प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन की सरकार का साढ़े 4 साल का काम अगर लोगों को खुश या संतुष्ट कर देने वाला रहा होता तो भगवा खेमे को अयोध्या में राममंदिर निर्माण का जिन्न बोतल से फिर बाहर निकालने की जरूरत न पड़ती. मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में एक भी काम ऐसा नहीं हुआ है जिस पर आम लोग तालियां ठोंक रहे हों. उलट इस के नोटबंदी के चलते और जीएसटी के लागू होने पर अधिकांश देशवासी अभी तक छाती पीट रहे हैं.
चुनाव नजदीक आते ही राममंदिर निर्माण का मंच फिर सज गया है. पात्रों ने अपनी भूमिका के मुताबिक रटेरटाए डायलौग बोलने शुरू कर दिए हैं. हालत यह है कि देशभर के साधुसंत चेतावनी दे रहे हैं, कोई अयोध्या में अनशन पर बैठा है तो कोई सरकार को हड़का रहा है कि जितनी जल्द हो सके मंदिरनिर्माण बाबत संसद में कानून बनाओ. सुप्रीम कोर्ट ने कोई ऐसी राहत भी नहीं दी जैसी कि ट्रिपल तलाक मामले ने दी थी. उलटे, सबरीमाला मामले ने अमित शाह और सुप्रीम कोर्ट को आमनेसामने खड़ा कर दिया.
मंदिरनिर्माण की स्क्रिप्ट
बीती 5 अक्तूबर को दिल्ली में इकट्ठा हुए देशभर के नामीगिरामी संतों ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिल कर उन्हें एक ज्ञापन सौंपा था जिस का मसौदा यह था कि महामहिम अपनी सरकार से कहें कि वह अब कानून बना कर रामजन्मभूमि पर मंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त करे. राष्ट्रपति के पास मानो कोई जादू की छड़ी है जिस से मंदिर बन जाएगा.
यह आग्रह को कुछ दिनों पहले ही विश्व हिंदू परिषद से जुड़े साधुसंतों की उच्चाधिकार समिति की एक बैठक में किया गया था. 2019 के चुनावों के लिए मंदिरनिर्माण की षड्यंत्रकारी स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी है. सभी राज्यों के प्रमुख साधुसंत राज्यपालों, जो सभी भाजपाई कट्टरपंथी हैं, से मिल कर उन्हें इस बाबत ज्ञापन देंगे. वे देश के मठों, मंदिरों, आश्रमों, गुरुद्वारों और घरों तक में मंदिरनिर्माण के लिए नाना प्रकार के अनुष्ठान करेंगे.
भाजपा के पूर्व सांसद रामविलास वेदांती, जोकि राममंदिर जन्मभूमि ट्रस्ट के सदस्य भी हैं, ने तो मंदिरनिर्माण की तारीख भी घोषित कर दी कि राममंदिर के निर्माण का काम 6 दिसंबर से शुरू हो सकता है.
साफ है कि वेदांती जैसे सैकड़ों, हजारों नेताओं ने भी साधुसंतों के साथ ताल ठोक ली है. 6 दिसंबर, 1992 को देशभर से एक धुआं उठा था. ‘सौगंध राम की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे’ और ‘एक धक्का और दो बाबरी मसजिद तोड़ दो’ के नारों पर पूरा देश बौरा उठा था. उस दौर की हिंसा 1975 के आपातकाल और 1984 में हुए सिखों के खिलाफ दंगों से कई गुना ज्यादा साबित हुई.
आरएसएस का भी मिला साथ
जब रामलीला का मंच सज गया और सभी पात्रों ने मुकुट व रेशमी कपड़े पहन कर स्थान ग्रहण कर लिया तब धमाकेदार एंट्री हुई आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की जो इस दरबार और अभियान के राजर्षि हैं. यह कहना ज्यादा सटीक होगा कि वे इस दरबार के लिए त्रेतायुग के वशिष्ठ और विश्वामित्र तथा द्वापर के विदुर हैं. दशहरे के दिन आरएसएस मुख्यालय से मोहन भागवत ने उद्घोष किया कि सरकार राममंदिर निर्माण के लिए कानून लाए.
प्राचीन ऋषिमुनियों की तरह उन्होंने हे राजन तो नरेंद्र मोदी को नहीं कहा, लेकिन राजा के कर्तव्य गिना दिए कि देशभर के करोड़ों लोगों की आस्था राममंदिर से जुड़ी है, इसलिए अयोध्या में जमीन के स्वामित्व के संदर्भ में फैसला जल्द से जल्द हो जाना चाहिए.
हर किसी को समझ आ रहा है कि आरएसएस अब अपने वास्तविक रूप और सनातनी एजेंडे पर है. उस का सब्र जवाब दे चुका है, क्योंकि देश के हालात दिनोंदिन बिगड़ते जा रहे हैं. नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से नीचे गिर रहा है और हिंदू समुदाय के सवर्णों में भी अजीब सी बेचैनी है, जिसे 2019 के चुनाव के पहले दूर किया जाना जरूरी है. वरना भाजपा इस तरह औंधेमुंह गिरेगी कि उस का फिर 20-25 साल तक सत्ता में आ पाना मुश्किल हो जाएगा.
नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में संत समुदाय और आरएसएस का बड़ा योगदान था. उन का राजतिलक ठीक वैसा ही था जैसा दुर्योधन ने अवैध संतान कर्ण का और राम ने बानर यानी आदिवासी सुग्रीव का किया था. छोटी जाति वालों से तयशुदा दूरी बना कर चलने वाले आरएसएस और संत समाज ने राममंदिर निर्माण की शर्त पर ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाया था और उन के लिए लालकृष्ण आडवाणी को बड़ी बेरहमी से एक कोने में ढकेल दिया था.
उपकार का बदला मंदिर
वह 7 फरवरी, 2013 का दिन था जब लखनऊ में खासी गहमागहमी थी. लोकसभा चुनाव सिर पर थे और भाजपा को प्रधानमंत्री पद का चेहरा पेश करना था. वरिष्ठता और कदकाठी के लिहाज से लालकृष्ण आडवाणी उपयुक्त थे.
उस महत्त्वपूर्ण दिन विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित धर्मसंसद में एक महासंगम हुआ था और लंबी जद्दोजेहद के बाद अमृतकलश के रूप में नरेंद्र मोदी प्रकट किए गए थे.
साधुसंतों ने फैसला लिया कि भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी होंगे. इतना ही नहीं, जगत्गुरु कहे जाने वाले रामाजुनाचार्य सहित कई साधुसंतों ने प्रतिज्ञा की थी कि वे नरेंद्र मोदी के प्रचार के लिए खुद को झोंक देंगे.
तब महंत योगी आदित्यनाथ जो अब उत्तर प्रदेश के मुख्मंत्री हैं, ने भविष्यवाणी कर डाली थी कि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनेंगे और तभी राममंदिर का निर्माण हो पाएगा.
अब सबकुछ भाजपा के हाथ में है तो मंदिर क्यों नहीं बनाया जा रहा, इस सवाल का जवाब हर कट्टरपंथी मांग रहा है.
2019 के चुनाव के ठीक पहले मुहूर्त निकाल कर राममंदिर का मुद्दा फिर जिंदा किया गया है तो इस के पीछे और भी कई वजहें हैं जो नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में पैदा हुईं और उन्हें नाकाम करार देती हैं. इन में यह नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के फैसले प्रमुख हैं. पैट्रोल के दामों में वृद्धि, रुपए का रिकौर्ड स्तर तक गिरना और डौलर का मजबूत होना जनता को खल रहा है.
असल बात पंडापुरोहितवाद, सवर्णों के हित और हिंदू राष्ट्र निर्माण की है जिस की बाबत साढ़े 4 साल देशभर में खूब मौब लिंचिंग हुई और गौरक्षा के नाम पर दलितों व मुसलमानों का सरेआम कत्ल किया गया. हां, पहले ब्राह्मणक्षत्रिय लाठी चलाते थे, अब ठेका पिछड़ों के भगवा वर्ग को दे दिया गया है. आने वाले वक्त में उन का रोल नरेंद्र मोदी से कहीं ज्यादा अहम होगा. हिंदूवादी एजेंडे पर चलते मंदिरों और गौशालाओं के अलावा गंगा पर ध्यान दिया जा रहा है. शहरों के नाम भी बदले जा रहे हैं और धार्मिक पर्यटन के नाम पर धार्मिक शहरों को चमकाने में तबीयत से सरकारी पैसा लुटाया जा रहा है.
अब हैरानी नहीं होनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी कभी भी साधुसंतों और आरएसएस सहित दूसरे हिंदूवादी संगठनों का एहसान चुकाने के लिए यह घोषणा कर दें कि करोड़ों हिंदुओं की आस्था का सम्मान करते हुए सरकार कानून बना कर राममंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगी और इस बाबत अध्यादेश शीतकालीन सत्र में ही लाया जाएगा. इस के बाद चुनाव हैं, इसलिए यह संसद का आखिरी सत्र होगा. यह अध्यादेश तुरंत सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया जाएगा और मामला खटाई में पड़ जाएगा, राम को फिर वनवास पर जाना पड़ेगा.
एक तीर से कई निशाने
पौराणिकवादी तीर से कई निशाने साधे जा रहे हैं. चिंता देश की नहीं, बल्कि अपने धार्मिक कारोबार की है जिस का बड़े पैमाने पर नवीनीकरण मुद्दत से नहीं हुआ है.
पहला निशाना भजभज मंडली ने सवर्णों पर साधा है जो उन का सब से बड़ा वोटबैंक है. इसी वर्ग से पूजापाठ, यज्ञहवन चलते हैं और दानदक्षिणा मिलती रहती है. ऊंची जाति वाले अपने पूर्वाग्रहों और नीची जाति वालों पर अत्याचार ढाते रहने के लिए कभी धर्म नहीं छोड़ेंगे. यह ये धंधेबाज भी समझते हैं. इस हथियार की धार वे और कुंद नहीं पड़ने देना चाहते.
एट्रोसिटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर यह तबका पूरी तरह जश्न मना भी नहीं पाया था कि एनडीए सरकार को अध्यादेश ला कर कानून की पुनर्स्थापना करनी पड़ी, क्योंकि दलित विद्रोह को दबाना अब साधुसंतों के भी बस का नहीं रह गया. सवर्ण समुदाय सरकार के इस फैसले से कितना तिलमिलाया हुआ है, इस का अंदाजा इन साधुसंतों ने लगाया और उन का ध्यान बंटाने के लिए मंदिरनिर्माण का राग छेड़ दिया.
2 अप्रैल की दलित हिंसा नरेंद्र मोदी अगर बरदाश्त नहीं कर पाए तो इस की वजह दलित वोटों को खो देने का डर था, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें थोक में मिले थे. एट्रोसिटी एक्ट पर सरकार के झुकने से साफ हो गया कि दलितों ने अपने वोट और समर्थन की कीमत नरेंद्र मोदी सरकार से वसूल ली है. अब बारी सवर्णों की है.
इन संतमहंतों की मंशा सवर्णों को यह जताने की है कि दलित आदिवासियों और ईसाई व मुसलमानों को अगर वे दबाए रखना चाहते हैं तो अब इस का इकलौता उपाय मंदिरनिर्माण है. धर्म के इस काम में वे सहयोग देंगे तो ये तीनों वर्ग उन से डरेंगे. हां, यह पक्का है विष्णु के मुख्य अवतार राममंदिर में न दलित जाएंगे न पिछड़े. उन्हें तो दोयम देवीदेवताओं की पूजा का हक ही मिलेगा.
सवर्ण अभी भी गुस्से में हैं और एट्रोसिटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने की मांग कर रहे हैं. हालांकि यह मुद्दा सरकारी नौकरियों और गांवों के ही मतलब का है, जहां दोनों को साथ काम करना पड़ता है और दोनों जातिवर्ग बिल्ला लगा कर चलते हैं. ये लोग उन्हें उकसा रहे हैं कि जब एट्रोसिटी एक्ट संसद में बदला जा सकता है तो उस की तर्ज पर मंदिरनिर्माण अध्यादेश क्यों नहीं लाया जा सकता.
ऐसा देश में पहली बार हुआ कि साधुसंतों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा का विरोध इस मुद्दे पर साधुसंतों ने ही किया. सब से ज्यादा विरोध मध्य प्रदेश से इसलिए हुआ क्योंकि वहां विधानसभा चुनाव नजदीक हैं और भाजपा को खुलेआम धौंस दी जा रही है कि यह कानून वापस नहीं लिया गया तो वे पार्टी को वोट नहीं देंगे. अपनी बात में दम लाने के लिए सवर्णों ने सपाक्स नाम की पार्टी भी बना ली जो चुनावी मैदान में भी है.
सपाक्स से ज्यादा ब्राह्मण, कायस्थ और बनिए जुड़े हैं जो भाजपा का परंपरागत वोटर रहे हैं. कहने को भले ही यह रिटायर्ड कर्मचारियों, अधिकारियों और व्यापारियों की पार्टी हो, लेकिन इस से हर कोई सहमत है कि एट्रोसिटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला तो लागू होना ही चाहिए, साथ ही, जातिगत आरक्षण की व्यवस्था भी खत्म होनी चाहिए. सरकारी नौकरियां और मलाई शूद्रों के लिए नहीं, बल्कि उन के लिए हैं.
सवर्णों की दूसरी समस्याएं बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार हैं जो उन के गुस्से की आग में घी डालने का काम कर रही हैं.
सपाक्स भले ही चुनावी मैदान में कुछ न कर पाए लेकिन इस के जरिए भाजपा विरोधी बड़ा सवर्ण वर्ग तैयार हो रहा है जो कांग्रेस का कभी नहीं रहा. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को भी इस समस्या का हल मंदिरनिर्माण में दिख रहा है.
असली तीर पुरोहितवाद को थोपे रखने का है. देशभर के लाखों पंडेपुजारी भी हैरानपरेशान हैं कि नरेंद्र मोदी धार्मिक पाखंड तो पूरे मनोयोग से करते हैं, लेकिन इस से उन के धंधे में इजाफा नहीं हो रहा है.
साढ़े 4 सालों में आरएसएस और दूसरे हिंदूवादी संगठनों ने अपना एक बड़ा काम कर लिया है. यह काम सवर्ण, दलित खाई गहरी करना और दलितों के बीच फूट डालना है. उज्जैन के महाकुंभ में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सवर्ण संत अवधेशानंद को ले कर एक दलित संत उमेश योगी के साथ नहाए थे. उमेश
नाथ वाल्मीकि समाज के हैं जिन्हें महामंडलेश्वर बनाने का झांसा दे कर साथ नहाने के लिए तैयार किया गया था. इस सहस्नान से वाल्मीकि समुदाय के सदस्यों, जिन्हें भंगी और मेहतर कहा जाता है, के वोट भाजपा के खाते में आ गए थे.
अब ये वोट अलगथलग पड़ गए हैं, लेकिन इस खेल को एट्रोसिटी एक्ट पर सरकार के संसद में झुकने ने बिगाड़ कर फिर एक होने का मौका दे दिया तो सनातनवादियों को फिर बाजी अपने हाथ से जाती लगी.
हालफिलहाल जो शांति दिख रही है, वह 3 हिंदीभाषी राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों की वजह से है. वहां भाजपा हार भी जाए तो भगवा खेमे की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता, उलटे, मंदिरनिर्माण की आग वह और तेजी से फैलाएगा, जिस से 2019 हाथ से न फिसले.
देशप्रेम, राष्ट्रगान, गौरक्षा, भगवाध्वज और भारतमाता की बातें करने वाला भगवा खेमा अब देशहित की बात नहीं कर रहा, वह आस्था की दुहाई दे रहा है. पर यह नहीं बता पा रहा, न कभी बता पाएगा कि क्या इस आस्था से महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी कम हो जाएंगी और किसानों की आत्महत्याएं थम जाएंगी. वह तो यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि इन समस्याओं की वजह मोदी सरकार नहीं, बल्कि आम लोगों का धर्म से विमुख होना है और धीरेधीरे लोग उस से सहमत होते भी नजर आ रहे हैं.
यकीन मानें मंदिरनिर्माण के शोर में सारी समस्याएं दब कर रह जाएंगी. अब बारी आम लोगों की अपनी भूमिका तय करने की है कि वे क्या चाहते हैं धर्म के नाम पर हिंसा, वैमनस्य, भेदभाव या फिर शांति.
मंदिर निर्माण पार्ट 2 : ये बनाएंगे माहौल
राममंदिर निर्माण आंदोलन पार्ट 2 में यों तो सभी साधुसंत शामिल हैं, लेकिन मालदार और रसूखदार साधुसंतों की भूमिका इस में अहम होगी जिन का अपना एक अलग साम्राज्य और विशाल भक्तवर्ग है. भाजपा समर्थित इन साधुसंतों में शामिल कुछ चेहरे इस तरह हैं-
अवधेशानंद : जूना पीठ अखाड़े, हरिद्वार के महामंडलेश्वर अवधेशानंद महाराज के कोई 60 लाख शिष्य देशभर में हैं. इन में भी ब्राह्मणों और वैश्यों की तादाद ज्यादा है. जूना पीठ अखाड़े के पास देशभर में अरबों की जायदाद है और रोजाना लाखों का चढ़ावा भी आता है. अवधेशानंद के शिष्य अपने घरों में रोज सुबहशाम उन की तसवीर की पूजा करते हैं.
अवधेशानंद राममंदिर निर्माण को ले कर अभी खुलेतौर पर सामने नहीं आ रहे हैं. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से उन की गहरी छनती है. कहा तो यह भी जाता है कि वे शीर्ष उद्योगपति घरानों और सरकार के बीच मध्यस्थ का काम करते हैं.
नरेंद्र गिरि : उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मुरीद नरेंद्र गिरि अभी दिखावेभर को सरकार का विरोध कर रहे हैं. नरेंद्र गिरि भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष भी हैं. इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करवाने के लिए उन्होंने ही आदित्यनाथ पर दबाव बनाया था.
नरेंद्र गिरि के अनुयायियों की संख्या भी लाखों में है और उन के शिष्यों में छोटेमोटे साधुसंतों की तादाद खासी है. नरेंद्र गिरि असली और नकली संतों की पहचान करते हैं और लगातार विवादों में भी रहते हैं.
नृत्य गोपालदास : रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष नृत्य गोपालदास के चरणों में तमाम भाजपा नेता लोट लगाते हैं. इन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल हैं. जून 2016 में अयोध्या में जब नृत्य गोपालदास का 78वां जन्मदिन मनाया गया था तब देशभर के भाजपा नेता और छोटेबड़े साधुसंत इस भव्य और खर्चीले आयोजन में शिकरत करने पहुंचे थे. शायद कोई सैलिब्रिटी भी अपने जन्मदिन पर इतना पैसा खर्च नहीं करता होगा जितना इस आयोजन पर खर्च हुआ था. राममंदिर मामले में पक्षकार होने के नाते भी वे अहम हैं.
निश्चलानंद सरस्वती : पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती के भक्तों और शिष्यों की संख्या 50 लाख से अधिक आंकी जाती है. पुरी पीठ के पास भी अरबों की जमीनजायदाद है. जो शंकराचार्य खुलेतौर पर भाजपा के सहयोगी हैं उन में निश्चलानंद का नाम सब से ऊपर है. पुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर में गैरहिंदुओं के प्रवेश का विरोध निश्चलानंद करते रहते हैं. इस बाबत वे सुप्रीम कोर्ट का भी लिहाज नहीं करते.
निश्चलानंद के नेतृत्व में होने वाले आयोजन काफी खर्चीले होते हैं. कट्टर सनातनी निश्चलानंद भाजपा को इस लिहाज से भी भाते हैं कि वे देश का विकास धर्म के जरिए करने की बात करते रहते हैं.
देवकीनंदन ठाकुर : 40 वर्षीय कथावाचक देवकीनंदन ठाकुर तेजी से लोकप्रिय होते युवा संत हैं और वक्त की नब्ज समझते वे सोशल मीडिया पर भी सक्रिय रहते हैं. खुलेतौर पर एट्रोसिटी पर सरकार का विरोध करने वाले इस संत के अनुयायियों की संख्या लगभग 12 लाख है. अपने प्रवचनों में नरेंद्र मोदी से राममंदिर बनाने की अपील करते रहने वाले देवकीनंदन भक्तों से चढ़ावा मांगने में हिचकते नहीं हैं. वे चंद सालों में ही करोड़ों के आसामी हो चुके हैं.
साध्वी प्रज्ञा सिंह : मालेगांव बम ब्लास्ट की आरोपी रही तेजतर्रार व खूबसूरत हिंदूवादी युवा साध्वी प्रज्ञा सिंह ने दोबारा कथावाचन और प्रवचन देना शुरू कर दिया है. मंदिरनिर्माण पार्ट 2 में उन की भूमिका वही आंकी जा रही है जो 90 के दशक में साध्वी उमा भारती और ऋतंभरा की थी. प्रज्ञा भारतीय युवापीढ़ी की धार्मिक भावनाएं भड़काने में माहिर हैं. लंबा वक्त जेल में काटने के बाद वे हिंदुत्व को ले कर और भी मुखर हो गई हैं तो भाजपा खेमा भी उन की पूछपरख व धार्मिक पुनर्स्थापना में जुट गया है. जाहिर है राममंदिर निर्माण में उन की भूमिका भी अहम होगी.
ये चेहरे रहेंगे गायब
लालकृष्ण आडवाणी : पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी 1992 के नायक थे जिन की रथयात्रा ने देशभर में मंदिर निर्माण को ले कर हिंसा की हद तक उन्माद पैदा कर दिया था. तब वे रथ पर सवार हो कर, देवताओं जैसा मुकुट पहन कर, हाथ में राम जैसा धनुषवाण ले कर निकलते थे तो गांवदेहातों से लोग उन के दर्शन के लिए टूट पड़ते थे. चंदे के नाम पर खूब नकदी के अलावा उन्हें महिलाएं अपने गहने तक उतार कर चढ़ा देती थीं. विवादित बाबरी मसजिद उन्हीं की अगुआई में ढहाई गई थी.
अब लालकृष्ण आडवाणी किस कोने में बुजुर्गावस्था कैसे काट रहे हैं, इस से न तो आरएसएस को सरोकार है और न ही भाजपा की दूसरी पीढ़ी के नेता उन्हें कोई भाव दे रहे हैं.
विनय कटियार : अयोध्या, फैजाबाद से 3 बार लोकसभा सदस्य रहे विनय कटियार राममंदिर निर्माण आंदोलन के वक्त 38 साल के थे. मुसलमानों के खिलाफ जब वे अपने भाषणों में जहर उगलते थे तो माहौल हिंदूमय हो जाता था. 90 के दशक में वे भाजपा का सब से युवा चेहरा थे जिस ने मंदिर निर्माण आंदोलन में बेहद आक्रामक भूमिका निभाई थी. मंदिर के लिए जेल जाना तो दूर की बात है, विनय कटियार मरने तक को भी तैयार रहते थे.
मुद्दत से हाशिए पर पड़े विनय कटियार हालिया घटनाक्रम में अपने लिए जगह तलाश रहे हैं.
कल्याण सिंह : बाबरी मसजिद विध्वंस की नैतिक जिम्मेदारी ले कर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले कल्याण सिंह को रिटायरमैंट देते 2014 में ही राजस्थान का राज्यपाल बना कर उन से छुटकारा नरेंद्र मोदी की टीम ने पा लिया था. बाबरी मसजिद ढहाने के लिए युवाओं की फौज तैयार करने वाले कल्याण सिंह अब 86 साल के हो चुके हैं और उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति से भी कट चुके हैं, इसलिए इस दफा मंदिरनिर्माण टीम से वे गायब हैं.
डा. मुरली मनोहर जोशी : 80 के दशक में पहली पंक्ति के जिन भाजपा नेताओं ने मंदिर के नाम पर कट्टर हिंदुत्व का माहौल बनाया था उन में मुरली मनोहर जोशी इसलिए भी खास हैं कि वे शिक्षित और तार्किक हिंदुओं को मंदिर बनाए जाने की जरूरत बताते थे. अब चूंकि वे संघ और संत दोनों की निगाह से उतर चुके हैं और उन की उम्र व सेहत भी ऐसी नहीं कि ढांचा ढहाना तो दूर की बात है, एक ईंट भी वे उठा पाएं, लिहाजा, मंदिर निर्माण पार्ट 2 में उन्हें कोई रोल दिए जाने की संभावना न के बराबर है.
उमा भारती : फायरब्रैंड नेत्री और साध्वी उमा भारती हिंदुत्व का चलताफिरता इश्तिहार हैं, जिन के बारे में कहा जा सकता है कि नाम ही काफी है. मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के एक निर्धन लोधी परिवार में जन्मीं उमा बचपन से ही भागवत और रामकथा बांचती रही हैं. राममंदिर निर्माण अभियान के वक्त उन के भाषण बेहद उत्तेजक और भड़काऊ होते थे. तब भाजपा को ऐसी साध्वी की सख्त जरूरत थी जो भगवा धारण कर देहाती जनता को उकसा सके. एक तरफ पेशेवर नेता भाषणों से जनता को उकसाते थे तो उमा यही काम रामकथा के जरिए करती थीं. सत्ता में आने के बाद उन्हें इस का इनाम भी भाजपा ने दिया.
मंदिर मसले पर वे एक ऐसी काठ की हांडी हैं जो दूसरी बार भी चढ़ सकती हैं. यह अलग बात है कि चूल्हे में पहले सी आंच नहीं रह गई है.
साध्वी ऋतंभरा : मानव सेवा और वात्सल्य के नाम पर वृंदावन में दर्जनभर संस्थान चलाने वाली साध्वी ऋतंभरा अपने अनुयायियों में दीदी के संबोधन से पुकारी जाती हैं. इस दीदी का रौद्र रूप 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में वात्सल्य का नहीं, बल्कि घृणा का था जो शुरू से ही मंदिरनिर्माण आंदोलन से जुड़ी रही थीं. पूरा देश घूम कर वे अपने आयोजनों में ‘मंदिर बनाएंगे धूम से’ का नारा दे कर माहौल बनाती रही थीं. मसजिद ढहाए जाने के बाद उन्होंने अघोषित रूप से इस अभियान से कन्नी काट ली थी. ऋतंभरा अभी भी मंदिर चाहती हैं, लेकिन इस बार वे अयोध्या शायद ही जाएं. जाहिर है मंदिर निर्माण पार्ट 2 में ऐसे कई छोटेबड़े अहम किरदार गायब रहेंगे, लेकिन कई नए चेहरे उन की जगह दिखेंगे.