इसे आदिवासियों की खूबी भी कहा जा सकता है और खामी भी कि वे हर उस आदमी पर भरोसा कर लेते हैं जो कुछ वक्त उनके इलाके में गुजारकर उनके भले की मीठी मीठी बातें करता है, उन्हें कानून और संविधान में लिखे उनके हक दिलाने के वादे करता है और फिर उनके वोट झटककर विधानसभा या लोकसभा में पहुँचकर एशोआराम की ज़िंदगी गुजारते भूल जाता है कि आदिवासी इलाकों में बिजली पानी सड़क और सेहत जैसी बुनियादी सहूलियतों का टोटा है और बाहरी लोग और व्यापारी उसका कैसे कैसे शोषण करते हैं.
मध्यप्रदेश की राजनीति में सभी दलों और नेताओं को आदिवासियों की सुध चुनाव के वक्त ही आती है जिनकी नजर में ये महज वोट होते हैं. लेकिन इस बार आदिवासी समुदाय में उम्मीद की एक किरण जागी थी जब उन्हीं के समुदाय के एक युवा पेशे से डाक्टर हीरालाल अलावा एम्स जैसे नामी संस्थान की नौकरी छोडकर राजनीति के मैदान में कूद पड़े थे. आदिवासियों के भले और लड़ाई के लिए उन्होने जय आदिवासी युवा शक्ति नाम का संगठन बनाया था जो जयस के नाम से मशहूर हुआ. अलावा के आव्हान पर देखते ही देखते देश भर के कोई दस लाख आदिवासी युवा जयस से जुड़ गए जिनका मकसद और ख़्वाहिश दोनों अपनी बिरादरी के लोगों को बदहाली की दलदल से उबारना था.
इस साल के शुरू से ही जयस की ताबड़तोड़ सभाएं निमाड इलाके में हुईं ख़ासी तादाद में आदिवासी मीटिंगों में गए भी तब उन्हें कतई इस बात का अंदाजा नहीं था कि इस बार धोखा कोई बाहरी आदमी या नेता नहीं बल्कि अपने बाला ही दे रहा है, जयस के संस्थापक हीरालाल अलावा ने आदिवासियों को समझाया कि राजनीति के जरिये हक जल्दी मिल सकते हैं इसलिए जयस इस चुनाव में 80 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी और सरकार चाहे भाजपा की बने या कांग्रेस की बिना उसकी भागीदारी के नहीं बन पाएगी फिर आदिवासी अपनी शर्तों पर सरकार को मजबूर कर सकता है कि सरकार उनके भले के काम करे.
दिनरात एक कर हीरालाल अलावा ने तूफानी दौरे जब निमाड इलाके के किए तो भाजपा और कांग्रेस दोनों की नींद उड़ गई क्योकि वाकई जयस की हवा चुनाव आते आते आँधी में तब्दील हो गई थी उसका अपना खासा वोट बेंक तैयार हो गया था. राजनीति के जानकार भी यह मानने मजबूर हो गए थे इस चुनाव में जयस एक बड़ी ताकत बनकर सामने आएगी.
कुछ दिन पहले तक किसी से गठबंधन न करने का राग अलाप रहे अलावा ने कांग्रेस से गठबंधन के संकेत देते जयस के लिए 80 सीटें मांगी लेकिन बात नहीं बनी क्योकि इतनी सीटें देने की बात कांग्रेस सोच भी नहीं सकती थी. धीरे धीरे वे नीचे उतरे और 4-6 सीट पर भी राजी होने लगे तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को समझ आ गया कि एक बड़ा संगठन तो इस नौजवान डाक्टर ने बना लिया है लेकिन अब चुनावी वक्त में वह उसे संभाल नहीं पा रहे हैं और इसकी वजह उन पर आदिवासियों की उम्मीदों का बढ़ता बोझ और पैसों की कमी है लिहाजा जयस को अलग ताकत बनने से रोका जाये.
राजनीति के तजुर्बेकार और सधे खिलाड़ी कमलनाथ ने सब्र दिखाते हीरालाल अलावा को यह एहसास करा दिया कि गठबंधन तो नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस आदिवासी इलाकों में अभी भी मजबूत है और जयस उसके नहीं भाजपा के ज्यादा वोट काटेगी लिहाजा जयस जितनी चाहे ज़ोर आजमाइश कर ले. बात सच भी थी कि जयस के उम्मीदवार वोट तो ठीकठाक ले जाते लेकिन जीत नाममात्र की ही सीटों पर पाते और इस पर भी डर यह था कि जीतकर वे मंत्री पद के लालच में सरकार की गोद में जा बैठते.
इस मुकाम पर आकर हीरालाल अलावा के हाथपैर ढीले पड़ गए और सभी को चौंकाते हुये वे खुद कांग्रेस की गोद में जा बैठे वह भी इस मामूली शर्त के साथ कि कांग्रेस उन्हें धार जिले की मनावर सीट से टिकिट देगी जो कि उसने दिया भी.
जीत में रोड़े ज्यादा – अब निमाड इलाके में तरह तरह की बातें हो रहीं हैं जिनमे से अहम यह है कि हीरालाल अलावा पहले तो आदिवासियों के जज़्बातों से खेले और जब कुछ कर दिखाने का मौका यानि चुनाव सर पर आ गया तो एन वक्त पर पीठ दिखाते सौदेबाजी कर कांग्रेस से क्यों जा मिले और इस बाबत उन्हें और क्या क्या मिला. अब हालत यह है कि उनसे नाराज युवा जयस से कट कर घर बैठने लगा है और कांग्रेसी कार्यकर्ता भी उनका खुले आम विरोध कर रहे हैं. इसके अलावा हीरालाल अलावा की एक बड़ी दिक्कत भाजपा की तगड़ी उम्मीदवार रंजना बघेल हैं जो इस सीट से 2 बार विधायक और मंत्री भी रहीं हैं. रंजना भी युवाओं में लोकप्रिय हैं और उनके साथ पूरी भाजपा मजबूती से खड़ी है.
जाहिर है हीरालाल अलावा की जीत गारंटेड नहीं है उन्हें तो कांग्रेस ने बड़ी चालाकी दिखाते मोहरा बना दिया है वजह वे जीते तो इसे कांग्रेस की जीत और हारे तो जयस और हीरालाल अलावा की हार कहा और माना जाएगा. यह बात उनके नजदीकी समर्थक भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कांग्रेस से सौदेबाजी अगर होना या करना ही थी तो वे जयस से ही क्यों नहीं लड़े कांग्रेस का समर्थन लेकर वे ज्यादा मजबूती से रंजना बघेल को टक्कर दे पाते.
इस चुनावी गुणभाग से दूर सवाल उन वादों और सब्जबागों का भी है जो उन्होने आदिवासियों को दिखाये थे कि एकजुट रहें तो हम यह कर सकते हैं , वो कर सकते हैं. अब सवालिया निशान उनकी मंशा पर भी लग रहा है कि जब कांग्रेस भी भाजपा की तरह शोषक उनकी निगाह में थी तो वे क्यों विधायक बनने के लालच में उसकी गोद में जा बैठे और इससे आदिवासियों को क्या हासिल होगा.
अब बाहरियों के हाथों छला जाता रहा आदिवासी समुदाय अपने ही समुदाय के नौजवान के हाथों धोखा खाकर उन्हें इनाम देगा या सजा यह 11 दिसंबर को पता चलेगा जब अहम हो गई मनावर सीट का नतीजा सामने आएगा.