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शादी के बाद मीनू ससुराल आई तो घर के लोगों ?की सोच काफी पुरानी थी. उसे बातबात पर नीचा दिखाने की कोशिश की जाती थी. फिर भी मीनू सब को उचित सम्मान देती थी, सब का खयाल रखती थी.

कुछ दिनों बाद वह अपने मायके आई तो वहां भी खुद के लिए घर वालों का व्यवहार बदला पाया. छोटा भाई जहां लफंगे दोस्तों के साथ घूमने लगा था, वहीं छोटी बहन रेनू गलत सोहबत में पड़ गई थी.

यह सब देख कर मीनू उदास तो हुई पर फिर मन ही मन ठान लिया कि वह अपनी बहन और भाई को सही रास्ते पर ला कर ही दम लेगी.

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मैं अचानक अपने कमरे में जा कर अपने सामान की दोनों गठरियां उठा लाई. कपड़े तो मैं ने घर में काम करने वाली को देने के लिए आंगन में ही रख दिए पर पुस्तकों को जा कर मां के बड़े संदूक में रख आई.

मैं ने बड़े चाव से पापा व मम्मी की पसंद का खाना बनाया. मैं किचन से निकल ही रही थी कि मम्मी मुझे आवाज दे कर बुलाने लगीं. वहां जा कर देखा कि मम्मी पापा के रिटायरमैंट में मिले उपहारों का अंबार लगाए बैठी थीं. देखते ही बोलीं, ‘‘मीनू इधर आ कर देख. तुझे क्याक्या ले जाना है… तेरे जाने की तैयारी कर रही थी.

मैं सोच रही थी तुझ से पूछ कर ही तेरा सामान पैक करूं?’’

मैं हैरान रह गई कि मुझ से पूछे बिना ही मेरी जाने की तैयारी शुरू हो गई. मैं मन ही मन टूट सी गई, क्योंकि मैं तो 8 दिन रहने का सपना संजो कर आई थी. यहां तो चौथे दिन ही विदा करने का मन बना लिया.

अनुभवी मां ने शायद हम तीनों भाईबहनों के ऊपर गहराते तनाव के बादल और गहरे होते देख लिए थे. मैं ने समझदारी से काम लेते हुए चेहरे पर निराशा का भाव न लाते हुए बड़ी सहजता से कहा, ‘‘अरे नहीं मम्मी, अभी 2 महीने पहले ही तो सब कुछ ले कर विदा हुई हूं. आप फिर शुरू हो गईं?’’

मम्मी ने चुपचाप पापा को मिले उपहारों में से कुछ उपहार छांट कर एक ओर रख दिए और बोलीं, ‘‘तूने तो कह दिया कुछ नहीं चाहिए, पर हमें तो अपने मानसम्मान का ध्यान रखना है… तेरी ससुराल वाले कहेंगे बेटी को खाली हाथ भेज दिया.’’

मैं ने चुप रहने में ही भलाई समझी. चुपचाप सामान देखने लगी. कुछ सामान घरगृहस्थी के उपयोग का था. कुछ कपड़े थे. मैं ने सारा सामान समेटा और अपने सूटकेस में रखने जाने लगी. आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. शुक्र है कमरे में कोई नहीं था. अटैची खोली तो बड़े चाव से साथ लाए कपड़े मुंह चिढ़ाने लगे मानो पूछ रहे हों कितने अवसर मिले हमें पहनने के?

मन की वेदना कम करने के लिए अपनी सब से प्रिय सखी चित्रा को फोन किया पर वह भी शहर से बाहर गई हुई थी. समय काटे नहीं कट रहा था. जिस मायके आने के लिए इतनी ज्यादा उतावली हो रही थी वहां अब 1-1 पल गुजारना कठिन हो रहा था. समय जैसे रुक गया था.

कुछ देर पापा के पास बैठ कर उन से उन के आगे के प्लान पूछने लगी. वे भी निराश से ही थे. इतनी महंगाई में केवल पैंशन से गुजारा होना कठिन था. पापा भी हमेशा से स्वाभिमानी, गंभीर और मितभाषी रहे हैं. चाहते तो किसी अकाउंट विभाग में नौकरी कर सकते हैं, पर बेचारे कहने लगे, ‘‘मीनू मैं जानता हूं कि पैंशन के पैसे रोजमर्रा के खर्चों के लिए कम पड़ेंगे पर क्या करूं? सिफारिश का जमाना है. इस उम्र में नौकरी के लिए किस के आगे हाथ जोड़ूं?’’

यह सुन मन बहुत दुखी हो गया. मैं रोष से बोली, ‘‘आप लोगों ने मेरी शादी की बहुत जल्दी मचाई वरना उस समय मुझे अपने ही कालेज में लैक्चररशिप मिल रही थी. मैं ने आप लोगों से शादी न करने की कितनी जिद की थी पर आप दोनों माने ही नहीं.’’

पापा बोले, ‘‘मीनू बेटा कब तक तेरी शादी न करता बता? एक दिन तो तुझे जाना ही था. पराया धन कोई कब तक अपने घर में रख सकता है.’’

पापा की बात सुन कर मन फिर से खिन्न हो गया. यहां पर भी पराई और ससुराल में भी पराई… मन हाहाकार कर उठा. तो फिर मेरा कौन सा घर है? मैं हूं किस की? आंखें फिर बरसने लगी थीं. बड़ी कठिनाई से स्वयं को संभाल कर मम्मी के साथ किचन में हाथ बंटाने लगी.

मम्मी कहने लगीं, ‘‘आराम से बैठ. मैं सब कर लूंगी. अब तो अकेले ही सब करने की आदत पड़ गई है. रेनू तो किचन में झांकती भी नहीं. बस कालेज, पढ़ाई और कुछ नहीं.’’

मन तो हुआ कि रेनू की बात बता कर मम्मी को सजग कर दूं पर घर का माहौल और खराब न हो जाए, यह सोच कर चुप रही.

अगले दिन सवेरे जल्दी उठ कर नहाधो कर तैयार हो गई. मन उचाट सा हो गया था. दिल कर रहा था जल्दी से निकल जाऊं. कम से कम घर का माहौल तो सामान्य हो जाए. जल्दीजल्दी नाश्ता किया. राजू ही छोड़ने जा रहा था. नीचे औटो आ गया तो मैं सब से मिलने लगी. मैं ने बड़े प्यार से आगे बढ़ कर रेनू को गले लगाया. वह अनमनी सी मेरे जाने के इंतजार में खड़ी थी. उस ने जल्द ही मुझे अपने से अलग कर लिया और सिर झुका कर खड़ी हो गई.

एक बार फिर मैं मम्मीपापा के गले लग कर रो पड़ी. उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेर कर चुप कराया. मैं भावों का और अधिक प्रदर्शन न करते हुए सीढि़यां उतर गई. राजू ने औटो में सामान रख दिया. पापा तो नीचे ही आ गए थे, परंतु मम्मी और रेनू ऊपर बालकनी में ही खड़ी थीं. मैं ने औटों में बैठ कर हाथ हिलाया. ऊपर से भी हाथ हिलते नजर आए. देखतेदेखते सब आंखों से ओझल हो गए.

इस प्रकार मायके से मेरी दूसरी बार विदाई हुई. बसस्टैंड पर बस खड़ी थी. राजू ने मुझे बस में बैठाया फिर बोला, ‘‘दीदी कालेज को देर हो रही है,’’ और फिर नीचे उतर गया.

उतर कर राजू ने एक बार बस की खिड़की की ओर पलट कर देखा. मैं उसी की ओर देख रही थी.

‘‘बाय,’’ कह वह तेजी से चलता हुआ भीड़ में गुम हो गया.

राजू के जाते ही मन में एक गहरी टीस उठी. मैं बस में बैठी सोचने लगी कि समय कैसे बदलता है. मैं रेनू और राजू दोनों की चहेती दीदी थी. हर काम में मुझ से सलाह मांगते थे. मुझ से पूछे बिना एक कदम भी नहीं उठाते थे. आज दोनों कैसे पराए से हो गए थे. मेरे मन में दोनों के गुमराह होने की शंका किसी नाग की तरह फन फैला रही थी.

ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही याद आया कि मायके से 8-10 दिन रहने की अनुमति ले कर गई थी पर 4 दिनों में ही लौट आई. कोई बहाना ही बनाना होगा. मेरे दिमाग ने काम किया. रवि भैया ने जैसे ही दरवाजा खोला मैं ने नकली मुसकान का मुखौटा ओढ़ लिया.

रवि हैरानी से बोला, ‘‘भाभी इतनी जल्दी कैसे? फोन कर देतीं. मैं लेने आ जाता.’’

हमारी आवाज सुन कर पापाजी आ गए.

मैं ने पापाजी के पैर छुए, फिर यभासंभव आवाज थोड़ी तेज कर के कहा, ‘‘वहां पापामम्मी का परिवार सहित भारतभ्रमण का कार्यक्रम पहले से ही तय था. वे सब मुझ से भी साथ चलने का अनुरोध कर रहे थे, पर मैं ने तो इनकार कर दिया. इसलिए जल्दी आना पड़ा.’’

मैं चाह रही थी कि अंदर कमरे में बैठी अम्मांजी भी सुन लें ताकि मुझे बारबार झूठ न बोलना पड़े. वैसे मेरा मन मुझे यह झूठ बोलने के लिए धिक्कार रहा था. अंदर अम्मां से जा कर भी मिली. उन्होंने बताया कि नीलम यहीं थी. कल ही गई है. दरअसल, कुछ दिन बाद उस की बचपन की सहेली दिव्या की शादी है. वह पड़ोस में ही रहती है, इसलिए वह शादी में शामिल होने के लिए 2-3 दिनों के लिए फिर आएगी.

मैं थोड़ी देर पापाजी और अम्मां के पास बैठी रही. वे रिटायरमैंट के कार्यक्रम के विषय में पूछते रहे. किसी ने भी चाय तो क्या पानी को भी नहीं पूछा. मेरा सिर थकावट व तनाव से फटा जा रहा था. फिर किचन में जा कर सब के लिए चाय बना कर लाई. चाय पी कर थोड़ा तरोताजा हो रात के खाने की तैयारी में जुट गई.

2 दिन बाद ये भी मुंबई से लौट आए. इन का काम भी वहां जल्दी खत्म हो गया था. शेखर भी मुझे जल्दी आया देख कर चौंक गए. मैं ने मन में उठती टीस को दबाते हुए जबरन मुसकराते हुए कहा, ‘‘मुझे वहां आप के आने की महक आने लगी थी, इसलिए भागीभागी चली आई.’’

ये भी मूड में आ गए. मुझे पकड़ने दौड़े तो मैं हंसते हुए किचन में घुस गई.

जिंदगी फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगी. मैं बारबार ससुराल में अपनेपन का सुबूत पेश करने की कोशिश में लगी रहती और ससुराल वाले उन सुबूतों को झूठा साबित करने के प्रयास में रहते. यही करतेकरते थोड़ा समय और बीत गया.

2 दिन बाद नीलम जीजी आने वाली थीं. उन के पति व्यस्त थे. उन्हें शादी में बरात के समय ही शामिल होना था. परंतु नीलम जीजी सभी कार्यक्रमों में शामिल होना चाहती थीं, इसलिए 2 दिन पहले ही आ रही थीं. नीलम जीजी के आने की खबर से घर में उत्साह की लहर फैली थी. उन की सहेली के परिवार वाले निमंत्रणपत्र देने आए तो बारबार सभी से विवाह में शामिल होने की मनुहार कर रहे थे.

ससुराल शहर में ही थी, इसलिए नीलम जीजी शाम को ही औटो से आईं. राहुल भी साथ था और बहुत सा सामान भी. घर में मैं और अम्मां ही थे. मैं किचन में लगी थी. वे सारा सामान अकेले ही ले कर अंदर आ गईं. सहेली के विवाह में शामिल होने आई थीं, इसलिए बहुत अच्छे मूड में थीं. मैं ने आगे बढ़ कर उन्हें गले लगाया. उन्होंने फिर पहले की तरह मुसकान दी और स्वयं को मुझ से अलग करते हुए अम्मां के पास चली गईं.

अगले दिन दोपहर से संगीत का कार्यक्रम था. मुझे लगा कि मुझे भी नीलम साथ ले कर जाएंगी, इसलिए मैं जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी.

अचानक अम्मांजी की आवाज आई, ‘‘बहू, मेरा और नीलम का खाना मत बनाना. हमारा खाना वहीं होगा.’’

मैं आहत सी हो गई. मैं नईनवेली दुलहन पर मुझे तो कोई किसी योग्य समझता ही नहीं. मन मार कर काम में लग गई. तभी अचानक नीलम जीजी की जोरजोर से रोने की आवाजें आने लगीं. मैं डर गई कि क्या हुआ. कहीं राहुल को चोट तो नहीं लग गई. मैं आटे से सने हाथों को जल्दी से धो कर अंदर कमरे की ओर दौड़ी. अंदर जा कर देखा नीलम जीजी अपना सामान बिखराए रो रही थीं. अम्मांजी बैग खोल कर कुछ ढूंढ़ रही थीं. पूछने पर मालूम चला कि नीलम दीदी का एक बैग शायद जल्दबाजी में औटोरिकशा में ही छूट गया. उस में उन के जेवर भी थे.

यह सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा. अब तो औटोचालक की ईमानदारी पर ही उम्मीद लगाई कि शायद पुलिस स्टेशन में जमा करा दे अथवा घर आ कर लौटा जाए. नीलम को न तो औटो का नंबर याद था और न ही चालक का चेहरा. इस से परेशानी और बढ़ गई. घर में गहरा तनाव छा गया था.

पापाजी ने इन्हें भी औफिस से बुलवा लिया था. दोनों पुलिस स्टेशन रपट लिखवाने गए. पर वहां जा कर भी कोई ऐसी तसल्ली नहीं मिली जिस से तनाव कम हो जाता. बेटी का मायके आ कर जेवर खो देना मायके वालों के लिए बहुत बदनामी काकारण था. शेखर और रवि दोनों मिल कर जीजी को दिलासा दे रहे थे. नीलम जीजी एक ही प्रलाप किए जा रही थीं कि ससुराल जा कर क्या मुंह दिखाऊंगी. अम्मां औटो वाले को कोस रही थीं. मैं और पापाजी दोनों बेबस से खड़े थे.

उस दिन किसी ने खाना नहीं खाया. मैं ने बड़ी कठिनाई से राहुल को दूध व बिस्कुट खिलाए. अगले दिन शाम तक न पुलिस स्टेशन से कोई खबर आई और न ही औटोचालक का ही कुछ अतापता मिला. सभी निराश हो चले थे. मुझे नीलम जीजी की दशा देख कर बहुत दुख हो रहा था. कितने उत्साह से विवाह में शामिल होने आई थीं और किस परेशानी में घिर गईं. अगर कभी मायके जा कर मेरे साथ यह घटना हो जाती तो? यह सोच मैं मन ही मन कांप गई. मेरे मन में विचारों की उधेड़बुन चल रही थी कि कैसे नीलम जीजी की परेशानी दूर करूं.

अचानक दिमाग में बिजली कौंधी. मैं दृढ़ कदमों से अपने कमरे में गई और अपनी अलमारी से सारे जेवर निकाल लाई. जेवरों का डब्बा मैं ने नीलम जीजी को देते हुए कहा, ‘‘लो जीजी, ये जेवर आज से आप के हुए. मेरे तो फिर बन जाएंगे… अभी आप का जेवरों के कारण कोई अपमान नहीं होना चाहिए.’’

सभी हैरानी से मेरा मुंह देखने लगे मानो उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा हो.

कुछ ही क्षणों बाद घर के सभी सदस्य गहने लेने से इनकार करने लगे तो मैं ने सधे स्वर में कहा, ‘‘मैं जेवर, नीलम जीजी को दे कर कोई एहसान नहीं कर रही हूं. आप सब मेरा परिवार हैं. आप के मानअपमान में मैं भी बराबर की हिस्सेदार हूं. आजकल आएदिन लूटपाट की खबरें आती रहती हैं. गहने तो अधिकतर लौकरों की शोभा ही बढ़ाते हैं,’’ यह कह मैं किचन की ओर चल दी.

तभी नीलम जीजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगीं, ‘‘नहींनहीं भाभी मैं अपनी लापरवाही की सजा आप को नहीं दे सकती,’’ और फिर से जेवर वापस करने लगीं.

इस बार मैं ने उन्हें राहुल का वास्ता दे कर जेवर ले लेने को कहा. कोई चारा न देख कर उन्होंने जेवर ले लिए.

शेखर और रवि भैया मुझे प्रशंसाभरी नजरों से देख रहे थे.

पापा ने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘बहू, इस समय जो तुम ने हमारे लिए किया उसे हम जीवन भर नहीं भुला पाएंगे.’’

हर समय पराए घर की और पराया खून की रट लगाने वाली अम्मांजी लज्जित सी सिर झुकाए बैठी थीं. जेवरों का यों खो जाना कोई मामूली चोट न थी. फिर भी फिलहाल उस पर मरहम लगा दिया. सभी बेमन से थोड़ाबहुत खा कर सो गए.

नीलम जीजी जैसेतैसे सहेली की शादी निबटा कर चली गईं. ससुराल में जा कर बताया कि भाभी के जेवर नए डिजाइन के थे, इसलिए उन से बदल लिए. उन की ससुराल वाले खुले विचारों के लोग थे. अत: उन्होंने कोई पूछताछ नहीं की.

इस घटना के बाद से सब का मेरे प्रति व्यवहार बदल गया. शेखर बाहर घुमाने भी ले जाने लगे. खाना बन जाने पर रवि भैया और शेखरजी डाइनिंगटेबल पर प्लेटें, डोंगे रखवाने में मेरी मदद करते. खाने के समय सब मेरा इंतजार करते.

एक दिन तो अम्मां ने यहां तक कह दिया, ‘‘बहू रोटियां बना कर कैसरोल में रख लिया करो. सब के साथ ही खाना खाया करो.’’

मैं मन ही मन इस बदलाव से खुश थी. पर मन में रेनू और राजू की चिंता, किसी फांस की तरह चुभती रहती. मैं ऊपर से सामान्य दिखने का प्रयत्न करती रहती.

मुझे सहारनपुर से लौटे लगभग 2 महीने होने को आए थे.

पापा का 2-3 बार कुशलमंगल पूछने के लिए फोन आ चुका था. मम्मी से भी बात हो गई थी. रेनू और राजू से एक बार भी बात नहीं हो पाई. उन के बारे में जब भी पूछा, पापा ने घर पर नहीं हैं कह कर बहाना बना दिया. हो सकता है वे दोनों बात करना न चाहते हों.

कल रात जब खाना बना रही थी तो सहारनपुर से पापा का फोन आया. घबराए हुए थे. उन्होंने कहा, ‘‘मीनू बेटी, तेरी मम्मी की तबीयत खराब है, उन्हें पीलिया हो गया है. तुम्हें बहुत याद कर रही हैं.’’

मैं समझ गई मम्मी की तबीयत ज्यादा ही खराब होगी. तभी पापा ने मुझे फोन किया वरना नहीं करते. मेरी आंखें भर आईं. मैं ने पापा को आने का आश्वासन दे कर फोन काट दिया.

पीछे मुड़ी तो कमरे में अम्मां और पापाजी खड़े थे. मेरे चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर पूछने लगे, ‘‘बहू, मायके में सब कुशलमंगल तो है?’’

मम्मी की तबीयत के बारे में बतातेबताते मैं रो पड़ी.

अम्मां ने मुझे सांत्वना दी. पापाजी ने कहा, ‘‘तुम सुबह ही शेखर को ले कर चली जाओ. मम्मी की देखभाल करो. शेखर के पास छुट्टियां कम हैं पर 1-2 दिन रह कर लौट आएगा. तुम जितने दिन चाहो रह लेना.’’

अगले दिन मैं और शेखर सहारनपुर जा पहुंचे. सारा घर अस्तव्यस्त हो रखा था. मैं ने मम्मी को देखा तो हैरान रह गई. वे बहुत कमजोर हो गई थीं. आंखों में बहुत पीलापन आ गया था.

इलाज तो चल ही रहा था, पर मुझे तसल्ली न हुई. मैं और शेखर मम्मी को दूसरे डाक्टर के पास ले गए. शहर में इन का अच्छे डाक्टरों में नाम आता था. मुआयना करने के बाद डाक्टर ने कहा कि मर्ज काफी बढ़ गया है, पर परहेज और आराम करने से सुधार आ सकता है.

घर पहुंचने पर पाया रेनू और राजू भी आ गए थे. मुझे देख कर दोनों के चेहरे उतर गए, पर मैं भी उन से औपचारिक बातें ही करती.

चौथे दिन मम्मी के स्वास्थ्य में सुधार दिखने लगा. पापा के चेहरे पर भी रौनक लौट आई. यह देख बहुत अच्छा लगा. दोपहर को मैं मम्मी को खिचड़ी खिलाने लगी. घर में कोई नहीं था. मम्मी ने खिचड़ी खा कर प्लेट एक ओर रख कर मेरे दोनों हाथ पकड़ कर मुझे पलंग पर अपने पास ही बैठा लिया. उन की आंखों में आंसू थे.

वे रोते हुए बोलीं, ‘‘मीनू, बेटी पिछली बार हम से तुम्हारा बड़ा अपमान हो गया था. मुझे माफ कर दे बेटी. मैं मजबूर हो गई थी,’’ और फिर मेरे सामने हाथ जोड़ने लगीं.

मुझे बहुत बुरा लगा. मैं ने उन के हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मम्मी, आप यह क्या कर रही हैं? आप न तो पिछली बातें सोचेंगी और न ही कहेंगी. बस अपनी सेहत पर ध्यान दें.’’

धीरेधीरे मां खुलती गईं. अपनी मन की पीड़ा से मुझे अवगत कराने लगीं. उन्होंने बताया कि रेनू किस तरह घर के प्रति लापरवाह हो गई है. जब से बीमार हुईं हूं सवेरे ही कुछ बना कर डाइनिंगटेबल पर रख जाती है. शाम को भी यही हाल है. जल्दबाजी में कुछ भी कच्चापक्का बना कर दे देती है. कुछ कहो या पूछो तो गुस्सा हो जाती है.

राजू भी दिन भर बाहर रहता है. खानेपीने का कोई नियम नहीं. तेरे पापा ने चाय बनानी सीख ली है. चाय तो वे ही बना लेते हैं.

ये सब सुन कर मन बेहद दुखी हुआ. मैं भी रेनू और राजू के बहकते कदमों के बारे में मम्मी को सतर्क करना चाहती थी पर उन के स्वास्थ्य को देखते हुए मैं ने इस विषय पर चुप्पी ही साध ली.

अगले दिन मैं ने अपनी सहेली चित्रा को फोन किया. वह मुझ से मिलने घर आ गई. विवाह के बाद मैं उसे मिल न पाई थी. चित्रा मेरी बचपन की एक मात्र अंतरंग सखी थी. वह एक धनी व्यवसायी की बेटी थी, परंतु घमंड से कोसों दूर थी. बेहद स्नेहमयी थी. इसीलिए वह हमेशा मेरे दिल के करीब रही. दोनों एकदूसरे के दुखसुख में भागीदार रहती थीं.

चित्रा के आने पर मेरा मन खुश हो उठा. हम दोनों पहले मम्मी के पास बैठीं.

मम्मी बोलीं, ‘‘अरे चित्रा, आज तो तू मीनू को कहीं बाहर घुमा ला. जब से आई है मेरी सेवा में लगी है. अब मैं ठीक हूं.’’

चित्रा ने चलने का अनुरोध किया तो मैं मना न कर पाई. वह अपनी कार में आई थी. दोनों एक रेस्तरां में पहुंच गईं. चित्रा ने कौफी और सैंडविच का और्डर दिया. फिर दोनों बतियाने लगीं. चित्रा मुझ से मेरे विवाह और ससुराल के अनुभव सुनने के लिए बेताब थी. फिर अचानक चित्रा गंभीर हो गई. बोली, ‘‘मीनू, हम दोनों कितने समय बाद मिले हैं. मैं तेरा दिल दुखाना नहीं चाहती हूं पर इस विषय पर चुप्पी साध कर भी मैं तेरा और तेरे परिवार का नुकसान नहीं करना चाहती.’’

मैं ने उसे सब कुछ खुल कर बताने को कहा तो चित्रा ने कहा, ‘‘मीनू तू तो जानती है

कि मेरा छोटा भाई रजत और राजू कालेज में एकसाथ ही हैं. रजत ने मुझे बताया कि राजू 3-4 महीनों से कालेज में बहुत कम दिखाई देता है. वह कुछ दादा टाइप लड़कों के साथ घूमता है. प्रोफैसर उसे कई बार चेतावनी दे चुके हैं. मुझे लगता है उसे अभी न रोका गया तो वह गलत रास्ते पर आगे बढ़ जाएगा, फिर वहां से लौटना कठिन हो जाएगा.’’

मैं ने चित्रा को शुक्रिया कहा और बोली, ‘‘तू ने सही समय पर मुझे सचेत कर दिया. राजू से आज ही बात करती हूं.’’

बात निकली तो मैं ने रेनू के बारे में भी चित्रा को सब बता दिया. मेरी बात सुन कर चित्रा कहने लगी, ‘‘वैसे तो इस उम्र में लड़कियों और लड़कों में आकर्षण आम बात है पर परेशानी तब होती है जब लड़के मासूम लड़कियों को बहलाफुसला कर उन से संबंध बना कर उन के आपत्तिजनक वीडियो बना कर ब्लैकमेल करने लगते हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘बस चित्रा मुझे यही चिंता खा रही है. रेनू सुनने को तैयार ही नहीं है.

क्या करूं?’’

अभी हम बातें कर ही रही थीं कि एकाएक मेरी नजर सामने की टेबल पर पड़ी. वहां एक नवयुवक और एक नवयुवती हाथों में हाथ डाले जूस पी रहे थे. वे धीरेधीरे बातें कर रहे थे. मुझे लगा कि इस लड़के को कहीं देखा है. दिमाग पर जोर डाला और ध्यान से देखा तो याद आ गया. यह वही लड़का है, जिस के साथ रेनू बाइक पर घूमती है.

बस अब मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा. इस फ्लर्टी लड़के के चक्कर में रेनू मेरा इतना अपमान कर रही थी. मैं ने झटपट एक प्लान बनाया और चित्रा को समझाया. चित्रा वाशरूम जाने के बहाने उन दोनों के पास जा कर रुकेगी और मैं समय नष्ट न करते हुए मोबाइल से उन का फोटो ले लूंगी. अगर वह जोड़ा सचेत हो जाता है, तो मैं कैमरे का रुख चित्रा की ओर कर के उसे पोज देने को कहने लगूंगी. मगर दोनों प्रेमी अपने आसपास की चहलपहल से बेखबर एक ही गिलास में जूस पीने में मस्त थे. मैं ने जल्दी से फोटो लिए और हम दोनों रेस्तरां से बाहर आ गईं.

घर पर रेनू और राजू भी आ चुके थे. राजू तो चित्रा को घर आया देख सकपका सा गया

पर चित्रा को रेनू बहुत पसंद करती थी, इसलिए वह चित्रा से बहुत प्यार से मिली. एकदूसरे का हालचाल पूछ कर रेनू सब के लिए चाय बनाने चली गई.

कुछ देर रुक राजू मौका देख कर कोचिंग क्लास के बहाने बाहर जाने लगा तो चित्रा ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘‘क्यों मैं इतने दिनों बाद आई हूं, मुझ से बातचीत नहीं करोगे? मीनू के ससुराल जाने के बाद अब मैं ही तुम्हारी दीदी हूं. मुझ से अपने मन की बात कह सकते हो,’’ यह कहतेकहते वह राजू को अलग कमरे में ले गई.

चित्रा ने राजू को समझाया, ‘‘तुम्हारी हरकतों से तुम्हारा कैरियर तो खराब होगा ही, पूरे घर के मानसम्मान पर भी धब्बा लगेगा. तुम्हारे मातापिता तुम से कितनी उम्मीदें लगाए बैठे हैं.’’

राजू सब सिर झुकाए सुनता रहा.

चित्रा ने आगे कहा, ‘‘तुम कल से नियमित कालेज जाओ… उन लड़कों से मिलनाजुलना बंद करो. अगर इस में कोई भी समस्या सामने आती है, तो प्रोफैसर आदित्य के पास चले जाना. वे मेरे कजिन हैं. हर तरह से तुम्हारी मदद करेंगे. हां, अब तुम्हारी सारी गतिविधियों पर ध्यान भी रखा जाएगा. याद रहे तुम्हारी मीनू दीदी उसी कालेज में टौपर रह चुकी हैं.’’

राजू चित्रा का बहुत आदर करता था. अत: ये सब सुन कर रो पड़ा. उस ने चित्रा से वादा किया कि वह उन की बातों पर अमल करेगा. चित्रा ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई. तभी

रेनू चाय बना कर कर ले आई. उधर मैं ने भी अपना काम कर लिया. मैं ने रेस्तरां में खींचे गए फोटो वहीं रख दिए जहां टेबल पर रेनू ने चाय रखी थी. मैं वहां से उठ कर मम्मी के कमरे में चली गई.

रेनू चाय के लिए सब को बुलाने लगी. हम सब हंसतेखिलाते चाय पीने लगे. तभी रेनू की नजर फोटो पर पड़ गई, ‘‘किस के फोटो हैं ये?’’ कह कर उन्हें उठा लिया.

चित्रा बोली, ‘‘ये मेरे फोटो खींच रही थी. मेरे तो खींच नहीं पाई. यह जोड़ा रेस्तरां में बैठा था, उस की खिंच गई. मीनू तू तो मोबाइल से भी फोटो नहीं खींच पाती.’’

फोटो देखते ही रेनू के चेहरे का रंग बदल गया. हम चुपचाप अनजान बने चाय पीते रहे.

रेनू चुपचाप वहां से चली गई. हम थोड़ी देर बाद रेनू के कमरे में जा पहुंचे. वह बिस्तर पर पड़ी रो रही थी.

चित्रा ने उस से प्यार से रोने का कारण पूछा तो उस ने पहले तो बहाना किया पर उस का बहाना मेरे और चित्रा के सामने नहीं चला. मैं ने पुचकार कर पूछा तो उस ने उस लड़के के बारे में सब बता दिया. मैं ने और चित्रा ने उसे इस उम्र में होने वाली गलतियों से आगाह किया और पढ़ाईलिखाई में ध्यान देने को कहा.

रेनू रोतेरोते मेरे गले लग गई और बोली, ‘‘दीदी, मुझे डांटो, मैं बहुत खराब हूं.’’

तब मैं ने प्यार से समझाया, ‘‘सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. अब मम्मीपापा की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी है.’’

रेनू ने हां में सिर हिला दिया. राजू भी सिर झुकाए खड़ा था. वह भी मेरे गले लग गया.

चित्रा जाते समय मम्मीपापा से मिलने गई तो हंस कर बोली, ‘‘अंकल जिस काम के लिए मैं यहां आई थी उसे तो भूल कर जा रही थी. दरअसल, पापा ने मुझे आप के पास इसलिए भेजा था कि पापा को अपने व्यवसाय के लिए एक अनुभवी अकाउंटैंट चाहिए. यदि आप यह कार्य संभाल लें तो उन की चिंता कम हो जाएगी.’’

पापा की खुशी की सीमा न रही. बोले, ‘‘नेकी और पूछपूछ. चित्रा बेटी तुम्हारा यह उपकार कभी नहीं भूलूंगा.’’

यह सुन कर चित्रा प्यार भरे गुस्से से बोली, ‘‘अंकल आप ऐसा कहेंगे तो मैं आप से बहुत नाराज हो जाऊंगी.’’

पापा ने मुसकरा कर अपने कान पकड़ लिए तो सभी जोर से हंस पड़े. सारा माहौल खुशगवार हो गया.

मम्मी अब ठीक थीं. रेनू ने भी घर के कामकाज में ध्यान देना शुरू कर दिया था. मैं ने भी ससुराल लौटने की इच्छा जताई. इस बार राजू मुझे ससुराल छोड़ने जा रहा था. अगले दिन मैं जाने से पहले मम्मीपापा के कमरे के पास से गुजर रही थी तो मुझे उन की बातचीत सुनाई पड़ी.

मम्मी कह रही थीं, ‘‘देखो हम बेटियों को पराया धन, पराई अमानत कह कर दुखी करते हैं परंतु बेटियां पति के घर जा कर भी पिता की चिंता नहीं छोड़तीं.’’

पापा हंस कर बोले, ‘‘तुम ने वह कहावत नहीं सुनी है कि बेटे अपने तब तक रहते हैं जब तक न हो वाइफ और बेटियां तब तक साथ रहती हैं जब तक हो लाइफ.’’

यह सुन कर मैं भी मुसकरा दी. अगले दिन मैं मायके से विदा हो कर ससुराल आ गई. सभी मुझ से और राजू से बहुत प्यार से मिले. शेखर ने राजू को पूरी दिल्ली घुमाया. कई तोहफे दिए. नीलम जीजी भी राजू से मिलने आईं. राजू बहुत ही अच्छे मूड में विदा हुआ.

अम्मां के घुटनों के दर्द के लिए मैं एक तेल लाई थी. उस से मालिश कर के अम्मां और पापाजी के कमरे से निकली तो पापा की आवाज सुनाई दी, ‘‘बहुएं तो प्यार की भूखी होती हैं. जब तक उन्हें पराए घर की, पराए खून की कहते रहेंगे वे ससुराल में अपनी जगह कैसे बनाएंगी?’’

अम्मां बोलीं, ‘‘सच कह रहे हो शेखर के पापा… वे बेचारियां अपना मायके का सब कुछ छोड़ कर हमारे आसरे आती हैं और हम उन्हें अपनाने में पीछे हटते हैं.’’

‘‘ये नादानियां तुम्हीं ने सब से ज्यादा की हैं,’’ पापा ने कहा तो अम्मां ने शर्म से सिर झुका लिया.

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