चूल्हेचौके तक सिमटी रहने वाली देश की तमाम महिला प्रधानों को एक बार लखनऊ के लतीफपुर गांव जरूर जाना चाहिए. शहरी माहौल में पलीबढ़ी श्वेता सिंह ने 2 सालों में ही वहां प्रधानी के वे हुनर दिखा दिए, जो पिछले 200 सालों में नहीं दिखाई दिए थे. लाठीगोली के लिए सुर्खियों में रहने वाली यह पंचायत अब तरक्की के लिए वाहवाही बटोर रही है. जब श्वेता सिंह प्रधान चुनी गई थीं, तब सभी को लगा था कि वे भी दूसरी महिला प्रधानों की तरह रबड़ स्टैंप साबित होंगी. लेकिन पिछले 2 सालों में ही यह गांव लखनऊ का ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश का सब से तरक्कीशुदा गांव बन गया है. इस का पूरा क्रेडिट श्वेता सिंह को जाता है.

पेश हैं, श्वेता सिंह के साथ हुई बातचीत के खास अंश:

यह बदलाव कैसे मुमकिन हुआ?

हम ने शुरुआत में ही गांव की तरक्की पर काम करना शुरू कर दिया था. मुझे पूरा भरोसा था कि एक बार तरक्की की बात शुरू होने से बाकी परेशानियां पीछे छूट जाएंगी.

अब लतीफपुर को हंसतेखेलते लोगों का गांव बनाया जा रहा है. ऐसा गांव जहां फिटनैस के लिए जिम के इंतजाम किए जा रहे हैं. खेलने के लिए आधा स्टेडियम बन कर तैयार है. खेतीबारी करने वालों को काम पर लगाने के लिए हरा चारा उत्पादन केंद्र बनाया जा रहा है.

आप अपने बारे में कुछ बताएं?

मेरा जन्म एक अफसर पिता के घर में हुआ. मेरा मूल गांव वाराणसी के करीब सकलडीहा में है. पिता के तबादलों के चलते कभी हरदोई, कभी खटीमा तो कभी किसी दूसरे शहर में मेरा बचपन बीता. लखनऊ के आईटी कालेज से ग्रेजुएशन करने के बाद मैं ने कंम्यूटर में ग्रेजुएशन तक तालीम हासिल की. कंप्यूटर में एमसीए की पढ़ाई चल ही रही थी कि मैं ने टैलीकौम सैक्टर की एक बड़ी कंपनी में उपभोक्ता मामलों का काम संभाल लिया था. मैं साल 2008 में एक किसान की बहू क्या बनी, शहरी चकाचौंध से मेरा वास्ता टूटता चला गया.

विदा हो कर पहली बार मैं जिस रास्ते से लग्जरी कार में बैठ कर लतीफपुर आई थी, बरसात में वह सड़क नाले में तबदील हो गई. गंदे पानी में घुटने तक डूब कर रास्ता तय करने की गांव वालों की दुश्वारियां देख कर मैं दुखी हो उठी. ये वे पल थे जिन्होंने लतीफपुर की समस्याओं के खिलाफ मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था.

आप ने ग्राम प्रधानी का चुनाव कैसे लड़ा?

कुछ ही समय में मैं वहां के रहनसहन को मोटेतौर पर जान चुकी थी. गीतसंगीत को हथियार बना कर मैं औरतों की सेना तैयार कर चुकी थी. साल 2015 में लतीफपुर प्रधान का पद महिला के लिए रिजर्व्ड किया गया था. मैं ने परचा भरा और निकल पड़ी वोट मांगने.

यह वह मौका था जब मैं गांव की तमाम मुसीबतों से रूबरू हो रही थी. ऊबड़खाबड़ सड़कें, सड़कों पर बहता नालियों का गंदा पानी और शाम होते ही छा जाने वाला घना अंधेरा. गांव के बहुत से मर्दों में शराब पीने की लत, बदहाल पढ़ाईलिखाई, औरतों के साथ होती घरेलू हिंसा ने मुझे झकझोर दिया था. वोटर लिस्ट में 165 फर्जी नामों की फेहरिस्त भी कम बड़ी चुनौती नहीं थी. ब्लौक से ले कर इलैक्शन कमीशन तक दस्तक दे कर लिस्ट में बदलाव तो करा दिया, पर इस बात से प्रशासन चिढ़ गया. गुंडों को शह दे कर मुसीबतें पैदा की जाने लगीं, पर सरकारी पुलिस से ज्यादा हमारी औरतों की सेना कारगर रही.

चुनाव जीतने के बाद गांव की तरक्की कैसे शुरू हुई?

गांव की कुल 58 गलियों में से 49 गलियां पक्की बन चुकी हैं. बिजली के खंभों की तादाद 71 से बढ़ कर 83 हो गई है. झुके खंभे सीधे खड़े हैं और लटकते तार बाकायदा सीना तान चुके हैं. 40 से ज्यादा सोलर स्ट्रीट लाइटें सड़कों को रोशन कर रही हैं. शाम होते ही खुद जल जाने वाली ये लाइटें सुबह सूरज की रोशनी आते ही अपनेआप बुझ जाती हैं. गांव वालों के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं है.

सोलर लाइट से चलने वाला आरओ सिस्टम हर घंटे 500 लिटर मिनरल वाटर मुहैया करा रहा है. मवेशियों को साफ पानी के लिए चरही बनाने का काम जारी है. कम्यूनिटी किचन के साथ कम्यूनिटी टौयलेट को बनाने का काम भी किया जा रहा है. ग्राम पंचायत की आमदनी के लिए जापान की बुद्धा निपुन कंपनी के साथ मैंगो हनी प्रोडक्शन सैंटर बनाया गया है. लतीफपुर में बनाए जाने वाले शहद का चसका जापानियों को लगता जा रहा है.

ट्रैक्टर, ट्रौली, रोटावेटर, लैवलर, वाटर टैंकर, रोड़ी मिक्सर और वाइब्रेटर जैसे उपकरणों से पंचायत को अच्छाखासा किराया भी मिल रहा है. प्लास्टिक की कुरसियां और सोलर जनरेटर सब के काम आ रहे हैं. मुझे प्रदेश सरकार द्वारा ‘रानी लक्ष्मीबाई वीरता अवार्ड’ समेत कई गैरसरकारी अवार्ड भी मिल चुके हैं.

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