उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर के रहने वाले फुरकान अंसारी ने एक नामी प्राइवेट कालेज से कंप्यूटर ऐप्लिकेशन में मास्टर डिगरी ली. लेकिन पढ़ाई खत्म करने के 2 साल बाद भी उसे कहीं ढंग की नौकरी नहीं मिली. उस का कहना है कि कोर्स करते वक्त उस के कालेज में किसी कंपनी ने कैंपस सिलेक्शन के लिए रुख नहीं किया.

कैंपस से निकल कर, सौफ्टवेयर इंडस्ट्री में घुसने के लिए फुरकान ने दिल्ली, गुड़गांव से ले कर बेंगलुरु तक काफी हाथपैर मारे लेकिन कहीं बात नहीं बन सकी. 1 साल की भागदौड़ के बाद वह अपने शहर वापस लौट आया और शहर के एक निजी कालेज में बेहद मामूली तनख्वाह पर कंप्यूटर ऐप्लिकेशन के छात्रों को पढ़ाने लगा. कई कोशिशों के बाद, अभी कुछ दिन पहले जब फुरकान एक सौफ्टवेयर निर्माता कंपनी के इंटरव्यू में शामिल होने के लिए दिल्ली गया तो साक्षात्कार मंडल द्वारा उस से सब से पहला सवाल यह पूछा गया कि अब तक आप कहां थे?

यह बताने पर कि ‘एक निजी कालेज में कंप्यूटर ऐप्लिकेशन पढ़ाते थे’, साक्षात्कार मंडल द्वारा उस से दोटूक कह दिया गया कि अब आप वहीं पढ़ाइए, यहां इंडस्ट्री में आप की जरूरत नहीं है.

लाखों खर्च लेकिन नौकरी नहीं

यह कहानी अकेले फुरकान की नहीं है. देश में ऐसे हजारों फुरकान घूम रहे हैं जो लाखों रुपए खर्च कर आईटी और मैनेजमैंट का कोर्स करने के बाद नौकरी के लिए महानगरों में ठोकरें खाते हुए निष्ठुर बाजार के सामने गिड़गिड़ा रहे हैं. मानव संसाधन और बाजार पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि रोजगार के बाजार में आईटी और मैनेजमैंट के छात्रों की मांग इतनी ज्यादा गिर गई है कि वे उच्च शिक्षित होने के बावजूद, मामूली वेतन पर कंप्यूटर औपरेटर और सेल्समैन का काम पाने के लिए परेशान हैं. यही नहीं, दिल्ली जैसी जगहों पर कई संस्थानों के छात्र सौफ्टवेयर कंपनियों में अनुभव प्रमाणपत्र पाने के लिए कई जगह में मुफ्त इंटर्नशिप तक कर रहे हैं.

बाजार का हाल यह है कि बीटेक और एमबीए पास छात्र 10 हजार रुपए मासिक से कम पर काम करने को तैयार हैं. फिर इन से नीचे के डिगरीधारियों की बाजार में क्या जगह होगी, यह भी गौर करने लायक है. बीसीए, पीजीडीसीए और बीबीए पास छात्रों को बाजार में कहीं कोई जगह नहीं मिल रही है. हर साल एक करोड़ नई नौकरियों का वादा करने वाली नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद भी रोजगार के क्षेत्र में कोई उत्साह नहीं है. दूरस्थ शिक्षा के माध्यम पढ़े छात्रों की समस्याएं और भी ज्यादा हैं. दूरस्थ शिक्षा पद्धति से चलने वाले एक निजी कालेज के अध्यापक अखिलेश मिश्र कहते हैं कि इन संस्थानों से एमबीए और एमसीए करने वाले छात्रों की कोई पूछ नहीं है क्योंकि कंपनियां इन संस्थानों के छात्रों की शिक्षा गुणवत्ता को बेहद निम्न कोटि का मानती हैं.

वे बताते हैं कि ज्यादातर संस्थान एमसीए में पढ़ाने के लिए एमसीए पास लोगों को ही अध्यापक रखते हैं. क्योंकि संस्थान इस से ज्यादा शिक्षित व्यक्ति को पढ़ाने के लिए न्यूनतम तनख्वाह नहीं दे सकता. वे कहते हैं कि एमसीए पास व्यक्ति एमसीए में कैसे पढ़ा सकता है? लेकिन ज्यादातर जगहों पर यही चल रहा है. दरअसल, भारत का निम्नमध्यवर्गीय समाज प्रोफैशनल शिक्षा पर ज्यादा फोकस करता है क्योंकि वह इन कोर्सों को कमाऊ मानता है. यह वर्ग पैसे के बल पर निजी कालेजों से डिगरियां भी खरीद सकता है. इन डिगरियों के सहारे वह अलग किस्म की एक काल्पनिक ‘एलीट’ दुनिया में जीता है जो समाज की कू्रर सचाइयों से उस का सामना नहीं होने देतीं.

आईटी और मैनेजमैंट के छात्र आम सामाजिक जीवन से एकदम कटे हुए ‘पब और पैकेज’ की काल्पनिक दुनिया में जीते हैं. इसी वजह से वे कू्रर अर्थतंत्र वाली दुनिया के संघर्ष में जल्द ही थक जाते हैं और डिप्रैशन में चले जाते हैं यही नहीं, कभीकभी तो आत्महत्या तक का रास्ता अपना लेते हैं. आईटी और मैनेजमैंट के लोगों के लिए कभी बेहतरीन स्थल समझा जाने वाला बेंगलुरु आज ऐसे युवाओं के ‘सुसाइड जोन’ और ‘डिप्रैशन हब’ में तबदील हो चुका है.

निराशा का माहौल

कुल मिला कर आईटी क्षेत्र के लिए बेहद निराशाजनक माहौल है. फिर भी सरकार झूठ बोल रही है कि देश के युवाओं में नौकरी के लिए कोई योग्यता ही नहीं है जबकि देश में नौकरियों की कमी है. लेकिन विश्लेषण में यह तर्क कहीं ठहरता नहीं है.दरअसल, सरकारें इस प्रचार की आड़ में देश के युवाओं को रोजगार देने की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी से पीछे हट रही हैं. वास्तविकता यह है कि यह संकट मुनाफाखोरी की उत्पादन और वितरण प्रणाली की आवश्यक उपज है. सरकारें अर्थव्यवस्था के इस निर्मम सच को झुठला कर इस का ठीकरा बेरोजगारों के सिर ही फोड़ रही हैं. इस समय देश में तकरीबन 35 हजार निजी मैनेजमैंट तथा आईटी कालेज हैं, जिन में हर साल लाखों की संख्या में पढ़ कर छात्र बाहर निकलते हैं. यहां से निकलने वाला हर तीसरा छात्र पूरी तरह से बेरोजगार होता है. 60 फीसदी छात्र कंप्यूटर औपरेटर जैसे बेहद मामूली काम करते हैं.

अगर यह मान भी लिया जाए कि कई प्राइवेट संस्थानों से निकलने वाले छात्र खराब गुणवत्ता वाले हैं तो फिर यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इन्हें गुणवत्तायुक्त बनाए. अगर आईआईएम और आईआईटी को छोड़ दें तो सरकारी संस्थान से निकले छात्रों की भी बाजार में कोई खास मांग नहीं है. इसलिए सरकार का यह तर्क कि बाजार के मुताबिक युवा योग्य नहीं हैं, कहीं नहीं ठहरता.

जहां तक रोजगार में सुधार की बात है. अर्थव्यवस्था से ऐसा कोई ठोस संकेत नहीं मिल रहा है. आज देश का उत्पादन पिछले 10 सालों के सब से न्यूनतम स्तर को छू रहा है, निर्यात में आधे की कमी आ गई है. इस का सीधा मतलब है कि रोजगार के लिए कहीं कोई ‘स्पेस’ अभी लंबे समय तक अर्थव्यवस्था में बनने नहीं जा रहा है. मेक इन इंडिया के ‘प्रचार’ और अथाह विदेशी पूंजी निवेश के प्रायोजित प्रचार के बीच नरेंद्र मोदी सरकार ने केंद्र सरकार की सभी नौकरियों के लिए की जा रही भरतियों पर रोक लगा रखी है. यही नहीं, निजी क्षेत्र में भी हालात निराशाजनक हैं. इन्फोसिस जैसी दिग्गज कंपनी ने अगले 1 साल तक नई भरतियां करने से इनकार कर दिया है.कुल मिला कर देश के युवाओं के सामने रोजगार का संकट मुंह फैलाए खड़ा है. लेकिन रोजगार बढ़ाने के नाम पर ठोस रूप में अब तक कुछ भी सामने नहीं आना सरकार समेत पूरी राजनीति के जनविरोधी और युवाविरोधी चरित्र को बेनकाब करता है.

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