपति अपने इस अनमोल हीरे के हृदय को चूरचूर कर के कितने आनंद में हैं, और इधर अपनों द्वारा विश्वासघात की मार सह कर न केवल घर में, बल्कि एक ही कक्ष में कैद हो कर रह गए है अंकलआंटी, यह कैसा समाज है, कैसा न्याय है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...