अक्तूबर नवंबर 2017 में दिल्ली व आसपास के इलाकों में जैसे ही गुलाबी ठंड का आगाज हुआ वैसे ही हरियाणा व पंजाब की तरफ से आने वाली धूल और प्रदूषण भरे धुएं के गुबार ने हवा में जहर घोल दिया. वातावरण में फैले इस स्माग ने लोगों को नाक पर रूमाल बांधने पर मजबूर कर दिया. अस्थमा की बीमारी वाले लोगों के लिए यह ज्यादा परेशानी का सबब बनने लगा.
क्या जनता क्या नेता, सभी की उंगली हरियाणा और पंजाब की ओर उठने लगी कि यह जहरीला धुआं इन्हीं राज्यों से किसानों द्वारा धान की पराली जलाने से आ रहा है जिस ने लोगों का जीना दूभर कर दिया.
दिल्ली, हरियाणा व पंजाब की सरकारों में मुंहजबानी जंग शुरू हो गई और वे एकदूसरे के ऊपर इस का ठीकरा फोड़ने लगे. जब इस से कुछ हासिल होता नहीं दिखा तो गरीब की लुगाई सब की भौजाई वाली कहावत सच होने लगी. सब का निशाना किसान बनने लगे कि इस के जिम्मेदार वे ही हैं. ऐसे किसानों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए, उन किसानों पर केस दर्ज करो और जुर्माना लगाओ, जो पराली जला रहे हैं. इस के तहत हजारों किसानों को निशाना भी बनाया गया.
प्रदूषण के खिलाफ होहल्ला करने में दिल्ली की केजरीवाल सरकार सब से आगे रही और दूसरे प्रदेशों की सरकारों पर आरोप लगाती रही. लेकिन जब एक आरटीआई से खुलासा हुआ तो हकीकत कुछ और ही नजर आई. दरअसल दिल्ली सरकार ने पर्यावरण सेस के तहत साल 2015 से साल 2017 के बीच 787 करोड़ रुपए की वसूली की, लेकिन दिल्ली का प्रदूषण कम करने के नाम पर मात्र 93 लाख रुपए ही खर्च किए. हाल में वर्ष 2017 में तो केजरीवाल सरकार ने एक पैसा भी प्रदूषण के नाम पर खर्च नहीं किया. इसलिए दूसरे पर आरोप लगाने से पहले अपने गिरेबान में झांक लेना भी जरूरी है.
कुछ दशक पहले तक पारंपरिक तरीके से खेती होती थी, जिस में पशुओं का भी खासा योगदान था. उन के लिए भी चारा चाहिए होता था. उस समय गेहूं व धान के अवशेष चारे के रूप में इस्तेमाल होते थे. आज खेती में कृषि मशीनों का चलन बढ़ गया है. नएनए हार्वेस्टर, रीपर जैसी फसल काटने की मशीनें आ गई हैं, जो फसल में फल वाले ऊपरी हिस्से को काट देती हैं और बाकी नीचे फसल का पूरा तना बच जाता है, जिसे फसल अवशेष मान कर जलाया जाता है.
किसान फसल अवशेष इसलिए जलाता है जिस से वह समय से अगली फसल उगाने की तैयारी कर सके. भारत में साल में 2 बार फसल अवशेषों को जलाया जाता है. गेहूं और धान दोनों ही बंपर पैदावार वाली फसलें हैं. अप्रैल में गेहूं की फसल और सितंबरअक्तूबर में धान की फसल तैयार होती है. इसी दौरान फसल अवशेषों को जलाया जाता है. धान की फसल कटने के बाद तुरंत गेहूं की फसल भी बोनी होती है, इसलिए अगली फसल बोने के लिए खेत भी तैयार चाहिए. हालांकि पराली को खेत में जोत कर गलाने के बाद बेहतर खाद बनती है, लेकिन हर किसान के लिए यह काम संभव नहीं है. हर किसान की माली हालत इतनी अच्छी नहीं होती कि वह पराली का प्रबंधन कर सके. न चाहते हुए भी उसे यह कदम उठाना पड़ता है.
पंजाब सरकार की सफाई
एक अनुमान के मुताबिक केवल पंजाब में ही 19.7 मिलियन टन पराली होती है, जिस का ज्यादातर हिस्सा जला कर खत्म किया जाता है. पंजाब सरकार भी किसानों पर ज्यादा सख्ती नहीं करना चाहती. पिछले दिनों पंजाब सरकार ने पराली प्रबंधन के काम आने वाली मशीनों के लिए 1109 करोड़ रुपए सब्सिडी की योजना केंद्र के पास भेजी, लेकिन वह फाइल भी कृषि मंत्रालय में ही अटक गई. इस के बाबत अब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी ने कृषि मंत्रालय से जवाब मांगा है.
वायु प्रदूषण को देखते हुए जब चारों तरफ से पंजाब सरकार पर दबाव पड़ा तो पंजाब सरकार के वित्त मंत्री मनप्रीत बरार ने कुछ अलग ही रास्ते सुझाए. उन्होंने कहा कि हम पंजाब में धान उगाना बंद कर उस की जगह सब्जी की खेती करेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि मनरेगा के तहत किसानों को 5-6 दिनों के लिए काम दिया जाए जिस से वे पराली हटा सकें. साथ ही केंद्र सरकार डीजल पर कुछ सेस लगाए और इस को पराली जलाने से रोकने के लिए किसानों को मुआवजे के तौर पर दिया जाए. वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार का कहना है कि पराली प्रबंधन के लिए उन की सरकार किसानों को 4 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर के हिसाब से धन मुहैया कराएगी. इस के लिए पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान राज्यों के लिए रकम का आवंटन भी किया है.
मशीन खरीदने की सलाह
‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की तर्ज पर किसानों को सलाह बहुत दी जाती है. सरकारें भी इस में पीछे नहीं हैं. सरकार भी फसल अवशेषों के प्रबंधन के लिए किसानों को मशीनें खरीदने की सलाह देती रही हैं, जबकि ज्यादातर किसान कृषि मशीनें खरीदने की स्थिति में नहीं होते. पहले ही किसान कर्ज के तले दबे हैं ऊपर से मशीन खरीदने का सरकारी कर्ज अलग. पंजाब सरकार मशीनों पर किसानों को सब्सिडी देने की बात करती है, लेकिन मशीनों की कीमत भी कम नहीं है. चोपर थ्रेडर मशीन की कीमत साढ़े 4 लाख से 6 लाख रुपए, कटर रैंक बेलर मशीन की कीमत 16 लाख रुपए और हैप्पी सीडर मशीन की कीमत लगभग सवा करोड़ से 1 करोड़ 40 लाख रुपए के आसपास होती है. इस के अलावा जीरो टिल, सीड ड्रिल, स्ट्रा बेलर, रोटावेटर, मल्चर आदि अनेक मशीनें हैं, जिन के इस्तेमाल से पराली प्रबंधन में सहायता होती है, लेकिन ऐसी मशीनों को खरीदना हर किसान के लिए मुमकिन नहीं है. उन की इतनी आमदनी नहीं होती कि वे यह बोझ उठा सकें.
पंजाब में सुपरस्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों का भी यही कहना है कि पराली को आग लगाए बगैर निबटाने का सस्ता और आसान
ढंग कंबाइन हार्वेस्टर पर सुपर स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम लगा कर धान की कटाई करना है. फसल काटते समय ही इस मशीन के जरीए पराली के छोटेछोटे टुकड़े हो जाते हैं, जो पशुओं के चारे के रूप में भी इस्तेमाल हो सकते हैं. इस से किसानों को अतिरिक्त आमदनी भी हो सकेगी. हालांकि इस मशीन को कंबाइन हार्वेस्टर के साथ अलग से जोड़ा जाएगा, जिस का खर्च तकरीबन सवा लाख रुपए अलग से होगा.
अभी तक पंजाब में तकरीबन 1000 कंबाइन मशीन मालिकों ने यह सिस्टम अपनी मशीनों में लगवाया है और जहां इन मशीनों से धान की कटाई हुई है, उन इलाकों में धान की पराली को जलाने की जरूरत नहीं पड़ी है. इस मशीन से कटाई के बाद किसान खेत में हैप्पी सीडर मशीन के जरीए गेहूं की सीधी बीजाई कर सकते हैं.
हरियाणा सब से आगे
चौतरफा दबाव का नतीजा अब दिखने लगा है और आने वाले समय में हमें इस समस्या से नजात मिलने की भी संभावना बन रही है. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने कहा है कि प्रदूषण किसी एक राज्य की समस्या नहीं है और हवा व आकाश को सीमा के दायरे में नहीं बांधा जा सकता. यह हम सब की समस्या है. हरियाणा इस मामले में सब से पहले काम कर रहा है.
हमारी सरकार ने पराली के डिस्पोजल के लिए कुछ नियम बनाए हैं. इस में कृषि यंत्रों का खासा योगदान है. हम ऐसे कृषि यंत्र तैयार करवा रहे हैं, जो पराली का प्रबंधन खेत में ही कर सकेंगे. इन कृषि यंत्रों को किसानों के लिए कम कीमत पर दिया जाएगा, जो किसान इन्हें नहीं खरीद सकते उन किसानों को ये कृषि यंत्र किराए पर दिए जाएंगे.
पराली को ले कर एक अन्य प्रोजेक्ट पर भी काम चल रहा है, जिस में फसल कटाई के दौरान ही पराली में बचे अवशेषों को छोटेछोटे टुकड़ों में बदल कर खेत की जुताई कर दी जाएगी.
इसलिए मौजूदा हार्वेस्टिंग मशीन के लिए एक अलग से मशीन तैयार की जा रही है, जो एकसाथ सारे काम करेगी जिस से फसल काटते समय ही पराली खेत की मिट्टी में मिल जाएगी और पानी देने के बाद कुछ ही दिनों में पराली गल कर खाद में बदल जाएगी.
सरकार ने जारी की रकम
एनजीटी के आदेश के बाद केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने राज्य सरकारों से कहा कि जीरो टिल, सीड ड्रिल, हैप्पी सीडर, स्ट्रा बेलर, रोटावेटर जैसी मशीनों को फार्म मशीनरी बैंकों के जरीए किसानों को मुहैया कराया जाए. इन मशीनों से फसल अवशेषों का सही प्रबंधन हो सकेगा और किसानों को पराली जलाने की जरूरत नहीं होगी.
केंद्र सरकार ने वर्ष 2017-18 के लिए पंजाब के लिए 48.50 करोड़, हरियाणा के लिए 45 करोड़, राजस्थान के लिए 9 करोड़ और उत्तर प्रदेश के लिए 30 करोड़ रुपए जारी किए. कहने का मतलब है कि होहल्ला तो बहुत हो रहा है, पर किसानों तक कितनी स्कीमें पहुंच पाती हैं, यह देखने की बात है.
वर्षों से नहीं जलाई पराली
कई किसान अब भी इस तकनीक को अपनेअपने खेतों में अपना रहे हैं. ऐसे ही हरियाणा के एक किसान हैं, जो फतेहाबाद में रहते हैं. वे धान की खेती करते हैं. उन्होंने पिछले 6 सालों से पराली को जलाया नहीं है, बल्कि वे इसे रोटावेटर के जरीए खेत में जोत कर खाद बनाते हैं.
सुखविंदर सिंह कहते हैं कि पराली को खेत में जोतने का काम सुबह के समय करना चाहिए, क्योंकि उस समय खेतों में ओस का है, गीलापन रहता है.
उस समय पराली से मिट्टी अच्छी तरह चिपक जाती है, जिस का अच्छा नतीजा मिलता है. उस के बाद खेत में पानी दे कर छोड़ देना चाहिए. 20-25 दिनों में पराली खेत में सड़ जाती है, जिस से उम्दा किस्म की खाद बन जाती है. खेत में अलग से खाद डालने की जरूरत भी नहीं होती.
हालांकि समयसमय पर कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किसानों को सलाह भी दी जाती है कि वे फसल अवशेषों को न जलाएं, बल्कि उन्हें खेत में जोत कर खाद बनाएं जिस से किसान का खाद का खर्च भी बचेगा और जमीन की पैदावार कूवत भी बढ़ेगी.
फसल अवशेष जलाने से खेती की जमीन में फायदा पहुंचाने वाले मित्र कीट केंचुए आदि भी खत्म हो जाते हैं.
इन सब तरीकों को जमीन पर उतारने के लिए सरकार को किसानों के साथ खड़ा होना होगा. उसे किसानों की मदद करनी होगी. उन्हें फसल की सही कीमत दिलानी होगी तभी हर किसान आज के मशीनी दौर में अपनी खेती करने के तौरतरीकों में बदलाव कर सकेगा.