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किसान देश की रीढ़ हैं. अन्नदाता और भाग्य विधाता हैं. ऐसे जुमले अकसर किसानों को बहलानेफुसलाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं. कर्ज माफी, फसल बीमा व किसानों की आमदनी दोगुनी करने के ऐलान इसलिए होते हैं ताकि किसानों का वोट बैंक न खिसके. लेकिन हकीकत में किसान हर कदम पर तरसते हैं और उन की हकीकत व बदहाली जगजाहिर है.
किसानों का शोषण कोई नई बात नहीं है. बरसों पहले हिंदी के जानेमाने लेखक मुंशी प्रेमचंद ने अपने दौर में किसानों की बदतर तसवीर दिखाई थी. अपनी लिखी ज्यादातर कहानियों व उपन्यासों में उन्होंने बताया था कि किसानों को किस तरह दमन की चक्की में पीसा जाता है, सामंतवादी और पंडेपुरोहित पिछड़े व गरीब किसानों को कैसे व कितना लूटते और तंग करते हैं.
जातिवाद की देन
दरअसल, हमारे समाज की बनावट व उस की बुनियाद जातियों पर टिकी है. गंवई इलाकों में तो आज भी बहुत से मसलों की जड़ समाज में फैला हुआ वह जातिवाद है जिस का खात्मा होता नजर नहीं आता. समाज का ढांचा जातिवाद के चंगुल में होने का ही नतीजा है कि अगड़े मौज मारते हैं और दलित व पिछड़े हाड़तोड़ मेहनत कर के भी अपने हकों को पाने के लिए तरसते रहते हैं.
अगड़े, अमीर, सेठसाहूकार, जमींदार, मुखिया वगैरह जमीनों के मालिक हैं लेकिन वे सिर्फ हुक्म चलाते हैं. बोआई से कटाई तक के सारे काम वे किसान और मजदूर करते हैं जिन्हें दबा कर नीचे व पीछे रखा जाता है. धर्म, अंधविश्वास व कर्ज की आड़ में उन का शोषण किया जाता है.
अगड़े व पंडेपुजारी बिना कुछ करेधरे मौज मारने को अपना हक समझते हैं. खूनपसीना बहा कर फसल उगाने का काम किसानों का और सफाई, खिदमत व ताबेदारी को दलितों व पिछड़ों का फर्ज बताया जाता है, ऊपर से हिस्सा, बेगारी, लगान, तकावी, चुंगी, महसूल, मंडी शुल्क, घटतौली, आढ़त व कटौती की आड़ में किसानों को लूटा जाता है.
खेती बनी घाटे का सौदा
सहकारी समितियां व मंडी समितियां किसानों को शोषण से बचाने और सहूलियतें देने की गरज से बनाई गई थीं लेकिन उन में से ज्यादातर पर अगड़ों का कब्जा है और वे भी किसानों को लूटने का अड्डा बन कर रह गई हैं खासकर 80 फीसदी किसान, जो छोटी जोत के, कम पढ़ेलिखे व गरीब हैं, की दिक्कतों का अंत ही नहीं है.
लगातार लागत बढ़ने से किसानों को मुनाफा तो दूर, उपज की वाजिब कीमत भी वक्त पर पूरी नहीं मिलती. ज्यादातर किसानों को खेती से गुजारा करने लायक आमदनी भी नहीं होती. मजबूरन उन्हें खेती व घरखर्च के लिए कर्ज लेना पड़ता है लेकिन माली तंगी के चलते वे उसे वक्त पर अदा नहीं कर पाते. ऊपर से बेहिसाब तकलीफों से तंग आने, कहीं कोई सुनवाई न होने व अपने हकों से बेदखल होने से बहुत से किसान इतने मायूस हो जाते हैं कि आखिर में उन्हें खुदकुशी करने को मजबूर होना पड़ता है.
ऊंट के मुंह में जीरा
किसानों को बाजार की लूट से बचा कर वाजिब कीमत दिलाने के मकसद से सरकार फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है. इस के लिए साल 1965 में कृषि मूल्य आयोग बनाया गया था.
20 साल बाद साल 1985 में उस का नाम बदल कर कृषि मूल्य लागत आयोग कर दिया गया. यह आयोग कुल 25 अहम फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है लेकिन किसान इस मोरचे पर भी भेदभाव के शिकार होते हैं.
कृषि उपज की सरकारी कीमतों में बढ़ोतरी न के बराबर होती है. पिछले 10 सालों में गेहूं की सरकारी कीमत तकरीबन 60 से 70 फीसदी व गन्ने की कीमत तकरीबन 80 फीसदी बढ़ी है जबकि सरकारी मुलाजिमों के वेतन भत्तों में 150 से 200 फीसदी व सांसदों के वेतन भत्तों में 400 फीसदी का भारी इजाफा हुआ है. महंगाई के मारे किसान उपज की वाजिब कीमत मांगते हैं लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज नहीं सुनी जाती.
नतीजतन, किसान अपनी माली जरूरतें पूरी करने के लिए भी तरसते रहते हैं. हालात से तंग आ कर वे जहांतहां धरनाप्रदर्शन करते हैं लेकिन फिर भी किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती, किसानों की आवाज अनसुनी कर दी जाती है. साथ ही मंदसौर की तरह किसानों को लाठीडंडे व गोली खा कर जान भी गंवानी पड़ती है.
कोई रहमोकरम नहीं
किसानों व मजदूरों के शोषण का सिलसिला आज भी बरकरार है क्योंकि सरकारों में हमेशा ही किसान विरोधी लोग हावी रहे हैं. उद्योगव्यापार के मुकाबले किसानों को तरजीह नहीं दी जाती. उन्हें सिर्फ लगान देने वाला गुलाम समझा जाता रहा है. जातिवाद की इस देन के चलते किसान परेशान हो कर अपने हकों व हर चीज को तरसते हैं.
मसलन चीनी मिलों को गन्ना बेच कर किसान हर साल उस की वाजिब कीमत नकद व तुरंत पाने तक के लिए तरस जाते हैं. चीनी मिल मालिक हर साल किसानों को टरकाते हैं. वे गन्ने की कीमत व ब्याज के अरबों रुपए जबरन दबा कर बैठ जाते हैं और भुगतान करने के वक्त सुप्रीम कोर्ट तक चले जाते हैं. यह किसानों पर ज्यादती है.
उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों पर 20 नवंबर, 2017 को किसानों की गन्ना कीमत के तकरीबन 8 अरब, 53 करोड़, 88 लाख रुपए बकाया थे. इस में 23 करोड़, 85 लाख रुपए साल 2015 के, 39 करोड़, 71 लाख रुपए साल 2016 के व सब से ज्यादा 790 करोड़, 32 लाख रुपए साल 2017 के सीजन के बकाया हैं. मतलब, गन्ना किसान अपनी माली जरूरतें पूरी करने के लिए तरस रहे हैं, लगातार एडि़यां घिस रहे हैं लेकिन कोई नहीं सुनता.
देश में गन्ने के कुल रकबे का तकरीबन आधा हिस्सा अकेले उत्तर प्रदेश में है. चीनी मिलें गन्ने की कुल पैदावार का तकरीबन आधा हिस्सा ही खरीद पाती हैं इसलिए वहां लाखों किसान अपनी उपज खुद पावर कोल्हू में पेर कर गुड़ बनाते हैं लेकिन वे बिजली पाने को भी तरसते हैं, क्योंकि शहर जगमगाते हैं और गांवों को रोजाना 18 घंटे भी बिजली नहीं मिलती.
जो खेती करे सो मरे
बोआई से कटाई तक सूखा, बाढ़, कीड़े, बीमारी, आग, जानवर व चोरी जैसे जाखिमों के बाद जब फसल पक कर तैयार होती है तो मंडी में दलाल, बिचौलिए, आढ़ती व भ्रष्ट सरकारी मुलाजिम किसानों को चूना लगाने को तैयार रहते हैं. खरीद चाहे गन्ने की हो या गेहूं और धान की, खरीद के सैंटरों पर तौल, हिसाब व भुगतान में गड़बड़ी होना एक आम बात है.
इस मिलीभगत को दूर करने के कारगर इंतजाम नहीं किए जाते. गंवई इलाकों में सही तरीके से प्रचारप्रसार ही नहीं किया जाता. किसानों के फायदे की बातों को जानबूझ कर छिपाया जाता है इसलिए ज्यादातर किसानों को उन्हें दी जाने वाली छूट, सहूलियतों व माली इमदाद की कानोंकान खबर तक नहीं मिल पाती. छुटभैए नेता व भ्रष्ट मुलाजिम हिस्सा बांट लेते हैं और जरूरतमंद किसान देखते रह जाते हैं.
मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश के सहकारिता, पशुपालन, कृषि, गन्ना व बागबानी के महकमों में अजब हाल हैं. वहां किसी ओहदेदार को यह देखने की फुरसत ही नहीं है कि सरकारी स्कीमों का फायदा बरसों से लगातार व बारबार कुछ खास परिवार ही क्यों हड़प रहे हैं? मिलीभगत से फर्जी बैंक खाते खोल कर भ्रष्ट मुलाजिम गोलमाल कर देते हैं.
पड़ता खराब असर
लूटखसोट व बदइंतजामी की नदी भी ऊपर से नीचे की ओर बहती है इसलिए उस का असर किसानों की सहकारी संस्थाओं पर भी पड़ा है. नतीजतन, अब कारिंदे ही नहीं बल्कि चुने हुए संचालक व सभापति भी इस सब से अछूते नहीं हैं. किसानों की रहनुमाई करने के नाम पर वे भी बहती गंगा में हाथ धोते हैं.
ऐसे नुमाइंदों की भी कमी नहीं है जो भाईभतीजावाद करने, अपना घर भरने व अपना मतलब पूरा करने के लिए नियमकायदों को धता बताते हैं, संस्था
व किसानों को चूना लगाते हैं. इन सब गोरखधंधों से जेब चालबाजों की भरती है व माली नुकसान किसानों का होता है. किसानों पर पड़ रही इस मार का नतीजा है कि वे खेतीबारी करना छोड़ रहे हैं.
ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देशभर में गेहूं का क्षेत्रफल साल 2013-14 में कुल 304.73 लाख हैक्टेयर था जो साल 2015-16 में घट कर 302.27 लाख हैक्टेयर रह गया. इसी तरह धान का क्षेत्रफल 441.36 लाख हैक्टेयर से घट कर 433.88 हैक्टेयर, गन्ने का क्षेत्रफल 49.93 लाख हैक्टेयर से घट कर 49.53 लाख हैक्टेयर व तिलहनी फसलों का क्षेत्रफल 280.50 लाख हैक्टेयर से घट कर 261.34 लाख हैक्टेयर रह गया है.
अहम फसलों की बोआई का क्षेत्रफल कम होने का सीधा असर कुल पैदावार पर पड़ा है. साल 2013-14 में गेहूं का उत्पादन 958 लाख टन था जो साल 2014-15 में घट कर 935 लाख टन रह गया. इसी तरह धान का उत्पादन 1066 लाख टन से 1043 लाख टन व तिलहन का उत्पादन 327 लाख टन से घट कर 253 लाख टन रह गया.
किसानों के लिए चल रही स्कीमों में रुपया बहाने के बावजूद खेती में तरक्की की तसवीर बहुत धुंधली है. खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल व उपज प्रोसैसिंग की नई तकनीक, नए बीज व नई मशीनें ज्यादातर किसानों की पहुंच से बाहर हैं इसलिए छोटे किसानों की जिंदगी में बदलाव नहीं दिखता है.
उपाय भी हैं
तालीम, एकजुटता, जागरूकता और तकनीकी ट्रेनिंग की कमी से किसानों को खेती, बागबानी, कोआपरेटिव, डेरी, मंडी, तहसील, चकबंदी वगैरह के दफ्तरों में जराजरा से काम के लिए धक्के खाने पड़ते हैं.
छोटेमोटे कर्ज अदा न करने पर भी हवालात, कुर्की व खेत बिकने तक की नौबत आ जाती है, ट्यूबवैल की बिजली कट जाती है इसलिए किसानों की दशा सुधारने के कारगर उपाय करने जरूरी हैं.
दरअसल, पैसे की तंगी से ज्यादातर किसान जीने, रहने, बच्चों की शादी व पढ़ाई तक के लिए हर चीज को तरसते रहते हैं. आज नेताओं व अफसरों को किसानों के मसले सुलझाने की चिंता, जरूरत व फुरसत नहीं है. अगर आगे भी यही सिलसिला जारी रहा तो किसान व उन के बच्चे खेती से मुंह मोड़ लेंगे तब मुश्किलें बेकाबू हो जाएंगी.
सरकारी, सहकारी व निजी सैक्टर में नए कदम उठाए जा सकते हैं. मसलन किसानों को पराली से बिजली, खाद व कागज की लुगदी वगैरह बनाने, डब्बाबंदी कर के उपज की कीमत बढ़ाने, इंटरक्रौपिंग से जमीन का बेहतर इस्तेमाल करने, खेती की लागत घटाने, प्रति हैक्टेयर उपज बढ़ाने वगैरह की तकनीक सिखाई जाए ताकि खेती का खर्च कम से कम व पैदावार ज्यादा से ज्यादा हो व खेती से किसानों की आमदनी बढ़ सके.
देश की खुशहाली के लिए खेती के सहायक कामधंधों और गांवों में फूड प्रोसैसिंग यूनिटों को बढ़ावा देना लाजिमी है. किसानों को खुद भी अकेले या मिल कर गांवों में छोटेबड़े कारखाने लगाने के लिए आगे आना चाहिए. सरकारों को इस में भरपूर सहूलियतें, छूट, माली इमदाद वगैरह किसानों को देनी चाहिए ताकि किसानों की दिक्कतें कम हो सकें और वे कदमकदम पर हर चीज के लिए तरसने को मजबूर न रहें.