राजस्थान का प्रतापगढ़ स्थित एक शिव मंदिर बड़ा ही अनोखा मंदिर है. यहां की खासियत है कि कितना ही बड़ा पापी,अपराधी या गुनाहगार यहां क्यों न आ जाए, जब वह वापिस जाएगा तो उस के सारे पाप धुल चुके होगें. बकायदा जिस तरह स्कूल कालेज से शिक्षा ग्रहण करने के बाद डिग्री मिलती है उसी तरह इस मंदिर में बने एक कुंड में डुबकी लगाने पर पाप मुक्त होने का सर्टीफिकेट दिया जाता है. हां, इस सर्टीफिकेट को हासिल करने के लिए 11 रुपए की कीमत जरूर चुकानी होती है. मंदिर के पुजारी कन्हैयालाल शर्मा कहते हैं, “मनुष्य से हर दिन छोटेमोटे कई पाप होते हैं यदि वो इन पापों के लिए पश्चाताप नहीं करता तो उसे दंड भुगतना पड़ता है. लेकिन इस कुंड के पवित्र जल में डुबकी लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं.”

नहीं होती है कुंडों की सफाई

कितनी विचित्र बात है कि एक कुंड जिस का पानी हफ्तों नहीं बदला जाता और हर दिन उस कुंड में हजारों लोग डुबकियां लगाते हैं उस का जल पवित्र कैसे हो सकता है. इस बाबत इंडिया वाटर र्पोटल के हिंदी वैबसाइट के संपादक केसर सिहं कहते हैं, “एक समय था जब मंदिर के कुंड तलाब से जोड़े जाते थे और इससे पानी बदलता रहता था. लेकिन अब इस तरह की व्यवस्था खत्म हो चुकी और इस की जगह मशीनों से कुंड के पानी की सफाई होती है और इस प्रक्रिया  में काफी समय लगता है इसलिए महीने में कभी एक बार सफाई हो जाए तो हो जाए वरना गंदा पानी ही भरा रहता है. इस पानी में कई ऐसे लोग भी डुबकी लगाते होंगे, जिन्हें त्वचा का संक्रमण हो. ऐसे में पानी और भी दूषित हो जाता है. साथ ही रुके हुए पानी में हवा के विषाणु  होते हैं , जो यदि मनुष्य के शरीर में घुस जाएं तो उस का बीमार पड़ना तय है.”

ऐसे में मनुष्य के पाप धुलें या न धुलें लेकिन पानी में एक के शरीर का मैल धुल कर दूसरे के शरीर में जरूर लग जाता है और पाप मुक्त होने का सर्टीफिकेट लेने के साथ ही आदमी रोगग्रस्त होने का तमगा लगा कर इस मंदिर से जाता. यनी 11 रुपए में पाप मुक्त होने के बाद न जाने कितने रुपए खर्च करने बाद आदमी रोग मुक्त हो सकेगा, यह कहना मुश्किल है।

मगर मंदिर के पंडे पुजारियों को इस से क्या फर्क पड़ता है. सर्टीफिकेट के नाम पर रोज आस्था में अंधे भक्तों से 11 रुपए ऐंठ कर कागज का एक टुकड़ा पकड़ा कर वे अपनी झोलिया भरने मग्न हैं.
भारत में यह कोई अकेला मंदिर नहीं जहां के पंडे पुजारी अपनी पाखंड की दुकान चलाने के लिए लोगों को आस्था की आकर्षक स्कीमों के जाल में फंसा रहे हैं. देश में ऐसे कई बड़े और प्रसिद्ध  मंदिर हैं जहां झूठी कहानियों और खोखली आस्था के बल पर धर्म के ठेकेदारों द्वारा लोगों को लूटा जा रहा है.

पंडों का गुंडाराज

इसी कड़ी में एक विश्वविख्यात मंदिर जगन्नाथ पुरी का नाम भी आता है. वैसे तो यहां पंडों का गंडाराज चलता है लेकिन धार्मिक मान्यताओं के आधार पर कहा जाता है कि अपने जीवन काल में, जो एक बार यहां आता है उसे स्वर्ग की प्राप्ती होती है. इस भ्रम और अंधविश्वास के चलते हर दिन लाखों लोग पुरी के इस मंदिर में दर्शन करने आते हैं. लेकिन दर्शन केवल उन लोगों को ही मिलते हैं, जो 150 रुपए का टिकट खरीद कर मंदिर के अंदर घुसता है. इतना ही नहीं मंदिर में घुसने के बाद शुरु होता है दान दक्षणा देने का सिलसिला.

मंदिर में मौजूद छोटेछोटे हर मंदिर में बैठा पंडा एक बड़े से थाल के साथ अंधे भक्तों का इंतजार कर रहा होता है और इस थाल में भक्त को दान के नाम पर जो राशि डालनी है यह तय भी भक्त नहीं बल्कि वो पंडा ही करता है. धोखे से भी आप 10 या 20 रुपए का नोट थाल में डालने की न सोचें, क्योंकि इस से पंडा नाराज हो जाता है और कम पैसे चढ़ा कर भगवान की बेज्जती करने का इलजाम भक्त के सिर मढ़ देता है. जाहिर है भक्त डर जाएगें और जेब से हरीहरी 100 के नोट की पत्ती निकाल पंडे की हथेली को गरम कर देगें. लेकिन डराने धमकाने का सिलसिला यहाँ भी खत्म नहीं होता.

मंदिर से कुछ ही दूर पर स्थित है पिशि मां की कुटिया. पुराणों के अनुसार यह जगन्नाथ की बुआ का घर है. यहां एक चंदन सरोवर है. कहते हैं, जगन्नाथ के दर्शन तब तक अधूरे हैं जब तक इस सरोवर में डुबकी न लगाई जाए. आस्था की डुपकी लगाने कई भक्त यहां आते हैं लेकिन बदबूदार सरोवर में गंदगी के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिलता बल्कि डुबकी लगने के लिए उन्हे 5 रुपए का टिकट खरीदना पड़ता है. ऐसे ही 5-5 रुपए श्रद्घालुओं से ऐंठ कर पंडे अपनी अंटी भरते रहते हैं और भक्तों को बदले में मिलती है सिर्फ बीमारियाँ.

अंधी भक्ती नदियों की निर्मलता के रास्ते में रोड़ा

दरअसल हिंदू धर्म में नदियों, तलाब और कुंडों को आस्था का प्रतीक माना जाता है. नदियों को तो हिंदू धर्म में मां का दर्जा प्राप्त है. इस के पीछे वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दोनों ही तरह के तथ्य हैं. वैज्ञानिक तौर पर ‘जल ही जीवन है’ और मनोवैज्ञानिक तौर पर ‘जो जीवन दे वही मां है’. लेकिन समस्या यह है कि बच्चे ही मां के जीवन के दुश्मन बने हुए हैं. यहां आश्य उन श्रद्घालुओं की अंधी भक्ती से है, जो नदियों, जलाश्यों और तलाबों की निर्मालता के रास्ते में रोड़े अटकाने का काम कर रही है.
आस्था के नाम पर नदियों को तो हमेशा से ही निशाना बनाया गया है. कभी कुंभ मेला तो कभी माघ मेला, कभी श्राद्घ तो कभी अस्थी विसर्जन, कभी पुण्य कमाने के लिए तो कभी धन कमाने के लिए संत पुरोहितों द्वारा बनाए गए बेतुके रीतिरिवाजों को निभाने के लिए लोग नदियों में आस्था की डुबकी लगाने पहुंच जाते हैं और खुद को तो रोगग्रस्त करते ही हैं साथ में देश के उन करोड़ों लोगों को भी मौत के कठघरे में खड़ा कर देते हैं जिन का इन सब से लेना देना भी नहीं है.

नदियों के तटों पर मक्खियों की तरह भिनभिनाते इन पाखंडियों के लिए धंधे का सब से सही स्थान यही होता है. यहां आने जाने वाले यात्रियों को यह लोग छोटेछोटे मंदिरों और उन से जुड़ी मनगढ़ंत कहानियों से आकर्षित करते हैं और फिर शुरु होता है धर्म के नाम पर डारा धमका कर लूटने का धंधा. नदियों से जुड़ी कई कहानियां है और हर कहानी का यही सार है कि संत साधुओं को दान करने पर ही सभी दुखों का अंत होगा.

धन नहीं बीमारी की वर्षा करती हैं नदियां

ऐसी ही एक कहानी के अनुसार कार्तिक मास में गंगा,यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा और कावेरी जैसी नदियों में स्नान करने से धन की वर्षा होती है. ऐसा भी कहा गया है कि इस मास में 33 करोड़ देवी देवता इसी लिए धरती पर आते हैं. कितनी हास्यात्मक बात है कि जिन देवी देवता को खुश करने के लिए और धन प्राप्ती के लिए लोग नदियों में डुबकी लगाने आते हैं वही देवी देवता खुद भी इसी काम के लिए पृथवी पर उतर आते हैं. ऐसी देवी देवता जो खुद धन के भूखे हों उन के लिए इस तरह के धार्मिक कर्मकांड करने का क्या लाभ.

इस के अतिरिक्त पुराणों में नदियों पर जा कर विधिवत स्नान करने की बात कही गई. तब ही इस का फल मिलता है. ऐसे में विधि बताने के लिए तटों पर मौजूद पंडे  धार्मिक कर्मकाडों का ढकोसला देकर फिर से अपना उल्लू सीधा करने निकल पड़ते हैं. यह ऐसे तरीके बताएंगे, जो सुनने और करने में बेहद आसान लगेंगे मसल नदी में फूल चढ़ाओ, अगरबत्ती दिखाओ और दिया बहाओ.

लेकिन नदी को इन सब की कोई जरूरत नहीं है. यह सब चीजें उसे मैला और गंदा करती हैं. यह सारी गंदगी नदी की सतेह को गंदा करती है. केशर बताते हैं, “जल प्रदूषण दो तरह का होता है. पहला प्वाइंट सोर्स प्रदूषण होता है और दूसरा नौन प्वाइंट सोर्स प्रदूषण. प्वाइंट सोर्स प्रदूषण पहचाना जा सकता है लेकिन नौन प्वाइंट सोर्स प्रदूषण का पता नही लगता. यह प्रदूषण ज्यादातर नदियों में फूल पत्ती औैर लोगों के स्नान करने से फैलता है. ऐसे प्रदूषण से पानी में कौलीफैर्म बैक्टीरिया, मल के विषाणु और सुपरबग बैक्टीरिया हो जाते हैं. मनुष्य जब इस प्रदूषित पानी में प्रवेश करता है तो यह बैक्टीरिया उस के शरीर के अंदर प्रवेश कर जाते हैं और वह एक गंभीर बीमारी से पीडि़त हो जाता है. इन सभी बैक्टीरिया में मानव मल का विषाणु से अधिक खतरनाक होता है. यदि यह पेट में चला जाए तो मनुष्य निश्चित ही किसी जानलेवा बीमारी के आगोश में चला जाएगा.”

सूखती मरती नदियां क्या देंगी जीवन

बड़ी बात तो यह है कि लगातार गंदे होते तलाब, नदियों और जलाश्यों में पाय जाने वाले बैक्टीरिया पर भी कीटनाशकों और मशीनी साफ सफाई का कोई असर नहीं पड़ता औैर इनकी रिस्सिटैंट पावर बढ़ती जाती है. ऐसे में मानव शरीर में इन के प्रवेश पर कोई भी ऐंटीबायोटिक दवाओं का असर नहीं होता है. यह विचार करने योग बात है कि नदियों से इस तरह के जुड़ाव का क्या फायदा जो उन्हें भी मार रहा है और खुद को भी. केसर कहते हैं, “नदियों की स्थिती कुछ ज्यादा ही खराब है. पहले इन में जीव जीवन होता था.

जल में रहने वाले जीव ही गंदगी साफ कर दिया करते थे लेकिन अब बढ़ते प्रदूषण के कारण नदियों का जीव जीवन समाप्त होता जा रहा है और इसी लिए नदियां मरती जा रही हैं. अब तो हालात यह हैं कि ग्राउंड वाटर भी प्रदूषित होता जा रहा है. हालही में गंगा और यमुना नदी के ग्राउंड वाटर पर हुई रिसर्च में सामने आया है कि इस में ऐसे तत्व पाए गए हैं , जिन्हें महंगे वाटर फिल्टर से भी नहीं निकाला जा सकता है. इनके त्वरित परिणाम भले ही देखने को न मिले लेकिन भविष्य में यह सेहत के लिए घातक ही साबित होंगे. यदि लोग पूजा पाठ करने के स्थान पर नदियों के किनार पेड़ पौधे लगा दें तो इससे नदियों का भी भला होगा और मनुष्य का भी.”

सूखती मरती नदियां,तलाब, कुंड मनुष्य को केवल मौत ही दे सकते हैं. इनसे धन, मोक्ष और अन्य किसी तरह का लालच खुद के लिए ही हानिकारक है. यदि हम इन की सुरक्षा करेंगे तो यह भी हमें सुरक्षित रखेंगी नहीं तो अंधविश्वास में आंखे मूंदे कुछ भी कर लें व्यर्थ है.

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