इस बार कई वर्षों बाद जब मैं कानपुर गया तो वहां अपने एक पुराने मित्र घीसूराम ‘हंसमुख’ से मिलने का लोभ संवरण न कर सका. मैं आज से लगभग 10 वर्ष पूर्व जब कानपुर में एक फर्म में नौकरी करता था उस समय हंसमुखजी एक इंटर कालेज में साधारण अध्यापक थे.यद्यपि उन के पत्रों से पता तो यही लगता था कि वे अब भी उसी कालेज में मास्टरी कर रहे हैं किंतु जैसा उन्होंने सूचित किया था तथा कानपुर आने पर मुझे अपने अन्य मित्रों से भी पता लगा कि कविनगर कालोनी में उन्होंने अपनी एक शानदार कोठी बनवा ली है और उन का बैंक बैलेंस भी कुछ वर्षों में 99 लाख रुपए तक पहुंच जाएगा.

इन सूचनाओं पर मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ क्योंकि 10 वर्ष पहले तो हंसमुखजी के पास पैरों में पहनने के लिए चप्पलें तक न थीं. वे अकसर नंगे पांव ही, पैदल चल कर, कालेज जाया करते थे. तन ढकने के लिए उन के पास कुछ मैलेकुचैले, फटे कपड़े थे, जिन में जगहजगह सिलाई की हुई थी. अब उन के रंगढंग इतने कैसे बदल गए? खैर, मिलने से पहले जब हंसमुखजी की विशेषताओं पर विचार करने के लिए मैं ने अपने दिमाग पर विशेष जोर डाला तो मुझे स्मरण हो आया कि कालेज में निम्न कक्षाओं को पढ़ाने के अतिरिक्त हंसमुखजी हास्य रस में कुछ कविताएं भी लिखा करते थे और उन्हें वे अकसर कालेज के साथी अध्यापकों के मध्य सुनाया करते थे जिन्हें सुन कर उन के साथी बहुत फूहड़ सी हंसी हंस देते थे. दरअसल, हंसमुखजी का हास्य अकसर चुटकुलों का हास्य होता था.

कभीकभी वे किसी शब्द को धुन कर हास्य की रुई धुनते थे या कभी किसी चित्रपट के गीत की प्रथम पंक्ति को अपनी 4 पंक्तियों में अंतिम पंक्ति का स्थान दे कर अपने साथियों का मनोरंजन किया करते थे.  हंसमुखजी से मेरी मुलाकात मेरे एक पंसारी मित्र ने कराई थी. उस मुलाकात के बाद तो मैं हंसमुखजी से अनेक बार मिला, अनेक बार अपनी कविताएं उन्हें सुनाईं और उन के मुखारविंद से अनेक बार चुटकुलों को हास्य कविता की पंक्तियों के रूप में सुना. एक बात तो कहना मैं भूल ही गया कि हंसमुखजी केवल हास्य कविताएं ही नहीं पढ़ते थे, बल्कि बीचबीच में वे गद्य में भी कोई चुटकुला या सूक्ति सुना कर लोगों के आनंद में वृद्धि करते रहते थे. मैं ने तो यहां तक अनुभव किया था कि हंसमुखजी का गद्य उन की कविताओं की अपेक्षा लोगों को अधिक प्रभावित करता था और एकाध बार तो मैं ने उन से गद्य में ही बोलने व सुनाने के लिए आग्रह किया. किंतु इस से जब मुझे यह अनुभव होने लगा कि मेरे इस परामर्श के लिए हंसमुखजी मुझ से हमेशा के लिए मित्रता के संबंध तोड़ लेंगे तो मैं ने उन्हें सहर्ष कवि रूप में ही स्वीकार कर लिया था.

और अब जब लगभग 10 वर्ष बाद कानपुर गया तो अपने उस पुराने कवि मित्र को देखे बिना कैसे वापस आ सकता था? मैं ने एक दिन सुबह उठते ही होटल में नित्यकर्म से निवृत्त हो कर कपड़े पहने और अपने कमरे का ताला लगा कर कविनगर कालोनी की ओर चल पड़ा. मार्ग में रिकशे वाले की कछुआ गति देख कर मुझे कभीकभी बहुत कोफ्त होती कि न जाने कैसा रिकशा वाला है, जो मेरे मन में उठते हुए उफान को भी नहीं समझ पा रहा है और ‘नौ दिन चले, अढ़ाई कोस’ वाली कहावत चरितार्थ कर रहा है, किंतु मजबूरी थी. और मैं कुछ देर लगने के बाद ही सही, पता लगातेलगाते आखिर हंसमुखजी की कोठी पर पहुंच ही गया.

पैसे दे कर मैं ने रिकशे वाले को तो विदा किया और कोठी के द्वार पर खड़े हो कर कई बार अपनी निगाहें ऊंची उठा कर हंसमुखजी की 3 मंजिली कोठी को नजर भर कर निहारा. कई बार दरवाजे पर लगी उन की नेमप्लेट पढ़ी, फिर साहस कर के कोठी के दरवाजे पर लगी घंटी का बटन दबा दिया. एक लड़का ऊपर से झांका और मेरा नाम पूछ कर वापस चला गया. थोड़ी देर बाद फिर वही लड़का नीचे आया और मुझे नीचे की मंजिल में बने ड्राइंगरूम में बैठा कर बोला, ‘‘आप बैठिए, बाबूजी अभी नीचे आ रहे हैं.’’

मैं आराम से उन के ड्राइंगरूम में रखे एक नए चमकीले सोफे पर बैठ गया. ड्राइंगरूम में जब मैं ने ऊपर की ओर अपनी नजरें दौड़ाईं तो देखा कि हिंदी के अनेक महान कवियों के चित्रों के साथसाथ कवि सम्मेलनों में खींचे गए हंसमुखजी के भी अनेक चित्र करीने से लगे हुए हैं. मैं कक्ष की कुछ और वस्तुओं पर सुधबुध खोए कुछ देर दृष्टिपात करता, किंतु तभी सहसा हंसमुखजी ने प्रवेश किया. पहले के इकहरे बदन के हंसमुखजी अब दोहरे बदन के प्रतीत होते थे. वे कुरतापायजामा धारण किए हुए थे तथा उन के पैरों में बाथिंग स्लीपर थे. आते ही ‘नमस्कार बंधु’ कहने के साथ बड़े तपाक से उन्होंने मुझ से हाथ मिलाया और बड़े मिठास से बोले, ‘‘कहो बंधु, कब आए? कानपुर एकाएक कैसे आना हुआ?’’ और उन के किसी प्रश्न का मैं उत्तर दे सकूं, इस से पहले ही वे बोल उठे, ‘‘चलो, अच्छा हुआ, तुम सुबह 7 बजे तशरीफ ले आए और मैं घर पर मिल गया, वरना अभी 9 बजे की ट्रेन से मैं कोल्हापुर के लिए रवाना हो रहा हूं, वहां कल हास्यरस का एक विराट कवि सम्मेलन है.’’

फिर उन्होंने सामने रखी मेज की दराज खोल कर एक डायरी निकाली और उस के पृष्ठ पलटते हुए, अपने भाल पर रेखाएं सिकोड़ते हुए बोले, ‘‘आज… तारीख… 13 तारीख है न, बंधु? बस, अब 2 हफ्ते घर से बाहर कटेंगे. 30 तारीख तक 5 कवि सम्मेलन तो बुक हैं ही, बाकी बहुत से आसपास के कसबों के संयोजक दूसरेतीसरे दिन के लिए वही स्टेज पर ही बुक कर लेते हैं तथा कुछ कवि सम्मेलन अपने कवि बंधु ही दिला देते हैं.’’ और फिर अपने स्वर को कुछ जोशीला बनाते हुए वे बोले, ‘‘और वे कुछ मुफ्त में थोड़े ही दिला देते हैं, अपने इलाके के कवि सम्मेलनों में हम भी उन्हें आमंत्रित करा देते हैं.’’ फिर उन्होंने अपने लड़के को आवाज लगाई, ‘‘गांडीव.’’

और जब गांडीव उन के सामने आया तो उन्होंने आदेश के स्वर में कहा, ‘‘देखो, 2 कप चाय और एक प्लेट में नमकीन काजू तुरंत भेज दो,’’ फिर वापस जाते हुए गांडीव को रोक कर बोले, ‘‘हां, सुनो, तुम अपनी अटैची अलग से लगा लो और अपनी जरूरत की सभी चीजें उस में रखना मत भूलना.’’ मैं ने इस विषय में जब प्रश्नसूचक निगाहों से हंसमुखजी की ओर देखा तो एक बड़ी मीठी मुसकराहट के साथ वे बोले, ‘‘बंधु, तुम हमारे पुराने मित्र हो, इसलिए तुम से क्या छिपाना. इस लड़के का पढ़नेलिखने में तो ध्यान है नहीं, परीक्षा में हमेशा जीरो आता है और घर का कामकाज भी कुछ इस के बस का है नहीं, ऊपर से महल्ले में इस की शिकायतें सुनने को और मिलती रहती हैं. सो, मैं ने सोचा कि क्यों न जीतेजी इसे भी लाइन पर लगा दूं, इसलिए इसे मैं ने कुछ वीर रस की कविताएं लिख कर दे दी हैं. जब किसी कवि सम्मेलन में मैं जाता हूं तो इसे भी साथ ले जाता हूं और इस का परिचय वीर रस के कवि के रूप में ही देता हूं.

‘‘देश के सभी प्रमुख संयोजक, हमारा अत्यंत मान करते हैं, हमें दक्षिणा देने के साथसाथ इसे भी कुछ प्रसाद अवश्य दे देते हैं. अभी वैसे शुरुआत है, लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि ऊंट सीधी करवट ही बैठेगा. मैं हास्य रस का कवि और मेरा लड़का वीर रस का कवि…’’ और उन्होंने इस वाक्य को पूरा करने से पूर्व ही कमरे में बड़े जोर का ठहाका लगाया. एक प्लेट में नमकीन काजू और 2 कप गरम चाय आ चुकी थी और हम दोनों मित्र चायपान का आनंद ले रहे थे कि तभी मैं ने उन से पूछा, ‘‘आप नौकरी करते हुए इतने अधिक समय तक बाहर रहते हैं, क्या आप का पिं्रसिपल आप से कुछ नहीं कहता? वह आप की इतनी छुट्टियां कैसे मंजूर कर देता है?’’

चाय की एक चुस्की ले कर हंसमुखजी ने दर्दभरी आंखों से मुझे देखते हुए कहा, ‘‘पिं्रसिपल, वह क्या कहेगा? मैं जब भी कवि सम्मेलनों की यात्रा से लौटता हूं तो उस के लिए कुछ न कुछ तोहफा ले ही आता हूं. अभी कुछ दिन पहले जयपुर गया था तो उस के लिए मैं एक जोड़ी जयपुरी जूते ले आया था.’’ फिर एक काजू मुंह में डालते हुए वे बोले, ‘‘फिर, बंधु, मेरी प्रसिद्धि से उस के स्कूल का नाम भी तो चमकता है. और उसे मैं 1 वर्ष में जितना छीजता हूं, उतना तो कोई अन्य प्राध्यापक आजीवन नहीं कर सकता. बंधु, आर्थिक दृष्टि से कालेज की यह नौकरी अब हमारे लिए है क्या? हम इसे आज चाहें तो छोड़ दें, पर देश के सभी भागों से हमारे पत्र वहीं के पते से आते हैं. कोठी तो हम ने अभी बनवाई है, देश की जनता तो हमारे उसी पते से परिचित है, इसलिए इस कालेज की नौकरी हम छोड़ेंगे नहीं. और जब इस का पिं्रसिपल हर समय हमारी मुट्ठी में रहता है तब हमें किस बात की चिंता?’’

अपने कप की चाय समाप्त कर के मैं फिर कुछ चुस्त हो कर उन के स्प्रिंगदार सोफे पर बैठ गया और आखिर उन से पूछ ही बैठा, ‘‘हंसमुखजी, एक कवि सम्मेलन से कितनी आय हो जाती है?’’ ?इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व हंसमुखजी के भाल पर कई रेखाएं उभरीं और फिर मिट गईं. वे बड़े संयत स्वर में बोले, ‘‘बंधु, शुरूशुरू में जब हम ने कवि सम्मेलन में जाना स्टार्ट किया था तो हम को 10 से 25 हजार रुपए तक मिल जाते थे लेकिन अब हम 40 हजार रुपए से तो कम कहीं लेते ही नहीं. और बड़े कवि सम्मेलनों में हमें 1 लाख रुपया बड़ी आसानी से मिल जाता है. और जिस कवि सम्मेलन में हास्य की कविता सुना कर हमें 1 लाख रुपए की प्राप्ति हो जाती है, गांडीव को भी उसी कवि सम्मेलन से वीर रस की कविता पढ़ने पर 40 हजार रुपए की प्राप्ति मैं करा ही देता हूं.’’

फिर वे मेरे हाथ पर अपनी हथेली की थपकी देते हुए बोले, ‘‘सब से बड़ा लाभ तो इन कवि सम्मेलनों से हमें यह है कि 1 वर्ष में बस दोचार कविताएं लिख लीं और फिर कई वर्षों तक उन्हीं को सुनाते रहते हैं. और कवि सम्मेलनों में तो श्रोतागण पुरानी कविताओं की ही फरमाइश करते रहते हैं. नई कौन सुनना चाहता है.’’ यह कह कर उन्होंने अपनी घड़ी की ओर देखा. मुझे भी उन की कवि सम्मेलनी यात्रा का ध्यान आ गया. मैं ने भी अपनी घड़ी देखी. सवा 8 हो चुके थे. मैं तुरंत सोफे से उठ खड़ा हुआ और हंसमुखजी से विदा लेने के लिए जब उन की ओर अपने हाथ बढ़ाए तो जैसे हंसमुखजी के नयन प्रेम से सजल हो उठे. दरवाजे पर मुझे विदा करते हुए वे बड़े मधुर स्वर में बोले, ‘‘बंधु, इस वर्ष अपने कालेज में भी अब एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन करा डालो. हमारी कविताओं से तो खैर पब्लिक हंसतेहंसते लोटपोट हो ही जाएगी, पर गांडीव की कविताएं सुन कर लोगों की बांहें फड़क उठेंगी. इस बहाने मिलना भी हो जाएगा.’’ ‘‘अच्छा, देखूंगा,’’ कह कर मैं ने उन्हें नमस्ते की और भारी कदमों से पैदल चल कर मैं फिर अपने होटल वापस लौट आया.

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