महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन अब हिंसक हो उठा है. आंदोलन की आग गांवों तक पहुंच चुकी है. शुरू में अहमदनगर, औरंगाबाद और इस के बाद मुंबई, पुणे, ठाणे औ कोल्हापुर में हिंसा भड़की. राज्य के विभिन्न हिस्सों में अब तक 6 लोग मारे जा चुके हैं. नवी मुंबई में पुलिस लाठीचार्ज से एक युवक मारा गया. काका साहेब दत्तात्रेय शिंदे नामक युवक ने जलसमाधि ले ली. प्रमोद होरे पाटिल ने फेसबुक पर ऐलान कर रेल के आगे कट कर आत्महत्या कर ली.
राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत आरक्षण की मांग को ले कर मराठा सड़कों पर हैं. अब तक ये लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे लेकिन अचानक हिंसक हो उठे, आंदोलन से घबराई राज्य सरकार को तुरतफुरत पिछड़ा आयोग अध्यक्ष की नियुक्ति करनी पड़ी, सर्वदलीय बैठक बुलाई गई और विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने पर भी विचार करना पड़ा.
महाराष्ट्र में कोई भी दल मराठा आरक्षण का विरोध नहीं कर रहा. राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता शरद पवार आंदोलन में शामिल होते रहे हैं. शिवसेना समर्थन कर रही है. भाजपा भी खिलाफ नहीं है. पिछड़ा समुदाय की भाजपा मंत्री पंकजा मुंडे ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर उन्हें एक घंटे के लिए महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया जाए तो वह मराठा आरक्षण की फाइल पर साइन कर देंगी. इस पर शिवसेना प्रमुख उद्घव ठाकरे ने मांग कर दी कि पंकजा को मुख्यमंत्री बना दिया जाना चाहिए.
दरअसल मराठा आंदोलन का बीज 2016 में उस समय पड़ा जब अहमदनगर के कोपर्डी में एक मराठा लड़की की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी. इस मामले 3 दलित युवक शामिल थे. घटना से राज्य भर के मराठा एकजुट हो गए और न्याय की मांग कर आंदोलन पर उतर पड़े. शुरू में स्थानीय स्तर पर लोग इकट्ठे हुए फिर धीरेधीरे प्रदर्शनों का दौर चल पड़ा.
आंदोलन जब जोर पकड़ने लगा तो अभियुक्तों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के अलावा 3 प्रमुख मांगें और उभर कर सामने आईं. वे थीं, दलित उत्पीड़न निरोधी कानून में संशोधन किया जाए, अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत मराठा आबादी को आरक्षण दिया जाए तथा राज्य द्वारा किसानों से अनाज खरीदने के मूल्य यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढोतरी की जाए.
इन मांगों को समूचे मराठा युवकों का समर्थन मिलता गया. इस तरह मराठा आंदोलन आज सरकार की चूलें हिलाने में समर्थ दिख रहा है. असल में मराठा कृषि जातियां हैं जिन के पास खेती की जमीनें हैं और ये जातियां गांवों, कस्बों में एक तरह से दबंग और ताकतवर मानी जाती हैं. राणे, भोंसले, शिंदे, पवार, ठाकरे, जाधव, पाटिल, सालुंके जैसी जातियां राजनीतिक दबदबा रखती हैं और इन्हें राजनीतिक शक्ति का लाभ मिलता रहा था. महाराष्ट्र में करीब 32 प्रतिशत मराठा हैं.
अगर इतिहास में देखें तो 17वीं शताब्दी में ये लोग डेक्कन सल्लतन के सैनिकों की सेवा करते थे और फिर शिवाजी की सेना में सेवा कार्य करने लगे. असल में पिछले दशकों से कृषि की अनिश्चितता और खेती से होने वाले फायदे में कमी से मराठा युवकों में भयंकर बेरोजगारी फैली हुई है. कृषि में नुकसान के चलते अकेले महाराष्ट्र में पिछले वर्षों के दौरान करीब 20 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
इन युवाओं के मन में सरकारी नौकरियों की चाह बढी है. सरकारी कार्यालयों में इन जातियों की संख्या बहुत कम है इसलिए प्रशासन में भागीदारी के लिए ये आंदोलनरत हैं. दूसरी दलित और पिछड़ी जातियां इन से संपन्नता और रुतबे में बराबरी पर आ गई या आगे निकल रही हैं. मराठों में जो रोजगार, संपन्नता और पदप्रतिष्ठा है वह कुछ ही कुलीन मराठों के हाथ में हैं. अभी तक मराठा आरक्षण को हेय नजर से देखा करते थे. उधर दलित और पिछड़ा समुदाय भी इस बात को ले कर चिंतित हैं कि मराठा समुदाय कहीं उन के हिस्से पर कब्जा न करे ले.
यह मामला गुजरात में पाटीदार, हरियाणा में जाट और आंध्रप्रदेश में कापू जातियों द्वारा पिछड़ा वर्ग में आरक्षण मांगने जैसा ही है पर इन जातियों को आरक्षण देना इतना आसान नहीं है. इस में कई कानूनी पेचीदगियां हैं. 1992 में इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि संविधान की धारा 16 के अंतर्गत नौकरी और शिक्षा में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जाएगा. महाराष्ट्र में इस समय 52 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है. अगर 16 प्रतिशत आरक्षण मराठों को दिया जाता है तो यह बढ कर 68 प्रतिशत हो जाएगा.
सरकार का भी कहना है कि मराठा आरक्षण का निदान संविधान संशोधन से होगा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण का प्रतिशत तय किया हुआ है.