स्लीपिंग विद एनेमी. यानी जो आपका दुश्मन है, उसी के साथ मजबूरन सोने-रहने या सफर करने की दुविधा ही स्लीपिंग विद एनेमी कहलाती हैं. शंकर की मेगा-टेक अफेयर फिल्म 2.0 देखकर सबसे पहले इसी दुविधा से जूझना पड़ता है. एक तरफ यह फिल्म तकनीक/स्मार्टफोन के अतिप्रयोग के खिलाफ खड़ी है लेकिन वहीं दूसरी और इस फिल्म के निर्माण पक्ष के सारे स्तंभ तकनीकी दक्षता (vfx) पर टिके हैं.
एक और विरोधाभास है. आप सिनेमाहौल में घुसते ही जब तक शो-रील पर सरकारी विज्ञापन (यहां भी अक्षय कुमार पैडमैन के अवतार में दिखते हैं) चलते हैं, आप अपने मोबाइल के कीपैड पर उंगलियां दौड़ा रहे होते हैं, दुनिया जहां को बता रहे होते हैं कि…Hey guys.. I m watching 2.0 @ फलां थियेटर. फिर शो रील खत्म होती है और फिल्म के सेंसर सर्टिफिकेट के तुरंत बाद डौल्बी एटमोज के सुपर टेक्निकल साउंड पर ओपनिंग क्रेडिट 3D/4XD चश्मों के साथ देखने लगते हैं.
यानी फिल्म के स्टार्ट होने से खत्म होने तक आप 3-4 गैजेट्स से करीब 150 मिनट तक घिरे रहने के बाद फिल्म से यह संदेश लेकर जाते हैं कि तकनीक मनुष्यों को गुलाम बनाकर उनकी रचनात्मकता, सामजिक रिश्ते खत्म कर रही है और पक्षियों (मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडियेशन) को भी बेमौत मार रही है.
लोहे से लोहे की काट
खैर, फिल्म की ख़ूबसूरती भी यही कि लोहे को लोहे से ही काटा जाए. फिल्म के सीन में (जब चेन्नई से सारे मोबाइल गायब हो चुके हैं) एक बुजुर्ग कह रहा है कि अच्छा ही है कि स्मार्टफोन नहीं है. इन कुछ दिनों में मोबाइल के न होने से मैं अपने बच्चों के साथ खेल पाया हूं, बीवी से दो बातें कर पाया और दिनरात बजते रिंगटोंस के शोर से भी बचा रहा, लेकिन अब क्या करें फोन उस बीवी की तरह हो गए हैं जो न हों तो दिक्कत और हों तो खिचखिच.
हालांकि फिल्म का मैसेज बहुत साफ था, लेकिन तकनीकी दक्षता ही कई बार इस विषय से भटकाकर आपको फैंटेसी के संसार में ले जाती है. रजनीकांत का अतार्किक औरा, सीटीमार संवाद और हर फ्रेम में वर्चुअली मौजूद रहने की जिद जहां उनके फैन्स कम श्रद्धालुओं के लिए लौटरी सरीखी है, वहीं कुछ गंभीर दर्शकों को खीझ भी देती है.
जरा सोचिये दुनिया के किसी भी सिनेमैटिक हिस्ट्री में ऐसा नहीं होता होगा जहां एक कलाकार के एंट्री सीन को 5 मिनट के लाइट फ्रीज/पोज कर दिया जाए ताकि सिनेमहौल में बैठे दर्शक कुछ समय तक नाच गा सकें. एक्टर के कटबोर्ड/पोस्टर्स पर दूध, घी और फूल बरसा सकें. लेकिन 2.0 के साथ ऐसा हुआ. और यही सिनारियों बताता है कि हम इस देश में इतनी जल्दी मूर्ति पूजक या अंधभक्त क्यों बन जाते हैं.
रोबोट बनाम इंसान
खैर, फिल्म मोबाइल कंपनियों के बढ़ते लालच के खिलाफ एक ट्रांसफार्मर सरीखा संसार रचती है. जहां मशीनें ही मशीनों से लड़ रही हैं. इंसान सिर्फ तमाशबीन है. उपभोक्ता है. जिसका काम जेब में पैसे लेकर दुकानों की कतार पर हर वो सामान खरीदना है, जिसकी जरूरत शायद उसे है नहीं. मोबाइल में हजारों का बैलेंस भले हो लेकिन किताबों, पत्रिकाओं से दूर रहने, पढ़ने की आदत घटने और मानवीय संवाद घटने से हमारी रचनात्मकता का बैलेंस शून्य हो चुका है. मोबाइल के चलते फिजिकल कन्वर्सेशन बंद हो जाएगा तो रचनात्मकता खत्म हो जायेगी और फिर रचनात्मक की कमी से उत्पादकता प्रभावित होगी.
मजे की बात यह है कि इस फिल्म में इंसान वैचारिक तौर शून्य दिखते हैं और रोबोट (चिट्टी 2.0+3.0) अपने विकेड सेन्स औफ ह्यूमर और इंसानियत के साथ मौजूद है. यह सूक्ष्म चेतावनी है कि किस तरह हम ह्यूमन इंटरेक्शन खत्म कर किसी मशीन या कहें रोबोट की तरह बिहैव कर रहे हैं. न कोई फिजिकल स्पर्श और न कोई आत्मीय बातचीत. बस मोबाइल या मैक पर झुकी गर्दनें और स्क्रीन पर ताबड़तोड़ चलती उंगलियां. हम फिर भी चेंतेंगे, कहना मुश्किल है. पर इतना तय है कि नहीं चेते तो एक अकेली और दिमागी तौर पर बीमार जनरेशन छोड़ कर जाएंगे.
शंकर का Déjà vu
फिल्म पर्यावरण खासकर पक्षियों की घटते अस्तित्व की तरफ भी ध्यान देने पर जोर देती है. शंकर की फिल्मों का खास और आलोचनात्मक पक्ष यही है की उनकी हर फिल्म उन्हीं की निर्देशित पुरानी फिल्मों का Déjà vu (पूर्वाभास) देती है. जैसे विक्रम अभीनीत आई (I) की तरह यहां भी फर्स्ट हाफ में 3-4 ग्रूसम मर्डर होते हैं, फिर बाद में यानी सेकेंड हाफ में उन किरदारों के ग्रे शेड्स उजागर होते हैं. क्लाइमेक्स में फिल्म अपिरिचत की तरह पर भारीभीड़ से भरे स्टेडियम में प्रोटेग्निस्ट का लम्बा मोनोलौग याद दिलाती है.
वहीं पक्षी राजन (अक्षय कुमार) का किरदार शंकर की पुरानी हिट फिल्म हिन्दुस्तानी के प्रोटेग्निस्ट (कमल हासन) का प्रतिबिम्ब लगता है जो समाज में फैली बुराई और उसके बहरेपन से तंग आकर हीरोइक इमेज से बाहर आकर विलेनियस विकल्प चुन रहा है. और फिल्म शिवाजी की तरह रजनीकांत (डा. वसीकरण/चिट्टी) का बार-बार मरना और जिंदा होना भी यहां रेफ्लेक्ट होता रहता है. फीमेल कैरेक्टर सर्फ ग्लैमरस फिलर्स होती हैं, उनकी हर फिल्म में, सो यहां भी हैं. हालांकि ये सब फार्मूले बुरे नहीं हैं और इस बार टेक्नीकल शील्ड में और ज्यादा उभर कर आते हैं.
फिल्म डब्ड वर्जन में है, लेकिन कुछ किरदार ‘हिन्दुस्तानी’ फिल्म की तरह तमिल के साथ हिन्दी में सिंक्ड्स संवाद बोलते हैं जिसे किरदारों की बनावटी बोलचाल से निजात मिलती है.
व्हेन ट्रांसफोर्मर्स लैंड्स चेन्नई
फिल्म के ग्रैड विजुल्स और vfx की बात सालों से हो रही थी और यह ओवरएस्टीमेट डिस्कशन को आप तभी समझ पाएंगे जब इसे सिनेमहौल में 3D/4XD या IMAX फोर्मेर्ट में देखेंगे. अगर लीक्ड या पाइरेटेड वर्जन है तो फिल्म देखने से बेहतर है कि PUBG या GTA खेल लें. समझदारी और ईमानदारी वाली बात यही है कि शंकर ने कभी यह दावा नहीं किया कि उनकी यह फिल्म हौलीवुड की साइंस फिक्शन या VFX लेवल को टक्कर देगी. क्योंकि यह नहीं देती है.
हां, इंडियन फिल्मों के संसार में यह अव्वल दर्जे की टेक्नीकल रिच फिल्म है और काफी समय तक रहनी चाहिए. लेकिन चूंकि भारत के दर्शकों को हौलीवुड की मार्वल्स और डीसी की अवेंजर्स, ट्रांसफोर्मर्स और अवतार सरीखे अनुभव एक्सप्लोर करने का मौका मिल चुका, सो यहां थोड़ा कमी खटकेगी. खासतौर से क्लाइमैक्स में फिल्म ट्रांसफोर्मर्स का सस्ता वर्जन सी लगने लगती है. लेकिन 3D/4XD के चलते मजा पूरा आता है, इसलिए बेफिक्र रहें. क्योंकि चेन्नई और कैलिफोर्निया का अंतर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
अनाड़ी VS खिलाड़ी
फिल्म में गाने नहीं हैं, आधा गाना है जो जरूरी भी है. लेकिन बैकग्राउंड म्यूजिक आपकी हार्ट बीट को स्लीपिंग मोड पर एक सेकेण्ड के लिए भी नहीं जाने देता. ऐसे एक बैकग्राउंड रैप में खिलाड़ी और अनाड़ी शब्द सुनाई पड़ते हैं. यहां यों तो खिलाडी रजनी हैं लेकिन असली खिलाड़ियों के खिलाड़ी अक्षय कुमार थे, हैं और रहेंगे. सिर्फ उन्हीं का एक किरदार है जो फिल्म में भला किरदार लगता है. जिसका कोई उद्देश्य है. जो अपने फ्लैशबैक सीक्वेंस के जरिये नीरस एक्शनगेम बनती फिल्म में ह्यूमन और इमोशनल फील पैदा करता है.
रजनी हर फ्रेम में हैं तो अक्षय हर सीन को चुराते हैं. चूंकि फिल्म साऊथ इंडियन दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गई है, लिहाजा थलाइवा रजनी हैं, लेकिन आप सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं तो पक्षी राजन की नेकनीयत के साथ. बाकि साथी कलाकारों में टेलीकौम मिनिस्टर Kalabhavan Shajohn (जिन्हें दृश्यम में खुन्दकी पुलिस वाले के किरदार के लिए सराहना मिली थी) ही कौमिक रिलीफ लेकर आते हैं. बाकी तो खानापूर्ति के लिए हैं.
क्या आइरनी है!
हालांकि आइरनी देखिए कि जिस तकनीक के बेजा इस्तेमाल को फिल्म में विलेन बताया गया है वो हर साल दुनिया में फिल्म मेकर्स को चूना लगा रही है. गौरतलब है कि एक्टिव पायरेसी वेबसाइट तमिल रौकर्स ने रिलीज के बाद पूरी HD फिल्म साइट पर अपलोड कर दी. बावजूद इसके कि लीक को रोकने के लिए निर्माताओं की ओर से काफी तैयारी की गई थी. मेकर्स इस तरह की पायरेसी वेबसाइट की एक लिस्ट लेकर मद्रास हाई कोर्ट भी गए. यह खबर भी आई कि मद्रास हाईकोर्ट ने 37 इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स (ISPs) को 12,000 वेबासाइट को ब्लौक करने के आदेश दे दिए हैं.
आखिर में फिल्म का महाबजट, महावीएफएक्स और रजनीमेनिया भूल जाइये और याद रखिए कि घोर मसाला फिल्म होने के बावजूद यह फिल्म आज हमें हमारे सबसे बड़े दुश्मन स्मार्टफोन की लत से आगाह करती है. यह एक वैश्विक मुद्दा है. फेसबुक, इन्स्टा, व्हाट्सएप, स्नैपचैट, ट्विटर जैसे सोशल नेटवर्कींग साइट्स से अजनबी तो जुड़ रहे हैं लेकिन अपने पराये हो रहे हैं. रिश्तों मे दरार पड़ने लगी है.
इंटरनेट पर्सनलाइज्ड होने से हर हाथ में फोन है लेकिन कोई हाथ नहीं मिलाता. सब इमोजीज में हैंडशेक करते हैं. एक सर्वे के मुताबिक दुनिया भर में एक तिहाई रिश्ते सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से टूट रहे हैं. ऐसे में इस फिल्म की प्रासंगिकता काफी समय तक बरकरार रहेगी और सवाल भी कि हम आखिर कब मोबाइल के जाल से बाहर निकलकर फिर से किताबों, पत्रिकाओं की तरफ सजग, गंभीर और सटीक जानकारियों के लिए मुड़ेंगे और डिजिटल गलियों में फैली अफवाहों, चुटकुलों और अंधविश्वास के कचरे से निजात पाएंगे?